भारतीय संस्कृति की रक्षा कीजिए

हिन्दू समाज का पुनर्संगठन—शुद्धि-प्रथा

<<   |   <   | |   >   |   >>

संगठन शक्ति का राजनैतिक महत्व आज सब देख-समझ रहे हैं, पर एक समय ऐसा भी था जब हिन्दू-जाति ने यह सिद्ध कर दिखाया था कि संगठन केवल सीमा सुरक्षा के लिए ही आवश्यक नहीं है वरन् उससे समाज की सुख-सुविधाओं की भी अभिवृद्धि होती है। व्यवहार तथा आदर्शों की रक्षा के लिये भी संगठन अनिवार्य है। धर्म और संस्कृति की रक्षा जन-शक्ति के आधार पर ही सम्भव है। चार आश्रमों में विभक्त हुई हिन्दू-जाति किसी समय धर्म और संस्कृति के नाम पर इतनी गहराई से जुड़ी हुई थी कि हिन्दू शब्द का उद्बोधन होते ही वे सब एक ध्वज के नीचे एकत्रित हो जाते थे।

उनमें ऊंच-नीच का भेद-भाव न रहता था। यह तो अन्तर्व्यवस्था थी। हिन्दू-धर्म सदैव से ही उदार रहा है। उसने अपने अध्यात्म और दर्शन का लाभ किसी भी जाति को देने में संकीर्णता प्रदर्शित नहीं की। यही कारण था कि किसी समय शक, हूण, मंगोल, अरब, पारसी आदि विभिन्न जाति-धर्म और सम्प्रदायों के लोग हिन्दू-संस्कृति की मान्यताओं से प्रभावित होकर इसमें सम्मिलित हो जाया करते थे, उन्हें शुद्ध कर लिया जाता था और अपनी जाति के एक अंग के रूप में ही उन्हें विकसित कर लिया था। इस विशेषता के कारण ही हिन्दू धर्म लगभग सम्पूर्ण एशिया में छाया हुआ था। तिब्बत, चीन, लंका, वर्मा, सिंगापुर, जावा, सुमात्रा, इन्डोनेशिया, फीजी आदि प्रमुख स्थानों में हिन्दू धर्म फैला हुआ था उसके सांस्कृतिक अवशेष अभी भी इन देशों में विद्यमान हैं। किन्तु जब से हिन्दुओं ने इस परम्परा का परित्याग किया उनकी जनसंख्या संसार की सब प्रमुख जातियों से घट कर रह गई है। ईसाई-धर्म को जन्म लिए अभी दो हजार वर्ष भी नहीं हुए आज उनकी संख्या लगभग एक अरब है और प्रायः सारे विश्व में फैले हुए हैं। इसी प्रकार मुसलमानों की संख्या पचास करोड़ है इनमें से हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में मुसलमानों का 33 प्रतिशत भाग ऐसा है जिन्हें केवल अपने में मिला लिया गया है।

 यहूदी, जोरोट्रियाई, ताओवादी कन्फ्यूशियन्स की भी संख्या बढ़ी ही है पर हिन्दुओं का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि उनकी 33 करोड़ की संख्या जहां बढ़ कर 100 करोड़ हो जानी चाहिए थी इतने वर्षों के बाद घट कर 322223286 रह गई है। बौद्ध, जैन, सिक्ख आदि अनेक धर्म तो बने ही हिन्दुओं से हैं पर वे अपने को उससे अलग मानने और रहने की चेष्टा कर रहे हैं। हिन्दू जगत अभी इस महत्व को भूल रहा है पर अन्त में न केवल अपनी आन्तरिक स्थिति वश वरन् हिन्दुओं की शक्ति और संगठन बढ़ाने के लिए भी दूसरे धर्म में परिवर्तित हुए हिन्दुओं, अन्य धर्मावलम्बियों और जातियों को भी आत्मसात् करने के लिए तैयार रहना होगा। यह कोई नई बात नहीं है। विभिन्न जातियों का समावेश हिन्दू-धर्म की आदि विशेषता है। इसमें धार्मिक दोष नहीं बड़प्पन ही है। समुद्र सारे संसार में एक है उसमें दुनिया भर की नदियां जाकर मिलती हैं, नदियां भी बहुत बड़ी-बड़ी हैं पर जो गौरव समुद्र को प्राप्त है वह क्या किसी बड़ी से बड़ी नदी को प्राप्त हो सकता है? हिन्दू–धर्म भी उतना ही गम्भीर, उतना ही व्यापक और विशाल है जितना समुद्र। उसमें अन्य जातियों का प्रवेश न केवल धर्म के अनुकूल है वरन् उससे विश्व की शान्ति और समृद्धि को भी बल मिलेगा। आत्म-परायण होने के कारण उसमें व्यक्ति और समाज के लिए बन्धन नहीं है कुछ नैतिक मर्यादायें हैं जो प्राणि मात्र के लौकिक और पारलौकिक उत्थान के लिए अनिवार्य और आवश्यक है उन्हें अपनाने में भला किसी को क्यों संकोच होगा। ईमानदारी, सच्चाई, नेकी आदि मानव धर्म हैं और हिन्दू-धर्म इन्हीं का पर्याय ही तो है।

अतः यदि हिन्दू धर्म के प्रसार और अन्य जातियों को शुद्ध कर अपने में मिलाने के लिए कहा जाय तो इसके लिए भ्रम न होना चाहिए। इतिहास साक्षी है कि हमारे देश में यह प्रथा आदि काल से चलती आई है और विभिन्न जातियों के लोगों को शुद्ध कर हिन्दुओं में मिलाया गया है। इन तथ्यों की पुष्टि के अनेकों प्रमाण हैं। ‘‘रायल ऐशियाटिक सोसायटी’’ की बम्बई शाखा के 21 दिसम्बर 1896 के एक अंक के एक लेख में प्रकाशित हुआ था जिसमें सिद्ध किया गया था कि आर्य लोग यज्ञ के द्वारा उन लोगों को शुद्ध कर लिया करते थे जो पहले से आर्य न होते थे। सामवेद के ‘‘ताण्ड्य ब्राह्मण’’ में अध्याय 17 में ऐसा ही उल्लेख है जिसमें 33 अनार्य और एक उनका सरदार कुल 34 व्यक्तियों को विधिवत् शुद्ध किया गया और हिन्दू-धर्म में मिला लिया गया।

 प्राचीन काल में हिन्दुओं की इस उदार वृत्ति के कारण ही अनेक यहूदी, ईरानी, सिथियन, मग, शक, हूण आदि जातियां हिन्दू धर्म में इस प्रकार विलीन हुईं कि आज उन्हें हिन्दुओं के बीच से ढूंढ़ निकालना भी कठिन है। महाराष्ट्र के ‘‘चित्पावन ब्राह्मण’’ महान वेदज्ञ माने जाते हैं, ये वंशानुगत यहूदी और मिश्र के आस-पास के देशों से आये हुये हैं। ‘‘भविष्य पुराण’’ में अफ्रीका के निवासियों को दीक्षित कर ब्राह्मज बना लेने का वर्णन मिलता है—

                                                 मिश्र देशोद्भवाम्लेच्छाः काश्यन सुशासितः ।
                                                 संस्कृत   शूद्रवर्णेन ब्    रह्मवर्णमुमागतः ।।

अर्थात्—‘‘मिश्र (अफ्रीका) के मूल-निवासी जो संस्कृति और सभ्यता की दृष्टि से शूद्रवत ही थे उन्हें शुद्ध कर ब्राह्मण बना लिया गया।’’

भिलसा (अब विदिशा) में गरुड़ध्वज की खुदाई से प्राप्त एक शिलालेख में लिखा है ‘एण्टिआल्कटस’ नामक यूनानी राजा के राजपूत ‘‘हेलियोडोरिस’’ ने हिन्दू धर्म में विधिवत् दीक्षा ली और इसी प्रसन्नता में उसने भगवान् वासुदेव का एक मंदिर निर्माण कराया। सं. 1038 के एक अन्य शिलालेख में भी ऐसा ही वर्णन है जिसमें यह बताया गया है कि ईरान से आये हुए मल लोग यहां आकर बस गए और उन्होंने वेदाध्ययन किया। बाद में उन्हें यज्ञोपवीत धारण करा कर ब्राह्मण बना लिया गया। मुलतान के समीप एक मन्दिर इन्होंने बनवाया, और अन्त में वे इसी में पूजा कर्म भी करने लगे।

ऐसे अनेकों प्रमाण हैं जो शुद्धि प्रथा का अनुमोदन करते हैं। ऋग्वेद में कहा गया है—

                                                 उतदेवा अवहितं देवा उन्नयथा पुनः ।
                                                 उताश्चक्रु षं देवा  देवा  जीवथा पुनः ।।

अर्थात् , हे विद्वानो! यदि कुछ लोगों के आदर्श भिन्न रहे हैं या दूसरी जाति में उनके छोटे आदर्श थे तो उन्हें ऊंचा स्थान और ज्ञान देकर उन्हें श्रेष्ठ बनाओ।’’

मनुस्मृति (11-18) में इस प्रकार के आदेश देकर कहा है—"सर्वाणि ज्ञाति कर्मणि यथापूर्व समाचरेत ‘‘

अर्थात्—शुद्ध हुआ पुरुष पहले की तरह अपने वर्ण के सभी कर्तव्यों का पालन करें।

आपस्तम्ब सूत्र में कहा है—शुद्ध हो जाने पर उन्हें अपनी जाति के सब कर्म सिखाने चाहिए।

सूत्रकार ने लिखा है—‘‘तत्उर्ध्व प्रकृतिवत्—उनकी प्रकृति गुण कर्म स्वभाव को ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए कहो। ‘पाराशर स्मृति में स्वेच्छा, प्रमाद अथवा परिस्थितिवश हीन आचरण करने वालों को क्षम्य बताया है। ‘‘देवस्य स्मृति’’ में शुद्धि संस्कार के लिए आवश्यक प्रेरणा दी गई है—

                                                 बलाद्दाशी, कृतो म्लेच्छैश्चाण्डालाद्यैश्चदस्युभिः ।
                                                 अशुभं कारित कर्म गवादि प्राणीहिंसनम् ।।
                                                 उच्छिष्टमार्जन दैव तथा तस्यैव भक्षणम् ।
                                                 ब्राह्मण क्षत्रियस्तवर्ध कृच्छान् कृत्वा विशुद्धयति ।
                                                 मासोषिमश्चरेद्वैश्यः शूद्रः पादेनविशुद्धयति ।।

अर्थात्—जिन लोगों का विधर्मियों, म्लेच्छों तथा दस्युओं ने पकड़ कर बलपूर्वक धर्म परिवर्तित कर लिया हो, उनसे जबरदस्ती हिंसा कराई हो, जूठा भोजन खिलाया हो तो उन्हें कृच्छ सान्तपन करके ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य एवं शुद्र आदि श्रेणियों में मिला लेना चाहिये। इसमें उस समय के अनुसार कड़े प्रायश्चित के विधान भी बताए गए हैं पर जब कि अपने ही लोगों में तपनिष्ठा नहीं रही तब दूसरे लोगों से वह कठिन प्रक्रियायें कैसे कराई जा सकती हैं?

 अतः अब केवल यज्ञ में मन्त्र दीक्षा और यज्ञोपवीत देकर अन्य धर्मावलम्बी या जाति के व्यक्ति को शुद्ध कर लेना चाहिए। हिन्दू जाति संगठन, सहयोग एकता, उदारता पर पहले से ही विश्वास करती आई है पर अब इस युग में जब कि विश्व शान्ति के लिए भारतीय धर्म, आदर्श और सिद्धान्तों की आवश्यकता है इन तत्वों की आवश्यकता और भी अधिक बढ़ गई है। भलाई की शक्ति कितनी ही सुन्दर और ग्रहणीय क्यों न हो यदि वह सशक्त न हो तो अधिक दिन तक टिक नहीं सकती। अतः हिन्दू धर्म को संगठित और मजबूत बनाना भी नितान्त आवश्यक है।

इसके लिए छुआछूत मिटाई जाय, भेद-भाव को नष्ट किया जाय यह सब तो आवश्यक है ही पर शुद्धि प्रथा के द्वारा उन लोगों को जो अपने धर्म से च्युत कर दिये गये हैं तथा अन्य जाति के लोगों को भी अपने में मिलाने में संकोच नहीं करना चाहिए। अन्य जातियों, धर्मों के लोग यदि हिन्दू-जाति में सम्मिलित हों तो अपना बड़प्पन भी है कि लोग बाहर से आयें और भारतीय धर्म और संस्कृति का लाभ उठायें।

                                                                              

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118