भारतीय संस्कृति की रक्षा कीजिए

वर्ण व्यवस्था का स्वरूप और प्रयोजन

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पूर्व काल में समाज के कर्णधार ऋषि-मुनियों ने आर्यों को, जो कि अब हिन्दू कहे जाते हैं, आवश्यकतानुसार केवल चार वर्गों में विभक्त किया था—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र। यह चार वर्ग वर्ण कहे जाते थे। ऋषियों द्वारा यह विभाजन बड़ा ही वैज्ञानिक, प्रगतिशील और उपयोगी था। किन्तु तब इन वर्गों में किसी प्रकार का जातीय भेदभाव अथवा आज की तरह ऊंच-नीच की भावना नहीं थी। चार वर्गों में विभाजित होने पर सम्पूर्ण समाज एक आर्य जाति की सूत्रता में आबद्ध था। सब आर्य थे और सबको ही समाज रूप से सामाजिक अधिकार मिले हुए थे। यदि यह विभाजन ऊंच-नीच अथवा बड़े-छोटे के आधार पर किया गया होता तो शायद समाज का कोई आर्य सदस्य इसे मानने को तैयार न हुआ होता और यदि यह जोर जबरदस्ती के आधार पर किया जाता तो उस समय आर्य वीर विद्रोह कर देते और इतना भयानक गृहयुद्ध होता कि भारत, भारतीय-सभ्यता-संस्कृति और धर्म की स्थापना करके जगद्गुरु के पद पर प्रतिष्ठित होने वाली आर्य जाति उस पूर्वकाल में कट-मर कर कब की समाप्त हो गई होती। क्योंकि उस स्वाधीनता और समानता के समय में न तो किसी को दबाया जा सकता था और न कोई दब ही सकता था।

दूरदर्शी ऋषि-मुनि इस आधार पर समाज में विभाजन, विघटन और विद्रोह उत्पन्न करके आर्य जाति का अहित करने की कभी नहीं सोचते। ऋषियों ने अपने समाज में वर्ग-विभाजन अथवा वर्ण व्यवस्था अच्छी प्रकार से सोच समझ कर बड़े ही वैज्ञानिक ढंग पर सर्व सम्मति से की थी। यही कारण था कि आगे चल कर आर्य जाति अपना अतुलनीय विकास कर सकी, और इस सर्व सम्मत वर्ण-विधान को सारा समाज सच्चाई के साथ मानता हुआ उसके अनुसार अपना कर्तव्य करता चला आया। ऋषियों की स्थापित की हुई वर्ण-व्यवस्था हिन्दू समाज में विघटन का कारण नहीं है। इसका कारण वे विकृतियां हैं जो कालान्तर में अनेकों उपद्रवों, आक्रमणों और सामाजिक अस्त-व्यस्तता के कारण उत्पन्न हो गईं और जिनको दूर करने की ओर कोई विशेष ध्यान न दिया गया। आदिकालीन भारतवर्ष में आर्यों की अपेक्षा अनार्यों की संख्या बहुत रही है। जहां आर्य सृजनात्मक विचारधारा के अनुरूप काम करते हुए सभ्य, सुसंस्कृत एवं विकासोन्मुख, उन्नत समाज, का निर्माण करते हुए एक स्थायित्व पाने के प्रयत्न में लगे रहते थे, वहां केवल लूट-मार करके अपनी जीविका चलाने वाले अनार्य आये दिन उन पर आक्रमण कर दिया करते थे। उनका सामना करने के लिए सारे आर्य समुदाय को निर्माण कार्य छोड़ कर युद्ध में लग जाना पड़ता था और इस प्रकार सभी बनी बनाई व्यवस्था बिगड़ जाती थी।

 फिर नये सिरे से काम शुरू करना पड़ता था। खेत उजड़ जाते थे, शिल्प नष्ट हो जाते थे और योजनायें बिगड़ जाती थीं। साथ ही सैकड़ों महान मस्तिष्क कट कर रणभूमि में गिर जाते थे जिससे इनमें चल रही विकास की विचार धारायें जहां की तहां समाप्त हो जाती थीं। इस प्रकार आए दिन बड़ी-बड़ी हानियां होती रहती थीं। जितना आगे बढ़ पाते थे उतना ही पीछे हट जाना पड़ता था। निदान अनार्यों की इस बर्बरता से परेशान होकर समाज के मनीषी महात्माओं ने गहराई से विचार इस समस्या का कोई स्थायी हल निकाल लेने का निश्चय कर लिया। अस्तु, उन्होंने विचार किया और पूरे समाज को चार वर्णों के नाम से चार वर्गों में विभक्त कर दिया। एक वर्ग में उन्होंने वे व्यक्ति रखे जो चिन्तनशील स्वभाव के थे और अध्ययन एवं अध्यापन, समाज सेवा एवं लोक नेतृत्व में जिनकी रुचि सर्वोपरि थी। इस वर्ग को उन्होंने ब्राह्मण कहा। दूसरे वर्ग में वे लोग लिए गये जो स्वभाव से दुर्धर्ष और साहसी थे। शरीर से अपेक्षाकृत हृष्ट-पुष्ट और संग्राम कार्य में जिनकी रुचि सर्वोपरि थी। इनको क्षत्रिय कहा गया। तीसरे वर्ग में वे व्यक्ति शामिल किये गये जो स्वभाव से उत्पादक, संगठनकर्ता मितव्ययी, शान्त और सहिष्णु थे। कृषि एवं वाणिज्य व्यवसाय में जिनकी रुचि सर्वोपरि थी।

 इन तीसरे वर्ग के लोगों को वैश्य बताया गया। चौथे वर्ग में उन सब लोगों को रखा गया जो अविशेष स्वभाव, साधारण रुचि और सामान्य शिल्प के थे और जो उपर्युक्त तीनों वर्गों में से किसी में भी समस्थ न हो सकते थे। इनको शूद्र की संज्ञा दी गई। ऋषियों का यह वर्ग विभाजन कितना वैज्ञानिक, व्यवहारिक और उपयोगी था इस पर विचार करने से तो उनकी मनीषा को ईश्वरी स्फुरणा ही कहते अच्छा लगता है। पहले इस वर्ण व्यवस्था की उपयोगिता पर विचार कीजिए। किसी भी संघर्ष के समय सारे के सारे लोग दौड़ कर लड़ाई में जाते थे और इसके पूर्व सब लोग सब कामों के करने में लगे रहते थे इसलिए विशेष युद्धाभ्यास के अभाव में कोई दक्षता न प्राप्त कर पाते थे फलस्वरूप एक के स्थान पर चार मर कर शत्रुओं से पार पा सकते थे। इससे अनावश्यक जनक्षति हुआ करती थी। इसके अतिरिक्त सब प्रकार के लोग होने से प्रथम वर्ग के लोग दया भाव से विचार पूर्वक लड़ते थे, रुचि एवं स्वभाव के विपरीत तीसरे वर्ग के लोग बेगार टालने के कारण बेकार मारे जाते थे और चौथे लोग अनुशासन की महत्ता न जानते और परिस्थिति विशेष के लिए प्रत्युत्पन्न बुद्धि न होने से व्यूह बिगाड़ने और कमजोर पक्ष बन कर शत्रुओं को बढ़ने का अवसर देते थे। केवल दूसरे वर्ग के लोग ही रुचि से लड़ते-मरते थे सो भी अदक्षता एवं असंगति के कारण उतना कुछ न कर पाते थे जितना अपनी वीरता के बल पर उन्हें कर दिखाना अपेक्षित होता था।

 लड़ाई में एक साथ सबके लग जाने से बाकी कृषि, व्यवसाय एवं अन्य सारे शिल्प बन्द हो जाते थे, जिससे लड़ाई के लिए रसद और हथियारों आदि की पूर्ति कम पड़ने लगती थी। घर अरक्षित एवं अकेले रह जाते थे और स्त्री–बच्चे भूख से लेकर भय तक के शिकार बने रहते थे। शिक्षा-दीक्षा का सारा काम जहां का तहां रह जाता चारों ओर एक अजीब अस्त-व्यस्तता, अभाव और अधीरता का वातावरण छाया रहता था। वर्ग विभाजन हो जाने से इन सब अव्यवस्थाओं में सुधार हो गया। दूसरे वर्ग के क्षत्रिय कहे जाने वाले व्यक्ति अपना सारा समय और ध्यान युद्धाभ्यास में लगने से युद्ध कला में कौशल होकर अच्छे योद्धा बनने लगे। रणभूमि में एक मन तन से छटे हुए सैनिकों के लड़ने से कम समय और कम बलिदान में बड़ी-बड़ी विजय मिलने लगीं और इधर विचारणा, विद्या, योजना, उत्पादन व्यवसाय और सामान्य शिल्प के अन्य सारे काम भी होते रहें जिससे विजनता और विपन्नता के भयद वातावरण से शेष समाज की रक्षा होती रही। इस प्रकार जहां शीघ्र ही शत्रुओं का दमन हो गया वहां समाज में सम्पन्नता भी आने लगी। इस व्यवस्था की यह उपयोगिता भी मानी जायगी।

संक्रान्ति समाधान के लिए सुदूरदर्शी मनीषियों ने जिस वर्ग अथवा वर्ण व्यवस्था को योजित किया था उसका इतना व्यापक लाभ देख कर शान्ति समय के लिए भी उसे मान्य कर दिया। वे समदर्शी दार्शनिक यदि स्वप्न में भी यह देख पाते कि उसकी दी हुई विद्या को उनके ही अनुयायी उन्हीं के रचे हुये समाज को नष्ट–भ्रष्ट करने में ही प्रयोग करने लगेंगे तो निःसन्देह वे निर्मोही एवं निस्पृह महात्मा उस आपद्गालीन व्यवस्था को उसी समय समाप्त करके कोई दूसरी व्यवस्था दे गए होते। अब यदि यह भी मान लिया जाये कि समयानुसार यदि यह ऊंच-नीच भावजन्य जातिवादिता हिन्दू समाज में प्रवेश भी कर गई है तो अब बुद्धिमानी इसी में है कि युग की आवश्यकतानुसार इसे निकाल बाहर भी किया जाये। जिस प्रकार इसे किसी विवशता से कभी स्वीकार भी किया था तो अब इसके बहिष्कार करने में ही कल्याण है। अन्यथा इसका जो कुफल आज तक हिन्दू समाज ने भोगा है उसका शत सहस्र गुना कुफल आगे भोगेगा। समय के अनुसार यदि मान्यतायें न बदली गईं तो शरीर में विजातीय तत्वों की तरह यह शीघ्र ही हिन्दू-समाज को ठिकाने लगा देंगी।


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