यों तो उपजातियों और प्रजापतियों के रूप में हिन्दू गठन पहले ही विश्रृंखलित है। अस्पृश्यता ने तो उसमें दरार ही डाल दी। हिन्दू जाति कुलीन और हरिजन दो धाराओं में विभक्त हो कर अपने अस्तित्व को खोने जा रही है। जीवन की जटिलताओं से ऊबे हुए सैकड़ों अमेरिकन और पाश्चात्य देशों के निवासी जिनमें व्यवसायी, डॉक्टर, वकील और छात्र शामिल हैं आत्मशोध और आत्म-सन्तोष के लिए हिन्दू धर्म की शरण ले रहे हैं जो नये लोग हिन्दू धर्म की ओर झुके हैं उनमें अमेरिका के प्रख्यात सिने कलाकार सिनात्रा और शर्ल मैक्लेन भी हैं। पर अपनी ही आधी जाति आज खुशी-खुशी ईसाई धर्म में दीक्षित होती जा रही है। पाकिस्तान के शिक्षा मन्त्री ने बताया कि पिछले वर्ष पाकिस्तान में जितने लोग ईसाई बने उनमें मुसलमान एक भी नहीं था
अधिकांश हरिजन हिन्दू थे। रांची जिले में एक महीने में 1 हजार अस्पृश्य हिन्दू ईसाई बने। मध्य प्रदेश के झाबुआ, बस्तर जिले आन्ध्र, मद्रास तथा आसाम और नागालैण्ड में प्रति वर्ष हजारों की संख्या में लोग ईसाई बनते जा रहे हैं। इन दीक्षितों में अधिकांश हरिजन होते हैं जो बड़ी आसानी से बहका लिए जाते हैं। जातीय अपमान से क्षुब्ध होकर डा. अंबेडकर जैसे विद्वान हिन्दू हरिजन को बौद्ध धर्म की शरण लेनी पड़ी थी। ऐसा उन्होंने बहुत दुःखी एवं हिन्दुओं की दकियानूसी विचार धारा से तंग होकर किया।
स्वराज्य संग्राम से एक बात निश्चित रूप से सामने आई है कि यदि विश्व के समक्ष धर्म और जातीय गौरव को स्थिर रखना है तो जात-पांत का भेद मिटाकर जन्म जाति की बड़ाई का त्याग कर ही देना चाहिये।
महात्मा नारायण स्वामी ने एक बार कहा था—‘‘जात-पांत और अस्पृश्यता का बन्धन हिन्दू जाति के लिये कलंक का टीका है। इसने सारी जाति को छिन्न–भिन्न कर रखा है। हिन्दू जाति में परस्पर घृणा और द्वेष का प्रचार इसी की कृपा का कुफल है। इसलिए भारतीय संस्कृति की उन्नति के लिए इस बंधन को सर्व प्रथम तोड़ना आवश्यक है।’’ इस तथ्य से कोई भी विचारशील व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता।
महात्मा गांधी जी की समाज सेवा में हरिजनों के उत्थान का उद्देश्य पहले नंबर पर था।
आज जो थोड़ी सी सुविधायें हरिजनों को मिली हैं वे उन्हीं के प्रयत्नों का फल है पर सुविधायें देकर उनकी समस्याओं का निराकरण नहीं किया जा सकता। उन्हें शिक्षा-दीक्षा का विशेष प्रबन्ध कर अब तक छाये कुसंस्कारों को कम करना ठीक है पर देखना यह चाहिये कि वे उच्च वर्ग के साथ बैठ कर भोजन कर सकते हैं या नहीं। सामाजिक उत्सवों में, पारस्परिक व्यवहार, धार्मिक उपासनाओं आदि में भी भाग ले सकते हैं या नहीं। मस्तिष्क इतना विवेकी और यथार्थवादी हो कि हरिजनों को मानवीय दृष्टिकोण से देखा जा सके तब काम चलेगा। हम मुसलमानों, ईसाइयों के साथ बैठ कर भोजन कर सकते हैं तो भंगी, चमार और धोबी के साथ क्यों नहीं बैठ सकते?
हरिजन अस्पृश्य है इस घृणित मनोवृत्ति का परित्याग किए बिना हिन्दू जाति संगठित नहीं हो सकती और न उसके अभाव में देर तक अपना अस्तित्व ही बनाये रख सकती है। बौद्ध, जैन, दादू, कबीर, रैदास आदि धर्म और पंथ हिन्दू धर्म से ही अलग होकर बने हैं और उनका अधिकांश कारण छोटी जाति के लोगों की अवहेलना और उदासीनता ही रही है।
परमात्मा की सृष्टि का हर व्यक्ति समान है चाहे उसका रंग-वर्ण, कुल और गोत्र कोई भी क्यों न हो। वैसे हिन्दू एक जाति है उसमें कार्य की दृष्टि से भले ही अनेक इकाइयां हों। वह सब इकाइयां अपने-अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं। न कोई छोटा न कोई बड़ा इसलिए मानवीय दृष्टि से भी हरिजनों या अस्पृश्यों को घृणित और उपेक्षित दृष्टि से देखना ठीक नहीं। इस कलंक को दूर करना हर बुद्धिमान और विचारशील भारतीय का कर्तव्य है। उसके बिना हम संसार के सामने स्थिर रहना दूर अपना अस्तित्व बनाये रखने में ही समर्थ न होंगे।