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वेष-भूषा की मनोवैज्ञानिक कसौटी

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एक दो नहीं संपूर्ण 6 वर्ष तक उसने पार्कों, थियेटरों, छविग्रहों और दूसरे-दूसरे सार्वजनिक स्थानों के चक्कर काटे। एक नहीं हजारों फोटोग्राफ लिये और जिस।जिस के फोटोग्राफ लिये उन-उन के व्यक्तिगत जीवन का परिचय और अध्ययन किया। सोचते होंगे होगा कोई व्यर्थ के कामों में समय गंवाने वाला फक्कड़, पर नहीं वह हैं लन्दन के एक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक—श्रीनेक हेराल्ड जिन्होंने इतने वर्ष के अध्ययन से महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह निकाला कि वेष-भूषा का मनुष्य के चरित्र, स्वभाव, शील और सदाचार से गहनतम सम्बन्ध है। पुरुषों की तरह की वेष-भूषा धारण करने वाली नवयुवतियों का मानसिक चित्रण और उनके व्यवहार की जानकारी देते हुए श्री हेराल्ड लिखते हैं—ऐसी युवतियों की चाल-ढाल, बोल-चाल, उठने-बैठने के तौर तरीकों में भी पुरुष के से लक्षण प्रकट होने लगते हैं।

वे अपने आप को पुरुष सा अनुभव करती हैं जिससे उनके लज्जा आदि नारी सुलभ गुणों का ह्रास होने लगता है। स्त्री जब स्त्री न रह कर पुरुष बनने लगती है तब वह न केवल पारिवारिक उत्तरदायित्व निबाहने में असमर्थ हो जाती है वरन् उसके वैयक्तिक जीवन की शुद्धता भी धूमिल पड़ने लगती है। पाश्चात्य देशों में दाम्पत्य जीवन में उग्र होता हुआ अविश्वास उसी का एक दुष्परिणाम है।” श्री हेराल्ड ने अपना विश्वास व्यक्त किया कि भारतीय आचार्यों ने वेष-भूषा के जो नियम और आचार बनायें वह केवल भौगोलिक अनुकूलता ही प्रदान नहीं करते वरन् स्त्री-पुरुषों की शारीरिक बनावट का दर्शक पर क्या प्रभाव पड़ता है उस सूक्ष्म विज्ञान को दृष्टि में रखकर भी बनाये गये हैं वेष-भूषा का मनोविज्ञान के साथ इतना बढ़िया सामंजस्य न तो विश्व के किसी देश में हुआ न किसी संस्कृति में, यह भारतीय आचार्यों की मानवीय प्रकृति के अत्यन्त सूक्ष्म अध्ययन का परिणाम था। आज पाश्चात्य देशों में अमेरिका में सर्वाधिक भारतीय पोशाक-साड़ी का तो विशेष रूप से तेजी से आकर्षण और प्रचलन बढ़ रहा है दूसरी ओर अपने देश के नवयुवक और नवयुवतियां विदेशी और सिनेमा टाइप वेष-भूषा अपनाती चली जा रही हैं। यह न केवल अन्धानुकरण की मूढ़ता है वरन् अपनी बौद्धिक मानसिक एवं आत्मिक कमजोरी का ही परिचायक है।

 यदि इसे रोका न गया और लोगों ने पैंट, कोट, शूट, बूट, हैट, स्कर्ट, चुस्त पतलून सलवार आदि भद्दे और भोंडे परिधान न छोड़े तो और देशों की तरह भारतीयों का चारित्र्यक पतन भी निश्चित ही है। श्री हेराल्ड लिखते हैं—कि सामाजिक विशेषताओं को इस सम्बन्ध में अभी विचार करना चाहिये अन्यथा वह दिन अधिक दूर नहीं जब पानी सिर से गुजर जायेगा। भारतीय दर्शन में आत्म कल्याण के लिये बहुत उपाय हैं सैकड़ों योग साधनायें हैं वैसे ही लोक-कल्याण के लिए भी अनेक परम्परायें मान्यतायें और आचार-विचार प्रतिस्थापित किये गये हैं उन सबका उद्देश्य जीवन को सशक्त और संस्कारवान बनाना रहा है अब जो परम्परायें विकृत हो चुकी हैं उनमें वेष-भूषा भी कम चिन्ताजनक नहीं हमें अनुभव करके ही नहीं इस मनोवैज्ञानिक खोज से भी सीखना चाहिये कि अपनी वेष-भूषा ओछापन नहीं बड़प्पन का ही प्रतीक है।

हां काले अंग्रेज और काली मैम बनना हो तब तो कुछ भी पहना और ओढ़ा जा सकता है।

                                                                                                 

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