भारतीय संस्कृति का विकास जिस धरातल पर हुआ है उसे अक्षुण्य और स्थिर रखने वाले चार प्रमुख आधार स्तम्भों में गौ का मुख्य स्थान है। गौ भारत की आत्मा है। शरीर में जितना आत्मा का महत्व है वही महत्व गौ का भारत के जीवन में अनादि काल से है। हमारे कौटुम्बिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, स्वास्थ्य और आर्थिक जीवन में गौ का मुख्य भाग होने से उसे मां कहकर पुकारा है। गौ रक्षा करती है, सम्पत्ति देती है, शक्ति और शौर्य आदि गुणों की वृद्धि में वह एक विदुषी मां की भूमिका प्रस्तुत करती है।
राष्ट्र के मान चिन्हों में गाय का स्थान सर्वोपरि नहीं तो अद्वितीय अवश्य है। राष्ट्रीय जीवन में उसके व्यापक महत्व पर प्रकाश डालते हुए स्वयं वेद ने कहा—
यज्ञ पदीराक्षीरा स्वधाप्राणा महीलुका।
वशा पर्जन्यत्नी देवान् अप्येति ब्रह्मणा ॥
—अथर्ववेद 10।10।6
अर्थात्—गौ यज्ञ शाला जैसे पवित्र स्थान में रखने योग्य है। इराक्षीरा अर्थात् सात्विक और तेज प्रदान करने वाला रूप दुग्ध भोजन देती है। स्वधा प्राणा है—प्रत्येक प्राणी को अपना अस्तित्व धारण किये रहने के लिये यथेष्ट सहायता देने वाली है। गौ महीलु अर्थात् पृथ्वी को उर्वरा बनाये रखने वाली है।
पर्जन्यपत्नी के रूप में तृण आदि खाकर हृष्ट-पुष्ट होती है किसी के लिये भार नहीं बनती। अपने इस प्रभाव से वह प्रजा को अल्प प्रयास में ही देवलोक का अधिकारी बनाती है।
गौ के महत्व और उपादेयता के लिए भारतीय संस्कृति अपवाद नहीं। संसार के विभिन्न धर्म, मतावलम्बियों और महापुरुषों ने भी उसे माना है। विचार और विवेचन की दृष्टि से जहां हिन्दू धर्म के अनेक अंग बौद्ध, जैन, बल्लभ, सिक्ख, शैव, वैष्णव आदि सम्प्रदाओं में मित्रता है वहां गाय के महत्व को सबने एकमत होकर स्वीकार किया है।
महात्मा गांधी का कथन है—‘‘मेरे विचार में गाय भारतीय संस्कृति का मेरुदण्ड है उसे निकाल दो तो फिर संस्कृति का अस्तित्व ही कुछ नहीं बचता।’’ ‘‘मुझे ले लो मेरे प्राण ले लो पर गाय को छोड़ दो, इस जैसा पवित्र पशु नहीं।” यह शब्द महामना पं. मदनमोहन मालवीय के हैं। लाला लाजपतराय कहा करते थे—‘‘दूध घी पर ही भारत का जीवन निर्भर है गायें नहीं रहेंगी तो हमारे बच्चे कैसे जियेंगे।’’ गुरु गोविन्द सिंह ने अपने शिष्यों को आदेश दिया था—
यही आशा पूर्ण करो तुम हमारी।
मिटें कष्ट गवन छूटे खेद भारी॥
मोहम्मद साहब की धर्मपत्नी आयशा हजरत की पवित्र वाणी है—‘‘फरमाया रसूल अल्लाह ने कि गाय का दूध शिफा है और घी दवा उसका मांस नितान्त मर्ज है।’’ मुल्ला मोहम्मद बाकर हुसेनी ने गाय की तुलना फलदार वृक्ष से की। हकीम अजमलखां—‘‘न तो कुरान और न अरब की प्रथा ही गौ की कुर्बानी का समर्थन करती है।’’ बुद्ध धर्म की लोकनीति में कहा गया है—‘‘सब गृहस्थों को भोग देने वाले और पालने वाले गौ-बैल ही हैं इसलिए माता-पिता के समान उन्हें पूज्य मानें और सत्कार करें।’’ (लोकनीति 6) ईजियन द्वीप समूह में प्राचीनकाल में गाय की जो प्रतिष्ठा थी उसका दिग्दर्शन वहां के सोने के सिक्कों में देखा जा सकता है। ग्रीक, रोमन और नार्डिक में गौ पालन भारत के समान ही परम धार्मिक कार्य माना गया। यही स्थान गौ को सुमेरियन और हिराइट संस्कृति में भी मिला है। जरथुश्तीय गाथाओं, इजिपिशयन शिला लेखों और प्राचीन मिश्र की कहानियों में गौ पूजन के स्पष्ट वर्णन मिलते हैं। गाय को सार्वभौमिक महत्व देने का एक ही कारण था, उसकी उपयोगिता, जो परिस्थितियां बदल जाने पर भी कम नहीं हुई वरन् आज तो उसकी आवश्यकता और भी अधिक है।
गोवंश की दुर्दशा भारत में अंग्रेजी शासनकाल से प्रारम्भ हुई।
अंग्रेज लोग गायों का मांस खाते थे इसलिए यहां व्यापक रूप से गायें काटी जाने लगीं। आज भी भारतवर्ष से दुनिया के सब देशों से अधिक गोमांस ब्रिटेन को जाता है पर अंग्रेजों की दृष्टि में भी गाय की उपयोगिता कम नहीं। कितना बड़ा धोखा है कि इंग्लैंड हमारी गायों के मांस का सबसे बड़ा ग्राहक है जबकि स्वयं इंग्लैंड में गौ के काटने में प्रतिबंध है। सर जान उडरफ ने इस सम्बन्ध में बड़े महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किये हैं। गौ हत्या से सम्बन्धित कलकत्ता के एक सम्मेलन में उन्होंने कहा—
‘‘गौ मांसाहारियों के स्वार्थ के लिए गाय और बैलों पर आक्रमण किया जाता है। उनके स्वार्थ के लिए दूसरों का स्वार्थ क्यों नष्ट किया जाय, थोड़े से मांसाहारियों के लिए हत्या जारी रहे और जिसका दूध का स्वार्थ है। वे थोड़ी चिल्लाहट मचाकर ही चुप हैं यह आश्चर्य है।’’
भारतवर्ष कृषि प्रधान देश है। यहां अधिकांश किसान हैं इसलिए यह बताने की आवश्यकता नहीं कि गौ-वंश भारतवर्ष के लिये कितना उपयोगी है। महात्मा गांधी ने एक ही शब्द में उस पर प्रकाश डाल दिया है वे लिखते हैं ‘‘भारत की सुख-समृद्धि गौ और उसकी संतान के साथ जुड़ी हुई है।’’
हिन्दुस्तान का जूता विदेशों में मशहूर है अच्छी किस्म का चमड़ा मरे हुए जानवर की अपेक्षा वध किये जानवर का होता है अतः यहां गायें असंख्य मात्रा में कटती हैं। ‘क्रोमलेदर’ नामक चमड़ा जिसके बहुत कीमती जूते बनते हैं वह गर्भिणी गाय को मारकर, उसके बच्चे की जीवित खाल उधेड़ कर बनाया जाता है।
सरकारी रिपोर्टों के आधार पर सन् 1952—53 में छियालीस लाख दस हजार गायों की खालें बाहर भेजी गई, जिनका मूल्य सात करोड़ छप्पन लाख दस हजार रुपये होता है। बछड़ों की खालें इससे अलग हैं। उनकी संख्या भी उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है सन् 1945-46 में 1,72000 बछड़ों की खालें विदेश गई जबकि 1952—53 में यही संख्या बढ़कर 2007960 हो गई। यह केवल 10 प्रतिशत भाग था शेष 90 प्रतिशत की खपत देश में ही हो जाती है। तात्पर्य यह है कि इस संख्या से दस गुने से भी अधिक गायों का वध यहां होता है। इसके लिए बम्बई, मद्रास आदि बड़े शहरों में विशाल स्लाटर हाउस (वध-केन्द्र) बने हुए हैं और वहां प्रतिदिन हजारों की संख्या में गायें काटी जाती हैं।
विदेशों को माल निर्यात करने वाले 22 में से केवल तीन बन्दरगाहों से गो मांस के निर्यात के आंकड़े इस तरह हैं—बम्बई से 3169950 रुपये, कलकत्ता से—2169350 रुपये और मद्रास से 299139 रुपये का। यह 1952—53 के आंकड़े हैं जबकि इन दिनों यह औसत काफी अधिक बढ़ गया है। जहां एक ओर संविधान में गौ-संरक्षण की बात कही गई है वहां सरकार द्वारा गो-वध को प्रोत्साहन दिया जाना इस देश के लिए बड़े दुर्भाग्य की बात है।
सन् 1942 में 5370000 गायें काटी गई थी। दरभंगा गौशाला सोसायटी के संचालक श्री धर्मलाल सिंह का हिसाब है कि एक करोड़ बाईस लाख गौयें वर्ष भर में काटी जाती हैं।
इसका मतलब यह हुआ कि भारतवर्ष में प्रतिदिन लगभग 34000 और प्रतिमिनट 25 गायों के गले पर छुरी फेर दी जाती है। यह कितना भीषण हत्याकाण्ड है। इसके अतिरिक्त कसाइयों के हाथ से खींची गई खालों का वर्णन तो और भी आतंकित करने वाला है। कहते हैं किसी पत्थर से कूट−कूट कर जिन्दा गायों की खाल काढ़ ली जाती है जिससे सर्वोत्तम किस्म के जूते, चमड़े के बैग और अटैचिया, बेल्ट आदि बनते हैं। अहिंसावादी देश भारत के लिये यह नृशंस हिंसा एक प्रकार का अशोभनीय कलंक है।
ऐसा लगता है आज गौ माता की चीत्कार भारतीय जनता को उद्वेलित कर रही है। हम जिस श्रद्धा को खो बैठे हैं उसका स्मरण होना पुण्योदय ही है। इस संघर्ष की बेला में एक व्रत हमारा भी है कि हम सच्चे अर्थों में गौ भक्त बनकर उसका अनुग्रह प्राप्त करें पर अभी तो यही एक बहुत बड़ा कार्य हमारे सामने है।
गौवंश की रक्षा और उसमें अपना सहयोग होना नितान्त आवश्यक है। हमें इस आधार स्तम्भ को भी खड़ा रखना है, ताकि हमारी संस्कृति का धरातल गिरने न पाये, हमारी अध्यात्मिक हानि न होने पाये।