आभामण्डल शारीरिक ऊर्जा का दिव्य विकिरण है। यह ऊर्जा प्राण शक्ति के रूप में शरीर में उफनती-लहराती रहती है। यह जिसमें जितनी मात्रा में होती है वह उतना ही प्रखर एवं प्राणवान होता है, उसका आभामण्डल उतना ही ओजस्वी-तेजस्वी होता है। यूँ तो यह ऊर्जा शरीर के प्रत्येक कोशों से विकरित होती है। परन्तु चेहरे पर यह अत्यधिक घनीभूत होती है। इसलिए प्राण शक्ति से सम्पन्न अवतारी पुरुष, ऋषि, देवता, सन्त, सिद्ध, महात्माओं का चेहरा दिव्य तेज से प्रभापूर्ण होता है। उनका आभामण्डल सूर्य सा तेजस्वी एवं प्रकाशित होता है। इस तथ्य को आधुनिक विज्ञान भी स्वीकारने लगा है।
सिद्ध महात्माओं के चेहरों का आभामण्डल महज एक चित्रकार की तूलिका का काल्पनिक रंग नहीं बल्कि एक यथार्थ है, एक सत्य है। हालाँकि इसे देखने के लिए दिव्य दृष्टि चाहिए एवं अनुभव करने के लिए भाव सम्पन्न हृदय की आवश्यकता है। ऐसा हो तभी इस आभामण्डल को देखा, परखा एवं अनुभव किया जा सकता है। वस्तुतः आभामण्डल और कुछ नहीं प्राण शक्ति एवं ऊर्जा का व्यापक विकिरण है जो जीवनी शक्ति से आप्लावित प्राणी की देह से संश्लिष्ट रहती है। हर व्यक्ति इस शक्ति सामर्थ्य से भरा-पूरा हो सकता है। इसे बढ़ाने के लिए एकमात्र साधन तप-साधना है।
तपोमय जीवन जीने वालों का आभामण्डल बड़ा तेजयुक्त होता है। इसका प्रभाव क्षेत्र उसकी तप की सघनता एवं तीव्रता के अनुरूप व्यापक होता है। इससे न केवल व्यक्ति ही प्रभावित होते हैं बल्कि उनके आसपास का समूचा वातावरण ज्योतिर्मय हो उठता है। योग साधना के नये आयाम को विकसित करने वाले श्री अरविन्द की साधना इतनी प्रखर थी कि कागामारु जहाज द्वारा जापान से पाण्डिचेरी आते समय श्री माँ ने 50 मील की दूरी पर ही इसका अनुभव कर लिया था। इसी के प्रभाव से तपस्वी की तपस्थली एवं साधक का साधना स्थान पुण्य तीर्थ बन जाता है जहाँ पर इन दिव्य शक्तियों का प्रचण्ड प्रवाह बना रहता है। और इसके आसपास आने वाले हर व्यक्ति को उसकी पात्रता के अनुरूप उस अनुदान-वरदान की वृष्टि होती रहती है।
तीर्थों का भी आभामण्डल होता है। इसकी तीव्रता वहाँ पर की गयी तपस्या पर निर्भर करती है। जिस तीर्थ में जितना अधिक तप किया जाता है। उसका आभामण्डल उतना ही ओजस्वी तंत्र सम्पन्न होता है। अगस्त्य एवं श्री अरविन्द की तपस्थली पाण्डिचेरी, रमण महर्षि का अरुणाचलम्, अनेक ऋषियों का आश्रयस्थल गंगा एवं नर्मदा नदी का किनारा इन्हीं विशेषताओँ से युक्त है। इन सबसे सर्वोपरि अनेकों विशेषताओं से युक्त हिमालय का हृदय क्षेत्र है। वहाँ की गयी तपस्याओं से प्रभावित शक्तिशाली आभामण्डल विद्यमान है। प्राचीन ऋषियों के द्वारा इस तप संस्कारित भूमि में अनेक ऋषि-महर्षि वहाँ पर तप करते हुए इसके आभामण्डल में अभिवृद्धि करते रहते हैं। इसी कारण इसे आध्यात्म शक्ति का ध्रुव केन्द्र कहा जाता है।
धरती पर और भी ऐसे अनेक छोटे-बड़े केन्द्र हैं, जहाँ से प्रचण्ड प्राणशक्ति प्रवाहित होती है। इसी तरह अपने शरीर के अन्दर भी कई ऊर्जा केन्द्र हैं। अध्यात्म विज्ञान में यह केन्द्र षटचक्रों के माध्यम से जाने जाते हैं। प्रत्येक चक्र अपने आप में शक्तिशाली ऊर्जा के केन्द्र हैं। इनके आभामण्डल का रंग भी इनके अनुरूप भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। चरक संहिता एवं सुश्रुत संहिता में भी शरीर के ऊर्जा बिन्दुओं के स्थानों का स्पष्ट वर्णन मिलता है। इनके अनुसार पाँव के तलुओं और हथेली से शरीर के सभी ऊर्जा बिन्दु आपस में जुड़े हुए हैं। पाँवों के अंगूठों तथा हाथ की अंगुलियों में ये चैतन्य केन्द्र अधिक शक्तिशाली होते हैं। इसी कारण गुरुजनों एवं संत-महात्माओं के चरणों पर शीश नवाया जाता है।
शरीर, ऊर्जा की तपती भट्टी के समान है। तप के द्वारा यह और भी प्रखर हो सकता है। परन्तु दुर्भाग्य से अन्तहीन कामनाओं, वासनाओं के कुचक्र एवं कुविचारों से इसकी प्रखरता का निरन्तर ह्रास होता रहता है। जबकि विधेयात्मक चिन्तन से इन केन्द्रों को और भी अधिक सक्रिय बनाये रखा जा सकता था। ये केन्द्र धनात्मक एवं ऋणात्मक दोनों प्रकार के होते हैं। एक्यूप्रेशर पद्धति के अनुसार शरीर में एक हजार ऊर्जा बिन्दु है। इनमें 160 केन्द्र ऐसे हैं जिन्हें अधिक शक्तिशाली कहा जा सकता है। सामान्यतः ये केन्द्र सुषुप्त पड़े रहते हैं इन्हें विशिष्ट साधनाओं द्वारा जगाया-उभारा जाता है ओर अनेक प्रकार के लाभ उठाए जा सकते हैं। तिब्बत में ध्यान-समाधि आदि योग पद्धतियों द्वारा शरीर के इन विशिष्ट ऊर्जा केन्द्रों पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। इससे शरीर तप्त लोहे के समान तप जाता है। ऐसे साधक बर्फीले जल में भिगाया गया वस्त्र ओढ़कर सुखा लेते हैं। ये साधक 40-40 दिन तक निर्वस्त्र होकर बर्फ के गड्ढ में रह जाते हैं। यह तप की ऊर्जा ही है जो शरीर के द्वारा प्रकट होती है। बहन मुक्ताबाई का सन्त ज्ञानेश्वर की नंगी पीठ पर रोटियाँ सेंक लेने की अद्भुत घटना तप से उत्पन्न इसी शारीरिक ऊर्जा की ओर संकेत करती है। यही ऊर्जा साधक एवं तपस्वी के चेहरे एवं शरीर पर तेजोमण्डल बन कर चमकती है।
आधुनिक विज्ञान भी आभामण्डल की इस संघनित ऊर्जा को स्वीकारने लगा है। इस तथ्य की पुष्टि करने के लिए रूसी वैज्ञानिक एडामेको ने एक विशेष मशीन भी बनायी। परीक्षण के लिए इसके चारों ओर विद्युत् बल्ब लगाए गए। इस मशीन की विशेषता शरीर के क्रियाशील ऊर्जा केन्द्रों के प्रति संवेदनशील होना है। जब व्यक्ति को इसके सामने खड़ा किया जाता है तो उसके शरीर में जितने सक्रिय केन्द्र हैं, उस स्थान के बल्ब जलने लग जाते हैं। जो केन्द्र निष्क्रिय अवस्था में रहते हैं वहाँ बल्ब नहीं जलता है। अतः इस प्रयोग से स्पष्ट होता है कि सक्रिय केन्द्रों से ऊर्जा का सतत प्रवाह बना रहता है जो आभामण्डल की सृष्टि करती है।
इस क्षेत्र में एक अन्य रूसी वैज्ञानिक किरलियन का योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने अपने प्रयोग के दौरान कुछ जीवित व्यक्तियों के चित्र खींचें और पाया कि हर व्यक्ति अपनी निजी ऊर्जा किरणों से आवेष्टित है। परन्तु जब इन्होंने मृत व्यक्तियों के चित्र लिया तो पाया कि शव का चित्र तो उभरता है किन्तु उसकी ऊर्जा का वर्तुल गायब है। उसमें आभामण्डल का अभाव होता है। किरलियन ने यह भी देखा कि मरणासन्न व्यक्ति की देह से ऊर्जा क्रमशः घटती है। यह क्रम मृत्यु के पश्चात् तीन दिनों तक चलता है। चौथे दिन से ऊर्जा किरणें शव के आसपास दिखाई नहीं देती।
अब यह वैज्ञानिक सत्य है कि जो व्यक्ति जितना प्राणवान है उसका आभामण्डल उतना ही सशक्त होगा। और वह अपने आसपास के जड़-चेतन सभी वस्तुओं को प्रभावित करेगा। इसी कारण ऐसे व्यक्ति के उस स्थान पर न रहने पर भी उसका सूक्ष्म आभामण्डल मण्डराता रहता है। अलीपुर जेल के एक सेल में एक सामान्य कैदी को जब रखा गया तो वह उन्मादग्रस्त हो उठा क्योंकि कुछ साल पहले उस सेल में श्री अरविन्द अपनी जेल यात्रा के दौरान साधना करते थे। श्री अरविन्द की प्रचण्ड प्राण शक्ति उस सेल के कण-कण में व्याप्त थी जो कैदी के मनःस्थिति से भारी पड़ने के कारण उसे विक्षिप्त करने लगी। यही कारण है कि आज वैज्ञानिक आभामण्डल से व्यक्ति की पहचान की बात सोचने लगे हैं।
यूँ तो यह आभामण्डल हर व्यक्ति में कम या अधिक मात्रा में होता है, परन्तु महान् आत्माओं, दिव्य एवं श्रेष्ठ पुरुषों में यह अत्यधिक सघन एवं तेजस्वी होता है। यह उनके शरीर एवं मस्तक के चारों ओर प्रकाशपुँज के समान दिखाई देता है। इसे ऑरिओल-ज्योतिचक्र कहा जाता है। मस्तक के चारों ओर झलकने वाले इस प्रकाशपुँज को प्रभामण्डल या हैलो कहा जाता है। ध्यान योगी का प्रभामण्डल अत्यन्त तीव्र होता है। जिनका सहस्रार जाग्रत् होता है। उनका प्रभा मण्डल वृत्ताकार तथा सुनहला चमकीला होता है। यह इतना स्थायी होता है कि सामान्य आँखों से भी देखा जा सकता है। भगवान् बुद्ध ऐसे ही ध्यान योगी माने जाते हैं जिनका सहस्रार पूर्णरूपेण जाग्रत् था।
हर व्यक्ति में यह नैसर्गिक गुण है कि वह अपनी अन्तःशक्तियों को जाग्रत् कर अपने आभामण्डल को और व्यापक बनाएँ। मानव से महामानव बनने का यह द्वार सबके लिए समान रूप से खुला हुआ है। आवश्यकता है तो बस इतना कि अपने विचारों एवं भावनाओं को तप की दिशा की ओर मोड़ा जाय।