यों मनुष्य भी अन्य प्राणियों की तरह एक पशु है। थोड़ी बुद्धि अधिक रहने से वह अपेक्षाकृत कुछ अधिक सुख-साधन प्राप्त कर सकता है इतना ही सामान्यतः उसे बुद्धि विशेषता का लाभ है।
पर यदि उसकी अन्तःप्रेरणा उच्च भावनाओं, आदर्शों एवं आकांक्षाओं से अनुप्राणित हुई तो वह असामान्य प्रकार का, उच्चकोटि का, सत्पुरुषों जैसा जीवन-यापन करता हुआ न केवल स्वयं सच्ची सुख शांति की अधिकारी बनता है वरन् दूसरे अनेकों को भी आनन्द और सन्तोष की परिस्थितियों तक ले पहुंचने में सहायक होता है। यदि वह अंतः प्रेरणाएं निकृष्ट कोटि की हुईं तो न केवल स्वयं रोग, शोक, अज्ञान, दारिद्र, चिन्ता, भय, द्वेष, दुर्भाव, अपकीर्ति एवं नाना प्रकार के दुःखों का भागी बनता है वरन् अपने से सम्बद्ध लोगों को भी दुर्मति एवं दुर्गति का शिकार बना देता है। जीवन में जो कुछ श्रेष्ठता या निकृष्टता दिखाई देती है उसका मूल आधार उसकी अन्तःप्रेरणा ही है। इसी को संस्कृति के नाम से पुकारते हैं। जिस प्रकार कोई पौधा अपने आप उगे और बिना किसी के संरक्षण के बढ़े तो वह जंगली किस्म का कुरूप हो जाता है।