सत्य का आधार - सत्य की साधना हेतु कुछ स्वर्णिम सूत्र

May 2002

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जिन्हें साधना करने की चाहत है, उन्हें कुछ विशेष ढंग से जीना होता है। आध्यात्मिक जीवन के लिए कोरी चाहत काफी नहीं है। जो अकेली चाहत को रखते हैं, वे केवल अपने कल्पना जाल में उलझे रहते हैं। बाद में उन्हें पछतावा और निराशा के अलावा कुछ भी हाथ नहीं लगता। क्योंकि साधना के लिए तीव्र अभीप्सा के साथ संकल्प एवं श्रम भी आवश्यक है। सत्य की साधना के लिए साधक को चित्त की भूमि वैसे ही तैयार करनी होती है, जैसे फूलों को बोने के लिए पहले भूमि को तैयार किया जाता है। इसके लिए कुछ अनिवार्य सूत्र हैं।

इनमें से प्रथम सूत्र है- वर्तमान में जीना। यदि सचमुच ही साधना के लिए तैयार हैं तो अतीत के ख्यालों एवं भविष्य के ख्वाबों से बाहर आना होगा। जो बीत गया सो बीत गया, जो भविष्य में होना है वह समय पर अपने आप ही हो जाएगा। अतीत और भविष्य की याँत्रिक चिन्तन धारा में बहने वाले अपने वर्तमान को खो देते हैं। वर्तमान का जीवित क्षण उनके हाथों से निकल जाता है। जबकि केवल वही वास्तविक है। न अतीत की कोई सत्ता है और न ही भविष्य की। एक स्मृति है तो दूसरी कल्पना। वास्तविक एवं जीवित क्षण तो केवल वर्तमान है। जिन्हें साधना करनी है, उन्हें स्वयं में इतनी जागृति तो लानी ही होगी कि वे अपने आप को अतीत की स्मृति एवं भविष्य के कल्पनापाश से मुक्त रख सकें। जो जाग्रत् हैं वे ही ऐसा कर सकेंगे। और जो ऐसे करेंगे, वे स्वतः ही जाग्रत् हो जाएँगे।

इस सूत्र की साधना के लिए हर रात्रि ऐसे सोएँ जैसे सारा अतीत छोड़कर सो रहे हैं। सोने से पहले अतीत को भगवत्स्मरण में विसर्जन कर दें। हर रात मरने की अनूठी कला सीखें- मरना अतीत के प्रति। और हर सुबह- नया जन्म लें। सुबह एक नयी सुबह में- एक नए मनुष्य की भाँति उठें। ध्यान रहे जो सोया था, वह न उठे। वह सोया ही रहे। उसे उठने दें जो कि नित नया है, अभिनव है। तत्त्वबोध और आत्मबोध का यह विज्ञान वर्तमान को ऊर्जावान बना देता है। जिसका वर्तमान, जितना अधिक प्राणवान है, वह उतना ही श्रेष्ठ साधक है।वर्तमान में जीने का अभ्यास सतत चौबीस घण्टे प्रारम्भ कर दें। होश में रहें कि कहीं मन फिर से अतीत और भविष्य के झूले में नहीं झूलने लगा। इससे छुटकारा पाने के लिए इसके प्रति जाग्रत् होना ही पर्याप्त है। जाग्रत् होने भर से बेहोशी की गतिविधियाँ अपने आप ही छूट जाती हैं।

इस क्रम में दूसरा सूत्र है- सहजता से जीना। आज हमारा, हम सबका जीवन कृत्रिम और असहज हो गया। मनुष्य पर्याय बन गया कृत्रिमता के आडम्बर का। सदा ही हम अपने ऊपर एक झूठ की चादर ओढ़े रहते हैं। इस आवरण के कारण हमें अपनी वास्तविकता धीरे-धीरे विस्मृत हो जाती है। इस झूठे खोल को- इस झूठी खाल को उतार कर ही हम साधना कर सकते हैं। ठीक वैसे ही साधना करने के लिए हमें अपने मिथ्या चेहरों को उतार कर रखना होगा। क्योंकि अध्यात्म साधना का अर्थ ही स्वयं को जानना और स्वयं को देखना है। अपने अस्तित्व में जो मौलिक है और सहज है, उसे प्रकट होने दें, उसमें जिएँ। जीवन यदि सहज और सरल बनें, तो साधना अपने आप ही विकसित होती है।

इस सूत्र की साधना तभी होगी, जब यह जान लिया जाय, कि असलियत में न कोई अपना पद है, न प्रतिष्ठ और न ही कोई वैशिष्ट्य। ये तो सारी नकाबें हैं, केवल मुखौटे हैं। इन्हें जैसे भी बने जल्दी से हटा देने में ही भला है। हम निपट हम हैं और अतिसाधारण इन्सान हैं। जिसका न कोई नाम है, न कोई प्रतिष्ठ है, न कुल है, न वर्ग है, न जाति है। एक नामहीन व्यक्ति- एक अति साधारण इकाई मात्र- ऐसे हमें जीना है। स्मरण रहे, यही हमारी असलियत भी है। आत्मा और इन्सान के रूप में स्वयं को अनुभव करके ही स्वयं को परमात्मा और भगवान् से जोड़ सकते हैं। जिन्हें साधना करनी है, उन्हें उपाधि को व्याधि समझकर इससे छुटकारा पाना ही होगा।

अध्यात्म-साधना का तीसरा सूत्र है- अकेले जीना। साधना का जीवन अत्यन्त अकेलेपन में, एकाकीपन में जन्म पाता है। पर मनुष्य साधारणतया कभी अकेला नहीं होता है। प्रायः वह हमेशा ही दूसरों से घिरा होता है। भीड़ सदा उसे घेरे रहती है। कोई जरूरी नहीं है कि यह भीड़ बाहर हो, भीड़ तो भीतर भी हो सकती है, प्रायः होती भी भीतर ही है। भीतर भीड़ को इकट्ठी न होने दें। बाहर भी ऐसे जिएँ, जैसे सबके बीच अकेले हैं। सबके रहते हुए भी, सबके बीच जीते हुए भी, किसी से कोई अंतर्संबंध नहीं रखना है।

इस सूत्र की साधना का सार यही है कि भीड़ भरे जीवन में, सम्बन्धों की रेल-पेल में हम उसे भूल गए हैं, जो कि हम स्वयं हैं। हम या तो किसी के मित्र हैं, या तो शत्रु हैं। पिता हैं या फिर पुत्र, पति हैं अथवा पत्नी। इन सम्बन्धों से हम इतना घिरे हुए हैं कि हमारी निजता ही खो गयी है। क्या हमने कभी कल्पना की है कि इन सारे सम्बन्धों से भिन्न हम कौन हैं? यदि नहीं कि तो अब करना है, स्वयं में ढूंढ़कर स्वयं में जीना है। अपने आप को सम्बन्धों के सभी-सभी परतों से भिन्न स्वयं को देखना है। बाहर के सम्बन्ध बाहर ही रहें, उनसे अपनी अन्तरसत्ता को मलीन न होने दें। सम्बन्धों के बिना जो अपने आप में, उसी में जीने का अभ्यास करना है।

इन तीनों सूत्रों के परिणाम बड़े ही चमत्कारी हैं। शब्द नहीं अनुभूति ही इसकी व्याख्या कर सकती है। शब्द तो सिर्फ संकेत कर पाते हैं, वह भी बड़े असमर्थ संकेत। हृदय के द्वार खुल चुके हों, तभी ये संकेत समर्थ बन पाते हैं। यदि ऐसा नहीं है, तो इन पंक्तियों को नहीं अपने आप को ही पढ़ा जाता रहेगा। स्वयं के भीतर का कोलाहल इतना अधिक घेरे रहता है कि इस घिराव में कुछ भी सम्प्रेषित होने की गुँजाइश नहीं होती। यदि ये तीनों सूत्र जीवन में आ सके तो समूचा अस्तित्त्व सत्य के लिए खुल जाएगा। आन्तरिक मौन में अंतर्मन के द्वार खुल जाएँगे। और तब एक अनूठी समझ पैदा होगी, जिसके द्वारा वही समझा जा सकेगा, जो लिखा गया है। वही सुना जाएगा, जो कहा जा रहा है।

महात्मा ईसा ने कभी कहा था, जिनके पास आँखें हों, वे देखें और जिनके पास कान हों, वे सुनें। क्या जिनसे उन्होंने यह कहा था, उनके पास कान और आँखें नहीं थीं? उनके पास आँख और कान तो जरूर थे, पर आँख और कान का होना ही देखने और सुनने के लिए पर्याप्त नहीं है। कुछ और भी चाहिए। जिसके बिना उनका होना या न होना बराबर है। यह कुछ और वही है- जो इन तीनों सूत्रों की साधना से मिला है। इस कुछ और से विराट् से संवाद की स्थिति बनती है। इस कुछ और के स्पर्श से सद्गुरु के शब्द फिर शब्द नहीं रहते- मंत्र बन जाते हैं। फिर जो कुछ पढ़ा जाता है, सुना जाता है, उसमें छपे हुए कागज का बासीपन नहीं, आत्मा की मोहक सुगन्ध छलकती है।

साधना के ये सूत्र अद्भुत है, इनकी अनुभूति अद्भुत है। बस बात इन्हें अपनाने, आत्मसात करने और अनुभव करने की है। ज्यों-ज्यों इन्हें अपनाया जाएगा, त्यों-त्यों प्रकृति एवं परमात्मा से संवाद के अवसर मिलने लगेगा। हाँ पहले प्रकृति संवाद करेगी। आकाश में टके चाँद-सितारे, वृक्ष, नदी, पर्वत, झरने, पक्षियों का कलरव- इन सभी में से कुछ मीठे बोल उपजेंगे। और फिर यह सब भी मौन में डूब जाएगा। बस फिर परमात्मा का संगीत उपजेगा। सत्-चित्-आनन्द का मधुरगान आत्मा में गूँजने लगेगी। पर यह सब होगा तभी जब संकल्प और श्रम से साधक की अन्तर्चेतना उर्वर बनेगी। जब कागज पर छपे साधना के सूत्र, साधक के जीवन का स्वर बनेंगे।


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