भारतीय मनीषियों ने (1) संस्कारों का प्रचलन और (2) पर्व तथा त्योहार मनाने की पुण्य परम्परा को व्यवहारिक रूप देकर विश्व और समाज का बड़ा उपकार किया है। यों आज भ्रम-वश लोग इनमें सन्निहित शिक्षाओं पर न चल कर केवल चिन्ह पूजा मात्र करते हैं पर सचमुच जब लोग इनकी शिक्षाओं को हृदयंगम भी करते रहें होंगे तो सामाजिक जीवन में बड़ी आध्यात्मिक चेतना, हास-उल्लास उत्साह और जीवन रहा होगा। लोग नैतिक व चारित्रिक, शरीर स्वास्थ्य, सामाजिक व्यवहार आदि सभी बातों में निपुण रहे होंगे और तब यहां निःसन्देह सुख-शांति और समृद्धि की कमी न रही होगी।
मध्य-युग में पर्व और त्यौहारों में सन्निहित प्रेरणाओं को अपने जीवन में उतारने की अपेक्षा उन्हें मनोरंजन की जैसी स्थिति में रखा गया। सही ढंग से न मनाने का परिणाम यह हुआ कि इतने बहुमूल्य जनजीवन को सम्भ्रान्त और सुसंस्कृत बनाने वाले का व्यक्तिगत और सामाजिक संस्कारों का कुछ भी महत्व न रह गया। इन्हें इस ढंग से मनाया जाय जिससे जन-साधारण को उनका महत्व मालूम पड़े और कुछ ऐसी प्रेरणा मिले जिससे हमारा समाज अधिक स्वस्थ, समर्थ सुसंस्कृत एवं प्रगतिशील बन सके तो प्राचीनकाल जैसा वातावरण और पुरोगामी परिस्थितियां आज भी पैदा की जा सकती हैं। नव-निर्माण की इस शुभ घड़ी में प्रचलित पर्व और त्योहारों की पूर्व प्रचलित पद्धति एवं परिपाटी को पुनः जागृत करने की बहुत आवश्यकता है। समाज के नैतिक व चारित्रिक उत्थान में तो इनसे बल मिलेगा ही व्यक्तिगत और सामूहिक सुख और सन्तोष की परिस्थितियां भी उनसे उमड़ेंगी।
उपरोक्त विचारधारा से हम तब परिचित हुए जब पिछले वर्ष पूज्य आचार्य जी ने हमें कृपा पूर्वक गायत्री तपोभूमि बुलाया और एक माह तक अपने समीप रह कर पर्व और संस्कार मनाने की पूर्व पद्धति का प्रशिक्षण दिया। विधि-विधानों को सीखने के साथ-साथ उनमें सन्निहित मनोवैज्ञानिक शिक्षाओं को हम गम्भीरतापूर्वक अपने मस्तिष्क में उतारते रहे। यह तो नहीं कह सकते कि इसमें हम पूर्ण दक्ष हो गये पर इतनी शक्ति अवश्य ग्रहण की जिससे लोगों को उनकी शिक्षाओं का सामान्य बोध करा सकें।
पर्याप्त प्रशिक्षण प्राप्त करने के पश्चात् हम वापस लौटे। अपने साथ इस सम्बन्ध का सम्पूर्ण साहित्य भी लेते आये। वापस आकर अपने शाखा सदस्यों से इस सम्बन्ध में परामर्श किया। मेरे अतिरिक्त किसी अन्य सदस्य ने इन कर्मकाण्डों को न तो देखा ही था और न प्रशिक्षण ही प्राप्त किया था इसलिये उत्कण्ठा तो सबने व्यक्त की पर मैंने यह अनुभव किया कि पर्वों का पूजन आदि करते समय अकेले मन्त्र पाठ करने से वह आकर्षण व प्रभाव न उत्पन्न किया जा सकेगा, जो तपोभूमि में दिखाई दिया करता था। सदस्यों को भी उसके लिए कुछ न कुछ प्रशिक्षित होगा आवश्यक था।
साहित्य अपने पास था ही, पुस्तकें बांटकर प्रयुक्त होने वाले मन्त्र रटने शुरू कर दिये। शाम को या एक दो दिन में जब कभी एक दूसरे से मिलते तो अपनी प्रगति की चर्चा भी करते इससे और भी उत्साह और भावना पैदा होती। 1 माह इसी प्रकार अवसर निकाल कर हम लोगों में से 7 व्यक्तियों ने पर्व पूजन के सामान्य प्रकरण के सब मन्त्र कण्ठस्थ कर लिए। इधर दीवाली समीप थी अतः इस त्योहार को ही नव-प्रेरक रूप में मनाने का निश्चय किया गया। इस सम्बन्ध में सब सामान और कार्यक्रमों की सूची 15 दिन पूर्व तैयार करली गई।
आयोजन में अधिक से अधिक लोग सम्मिलित हों इसके लिए रविवार के दिन हम सब लोग शंख और घड़ियाल लेकर निकले और सारे गांव में इस बात की घोषणा कर दी कि दीपावली का सामूहिक आयोजन रखा जा रहा है, पर्वों की प्रेरणा ग्रहण करने अधिक से अधिक लोग आयें। जूनियर हाईस्कूल का खेल मैदान बहादुर गंज रोड़ के बिलकुल किनारे है सड़क में आते-जाते लोग भी इन कार्यक्रमों का दर्शन कर सकें इस दृष्टि से आयोजन के लिए यही स्थान चुना गया। हैड मास्टर साहब का धन्यवाद उन्होंने न केवल अपनी भूमि का उपयोग करने की आज्ञा देदी वरन् सफाई सजावट के लिये 10 लड़के व एक सहायक अध्यापक का बैच भी हम लोगों को दिया।
इस स्थान को झण्डियों, बन्दनवारों, चित्रों, पुष्पों, पल्लवों से भली भांति सजाया गया। एक छोटी-सी यज्ञशाला बनाई गई। पूर्व दिशा की ओर एक भव्य व आकर्षक मंच बनाया गया। इन कार्यों में बच्चों ने बड़ा उत्साह दिखाया। सारा स्थान इस तरह साफ-सुसज्जित किया गया कि उसी में एक नवजीवन उतर आया। लोगों के बैठने को विधिवत व्यवस्था भी एक दिन पूर्व कर दी गई। खम्बों पर अच्छे चित्र और आदर्श वाक्य लिखकर टांगे गये। युग निर्माण योजना की जानकारी, आत्मोत्कर्ष की प्रेरणा देने वाले लगभग 20 वाक्य तख्तियों पर लिखकर सब तरफ लटका दिये गये।
सायंकाल 3 बजे से आयोजन प्रारम्भ हुआ। अभी तक 100 लोगों के लगभग आये थे शेष लोगों का आना जारी था इसलिये प्रारम्भ करने का समय 4 बजे कर दिया गया। 1 घण्टे में कोई 300 स्थानीय जनता एकत्रित हो गई। सर्व-प्रथम श्रीगणेशदत्त जी ने पर्वोत्सवों की आवश्यकता और उन्हें शुद्ध रूप में मनाने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला। दीपावली शिक्षा का विवेचन करते हुये उन्होंने कहा—‘‘दीपावली लक्ष्मी का पर्व माना गया है। लक्ष्मी धन को भी कहते हैं। दीपावली पर हम अपनी आर्थिक स्थिति का लेखा-जोखा लेते हैं और उस पर सम्यक् विचार करते हैं। पर पर्व का उद्देश्य हिसाब-किताब तक ही सीमित नहीं, आर्थिक एवं औद्योगिक क्षेत्र में अपनी बुराइयों को छोड़ कर अच्छाइयों को ग्रहण करने की प्रेरणा देने के लिये दीपावली पर्व-विधान रचा गया। यह पर्व हमें यह शिक्षा देता है कि धन जीवन-विकास का साधन देवता है उसका उपयोग सामर्थ्यवान बनने के लिये करें, भोग-विलास के लिये नहीं। अपव्यय, व्यापार में धोखा, बेईमानी की कमाई—यह अपवित्र कर्म हैं। लक्ष्मी देवी है, पवित्रता की प्रतीक है अतः अपवित्र कर्मों द्वारा उसकी उपासना नहीं करनी चाहिए। धन के सम्बन्ध में हमारी नीति ईमानदारी की होनी चाहिये चाहे खर्च करने की बात हो या उपार्जन की, अनीति का आश्रय नहीं लेना चाहिए।’’
इसके बाद सामूहिक मन्त्रोच्चारण के बीच लक्ष्मी का चित्र, दीप व गौद्रव्य आदि को मंच पर प्रतिष्ठित किया गया। पूजन-क्रिया के साथ-साथ उसका विवेचन भी चल रहा था जिसे उपस्थित दर्शक बड़ी भावना के साथ देख और समझ रहे थे। कोई शोरगुल न था—इससे लोगों की भावनायें सही दिशा में चल रही हैं इसकी पुष्टि होती थी। सामूहिक मन्त्रोच्चारण वातावरण की पवित्रता को और भी आकर्षक बना रहा था।
लक्ष्मी का षोडशोपचार पूजन, स्तोत्र-पाठ, शंख, चक्र, गदा, पद्म आदि आयुधों का पूजन, पंच गव्य-द्रव्यों का पूजन प्रक्रियाओं के साथ उनमें सन्निहित शिक्षाओं से भी लोगों को अवगत कराया गया। गाय के महत्व, उसकी पवित्रता और सात्विकता पर भी प्रकाश डाला गया। 9।। बजे तक सब कार्यक्रम चला और उससे उपस्थित लोग अत्यधिक प्रभावित हुये। अर्थोपार्जन के क्षेत्र में व्याप्त बुराइयों की चर्चा करते हुए अन्त में श्री गणेशदत्त जी व रामेश्वरदास जी के भाषण हुये। उन्होंने द्वेष दुर्गुणों को छोड़कर उपार्जन बढ़ाने के लिये वैयक्तिक तथा सामाजिक स्तर पर ईमानदारी, नैतिकता, श्रम-उद्योग एवं धन के सदुपयोग की आवश्यकता पर प्रकाश डाला और बताया कि जो इन शिक्षाओं को हृदयंगम करते हैं दीपावली का पर्व उन्हीं के लिये सार्थक होता है। धन की उनके पास कोई कमी नहीं रहती, उन्हें धन की तृष्णा न होते हुए धन उनके पीछे भागता है, उन्हीं पर लक्ष्मी देवी की कृपा बरसती है। इसी तथ्य को समझने और समझाने के लिये यह पर्व मनाया जाता है।
इसके बाद युगनिर्माण सत्संकल्प का पाठ किया गया। आयोजन को मनाने में पैसे कम ही खर्च हुए पर उससे लोगों को जो नवीन चेतना मिली और जो सद्प्रभाव बढ़ा उसका मूल्य और महत्व बहुत अधिक था, इसका प्रत्यक्ष अनुभव हुआ। इससे उत्साहित होकर हमारी शाखा तब से निरन्तर प्रत्येक पर्व और त्योहार को मनाती चली आ रही है। दीपावली के बाद गीता जयन्ती, बसन्त पंचमी, शिवरात्रि तथा होली आदि पुण्य-पर्व भी सामूहिक शिक्षाप्रद रीति से मना चुके हैं। हर बार लोग पहले से अधिक संख्या में आये। प्रत्येक बार सन्निहित शिक्षाओं को अधिक स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया। इस सब का प्रतिफल आज अच्छाइयों के विकास के रूप में दिखाई दे रहा है। केवल मेरे गांव हरसेन के लगभग 150 व्यक्ति विभिन्न प्रकार की अच्छाइयों के ग्रहण और बुराइयों के परित्याग का संकल्प ले चुके हैं। इस तरह गांव-गांव आयोजन हों, लोगों को सद्शिक्षायें ग्रहण करने का अवसर मिले तो युग की भयावह परिस्थितियों को बदलना कोई कठिन बात न होगी। मुझे तो ऐसा विश्वास-सा हो गया है कि युग परिवर्तन और समाज संस्कार के लिये (1) संस्कार (2) पर्व और त्योहार यह दोनों सर्वोत्तम उपाय हैं इन्हीं से राष्ट्र की नैतिक धार्मिक एवं चेतना को जीवन मिलेगा।