ज्ञान का विज्ञान : युगगीता-33 - ज्ञान से अधिक पवित्र कुछ भी नहीं

May 2002

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(गीता के चतुर्थ अध्याय की युगानुकूल व्याख्या पंद्रहवीं कड़ी)

‘ज्ञान की नौका से भवसागर को पार करें,,’ शीर्षक से विगत अंक में चौथे अध्याय के पैंतीसवें, छत्तीसवें श्लोकों के द्वारा ज्ञान से पापों को नष्ट करने एवं ज्ञानी बन जाने पर भवबंधन से मुक्त हो जाने की महिमा को जाना था। श्रीकृष्ण का कहना है कि इस ज्ञान को पाकर मोह से मुक्ति मिलेगी ,फिर सर्वत्र परमात्मतत्व ही संव्याप्त दिखाई देगा। मोह के संकीर्ण बंधन ही व्यक्ति को भवबंधन में उलझाते हैं। जब अपने अंदर और सर्वत्र परमात्मसत्ता ही व्याप्त नजर आती है तो फिर व्यक्ति वसुधा को एक कुटुँब मानकर विश्व-उद्यान को सींचने में लग जाता है। भगवान इतना स्पष्ट आश्वासन गीता में पहली बार देते हैं कि पापी से भी अधिक पापी यदि इस ज्ञान का आश्रय ले ले तो वह पाप समुद्र में तर जाएगा। जहाँ ज्ञान की बात श्रीकृष्ण कहते हैं, वे उस विद्या की बात कह रहे हैं जो अमरत्व प्रदान करती है, मुक्ति की ओर ले जाती हैं । आज की भोगवादी बहिर्मुखी जीवनपद्धति में ज्ञान की खोज कम हो गई, विज्ञान के सुख-साधनों की ज्यादा। इसी कारण तृष्णा बढ़ रही है, लिप्सा बढ़ रही है एवं व्यक्ति पाप कर्मों में लिप्त नजर आता है। योगेश्वर श्रीकृष्ण बड़े स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को जलाकर राख कर देती है, वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है (श्लोक 37) । अब इसकी और विशद व्याख्या व आगे के श्लोकों का मर्म पढ़ें।

‘ज्ञान में कर्मों का संन्यास ‘जिस योग का अभीष्ट ध्येय हो , उस चौथे अध्याय की पराकाष्ठा पर हम पहुँचते हैं, जब भगवान हमें बताते हैं कि इस संसार में ज्ञान से ज्यादा पवित्र कुछ भी नहीं। अंतिम पाँच श्लोक वह राजमार्ग प्रशस्त करते हैं जो किसी भी साधक की जीवन-यात्रा बन सकता है। ज्ञान की परिपूर्णता पर पहुँचा हुआ साधक अंततः क्या प्राप्त करता है, क्या उसकी परिणति होती है, यह हम इन तीनों श्लोकों में पाते हैं।

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥4/38

"इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र निःसंदेह कुछ भी नहीं हैं। योग के द्वारा संसिद्धि को प्राप्त (शुद्ध अंतः करण वाला) मनुष्य उस ज्ञान को अपने आप ही यथा समय अपनी आत्मा में पा लेता है।"

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्वा पराँ शातिमचिरेणाधिगच्छति ॥4/39

"जो श्रद्धावान है, तत्पर-साधनपरायण है तथा जितेंद्रिय (परिपूर्ण संयमशील) हैं, वह मनुष्य ही ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञानप्राप्ति के बाद वह अविलंब ही तत्काल भगवत्प्राप्ति रूपी परमशाँति को प्राप्त हो जाता है।"

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति । नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः॥ 4/40

"श्रद्धाहीन अज्ञानी (विवेकरहित) तथा संशययुक्त मनुष्य परमार्थ पथ से भ्रष्ट हो जाता है,उसका नाश हो जाता है। ऐसे संशयशील व्यक्ति के लिए न तो यह लोक है और न परलोक ही और उसे कहीं भी किसी भी किसी भी काल में सुख की प्राप्ति नहीं होती ।"

ज्ञान की परिणति अंतः की शुद्धता

भगवान बड़ा स्पष्ट कह रहे हैं कि इस संसार में सर्वाधिक पवित्र कुछ है तो वह ज्ञान ही है। यह ज्ञान अंतःकरण को शुद्ध कर देता है। गुरु के उपदेश से जो ज्ञान मिलता है, उससे मनुष्य स्वतः शुद्ध होता चला जाता हैं। ‘कालेनात्मनि’ शब्द का अर्थ है-अपने आप समय आने पर। हमें निरंतर स्वयं को गुरुचेतना से ओतप्रोत रखना चाहिए, क्योंकि यही ज्ञान पवित्रतम का संदेश अपने आचरण से देते रहे। भगवान यहाँ यही कह रहे हैं कि ज्ञान ज्यों-ज्यों कर्मयोग में सिद्ध पुरुष के अंदर प्रविष्ट होने लगता है, उसे स्वयं यह अनुभूति होने लगती है (आत्मनि विन्दति) ब्रह्मज्ञान एक अति दुर्लभ वस्तु है ठाकुर श्री रामकृष्ण देव ने एक स्थान पर कहा है,

“नित्य वस्तु में पहुँचने का नाम ब्रह्मज्ञान है। यह बहुत कठिन है। एकदम विषय-बुद्धि न छूटने से वैसी अवस्था नहीं आती। इसके लिए तपस्या चाहिए। शास्त्र के श्लोक कंठस्थ करने से कुछ नहीं होगा। सिद्धि-सिद्धि करने मात्र से नशा नहीं होगा। सिद्धि तो खानी चाहिए। उसकी अनुभूति कण-कण में होनी चाहिए”

परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं, “ ज्ञान को सत्शक्ति कहा गया है। मनुष्य की सच्ची संपत्ति कहा गया है संसार में हर वस्तु काल पाकर नष्ट हो जाती है। धन नष्ट हो जाता है, तन जर्जर हो जाता है, साथी और सहयोगी छूट जाते हैं। केवल ज्ञान ही एक ऐसा अक्षय तत्व है जो कहीं भी, किसी भी अवस्था में और किसी भी काल में मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता।”

(आत्मोत्कर्ष का आधार -ज्ञान, वाङ्मय खंड-58 पृष्ठ 10.12)। वस्तुतः मुक्ति का साधन है ज्ञान। इसे पा लिया तो इसी जीवन में मुक्ति मिल गई, ऐसे समझना चाहिए। एक बार ज्ञान का रसास्वादन करने पर मनुष्य उसी प्रकार तृप्त हो जाता है, जिस प्रकार कोई प्यासा सुँदर-स्वच्छ जलाशय को पाकर प्रसन्न हो जाता है। मनुष्य का जीवन पाकर भी जिसने ज्ञान की कुछ बूंदें भी इकट्ठी न की हों, उसने तो मानो इस रत्न को मिट्टी के मोल खो दिया।

स्वयं को देह मत मानो, और गहरे जाओ

ज्ञान पवित्रतम है, आनंद का करण है एवं मुक्ति का आधार है। अज्ञान अथवा अविद्या को तो घोर अशाँति का कारण माना गया है। जब संसार की साधारण बातों में अज्ञान हमें घोर दुःख देता है, तब जीवन आत्मा और परमात्मा के विषय में संव्याप्त अज्ञान कितना भयंकर हो सकता है इसकी तो कल्पना भर ही की जा सकती है। परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि सबसे बड़ा अज्ञान है अपने को देह मात्र मानकर चलना। ऐसे व्यक्ति अपनी इंद्रियों को विषयों में तृप्त करने में लगे रहकर अपनी आत्मा का नाश किया करते हैं।

आत्मज्ञान जब मनुष्य अपने अंदर पाने लगता है तो सबसे पहले उपलब्धि होती है- अंतः करण की शुद्धि। यह कार्य स्वतः होने लगता है। पवित्रता का स्पर्श मात्र ही व्यक्ति को अंदर से शुद्ध बनाने लगता है।फिर वह उस आत्मज्ञान की अनुभूति अपने अंदर ही करने लगता है। योग द्वारा यह संसिद्धि उसे स्वतः ही प्राप्त होने लगती है।सकाम कर्मों की वासनाएँ भस्म होने लगती हैं, शुद्ध आत्मा के प्रकाश में सब स्पष्ट दिखाई देने लगता है एवं फिर वही श्री कृष्ण जो अभी चौंतीसवें श्लोक में ज्ञान को पाने का उपाय तत्वदर्शी ज्ञानी के पास जाकर उनकी सेवा-दीक्षा लेने के माध्यम से बता रहे थे। (ज्ञानिनः तत्वदर्शिनः) कहने लगते हैं कि वास्तविक ज्ञान तो हे अर्जुन! हमें अपने अंदर से ही मिलता है। अर्थात् यह ज्ञान उस साधक में दिव्यकर्मी में संवर्द्धित होता रहता है। ज्यों-ज्यों वह निष्काम भाव में, समता में और भगवद् भक्ति में बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों ज्ञान की गहराई में भी प्रविष्ट होता चला जाता है। परंतु यह ज्ञान मिल कैसे? और उसकी अनुभूति हृदय की अंतरतम गहराइयों से कैसे हो? इसके लिए श्री कृष्ण अगला सूत्र देते हैं।

वे कहते हैं कि यह ज्ञान श्रद्धावान को ही प्राप्त होता है। बुद्धिमान को नहीं। जो ज्ञान मनुष्य अपनी बुद्धि से बटोरता है। वह तो इंद्रियों व तर्कशक्तियों द्वारा परिश्रम करके बाहर से इकट्ठा किया जाता है। यह तो शिक्षा है, जानकारियाँ हैं। जो ज्ञान आत्मा में पाया जाता है वही विद्या है। यह विद्या-अमरत्व का ज्ञान श्रद्धा से ही प्राप्त होता है। यह कहा जाए कि जैसे ही ज्ञान की प्राप्ति होती है, वह तुच्छ अहंकार को बाहर निकाल फेंकता है- मटियामेट कर देता है, व्यक्ति को श्रद्धाभाव से भर देता है, तो काई अत्युक्ति नहीं होगी। कोई अकारण नहीं कि चर्चा श्रीकृष्ण ज्ञान में कर्मों का संन्यास-अर्पण नामक योग की अंतिम कुछ शिक्षाओं में साररूप में कह रहे हैं। इससे कम में आत्मा की अपरोक्ष अनुभूति हम अपने भीतर नहीं कर पाएँगे।

श्रद्धावान लभते ज्ञानं

उनतालीसवें श्लोक द्वारा भगवान श्रीकृष्ण ज्ञान प्राप्ति की कुछ अनिवार्य शर्तें सामने रखते हैं। वे कहते हैं, ज्ञान की प्राप्ति उसी साधक हो होती है जो श्रद्धावान है तत्पर है, साधनपरायण है तथा संयतेंद्रिय है। परमतत्व की खोज की ओर प्रेरित करती है श्रद्धा। बौद्धिक ज्ञान को निजी अनुभव में परिणत करने तथा आत्मज्ञान द्वारा उसी की पुष्टि की प्रक्रिया श्रद्धा का जागरण करती है। विनोबा कहते हैं, “अनुभव तर्कातीत है। श्रद्धा अनुभव के आधार पर रहने वाली, पर उससे भी परे की वस्तु है।”(विचार पोथी, 20)। आखिर श्रद्धा की परिभाषा क्या है? पं. रामचंद्र शुक्ल कहते हैं, “ किसी मनुष्य में जनसाधारण से विशेष गुण तथा शक्ति का विकास देख उसके संबंध में जो एक स्थायी आनंदपद्धति हृदय में स्थापित की जाती है,उसे श्रद्धा कहते हैं। श्रद्धा महत्त्व की आनंदपूर्ण स्वीकृति के साथ-साथ पूज्य बुद्धि का संचार भी है।” (चिंतामणि भाग-1)। महात्मा गाँधी कहते हैं- श्रद्धा और बुद्धि के क्षेत्र भिन्न-भिन्न हैं। श्रद्धा से अंत ज्ञान-आत्मज्ञान की वृद्धि होती है, इसलिए अंत शुद्धि तो होती ही है। बुद्धि से सृष्टि के ज्ञान-बाहृा की वृद्धि होती है, परंतु उसका अंत-शुद्धि के साथ कार्य-कारण जैसा संबंध भी नहीं रहता । अत्यंत बुद्धिमान लोग भी अत्यंत चरित्र-भ्रष्ट पाए जाते हैं। मगर श्रद्धा के साथ चरित्रशून्यता का होना असंभव है” (संपूर्ण गाँधी वाङ्मय खंड-41,पृष्ठ 82)।

श्रद्धा के विषय में परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं- “अध्यात्म क्षेत्र में श्रद्धा की शक्ति ही सर्वोपरि है। साधना से सिद्धि का मूलभूत आधार श्रद्धा है।मनुष्य का व्यक्तित्व जिसमें संस्कारों का (आदतों का) गहरा पुट रहता है, वस्तुतः श्रद्धा की परिपक्वता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।” आगे वे कहते हैं-” साधना का विशालकाय कलेवर इसलिए खड़ा किया गया है कि उन लौह श्रृंखलाओं में जड़कर श्रद्धा-विश्वासरूपी महोदैत्य को उपयोगी प्रयोजन उत्पन्न कर सकने के लिए प्रशिक्षित किया जा सके। श्रद्धा से व्यक्तित्व का निर्धारण होता है। आत्मा का सबसे विश्वस्त और घनिष्ठ सचिव श्रद्धा ही है।” (पं. श्रीराम आचार्य वाङ्मय, उपासना-समर्पण योग- खंड 3, पृष्ठ 3.32,33)। कितनी सुँदर व्याख्या श्रद्धा की हुई है और हमें बड़ा स्पष्ट मार्ग भी देती है कि श्रद्धावान कैसे बनें? कैसे श्रद्धा से ज्ञान की प्राप्ति करें।

सुत्तानिपात (1/4/2) कहता है-”श्रद्धा बींज तपोवृट्ठि” अर्थात् श्रद्धा बीज है, तप वर्षा है तथा “सद्धाय तरती ओधं” अर्थात् मनुष्य श्रद्धा से संसार प्रवाह को पार कर जाता है। (1/10/2 सुत्तनिपता)। ऐतरेय ब्राह्मण (7/10) कहता है - श्रद्धा पत्नी है और सत्य यजमान। श्रद्धा और सत्य का यह अत्यंत उत्तम जोड़ा है। श्रद्धा और सत्य के जोड़े से मनुष्य स्वर्ग को जीत लेता है। “ऋग्वेद कहता है- “श्रद्धा हृदय याकूत्या, श्रद्धया विंदते वसु” (10/151/14) अर्थात्” सब लोग हृदय के दृढ़ संकल्प से श्रद्धा की उपासना करते हैं, क्योंकि श्रद्धा से ही ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।” गीतकार ने भी इसी श्रद्धा शब्द की 17वें अध्याय में ‘सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत” कहकर की है।

श्रद्धा ही नहीं, तत्परता व संयम भी

इस तरह श्रद्धा का महत्व समझ लेने पर जाना जा सकता है कि श्रद्धावान को ही सच्चा आत्मज्ञान क्यों मिलता है। श्रद्धा के साथ श्रीकृष्ण दो बातें और बताते है, तत्पर होना तथा जितेंद्रिय संयमी होना। परमतत्व की खोज के लिए तत्परता-साधनपरायणता जरूरी है। एकनिष्ठ भाव से साधनाशाली होना अनिवार्य है। हो सकता है श्रद्धा एवं भक्तिभाव से ध्यान-साधना के क्षेत्र में अधिकतम आँतरिक जागरुकता मिल भी जाए, पर यदि इंद्रियाँ भलीभाँति नियंत्रित नहीं है, तो न केवल एकाग्रता छिन्न-भिन्न हो जाती है, हम उस शाँति को प्राप्त नहीं कर पाते जो आत्मज्ञान की सर्वोच्च उपलब्धि है। देखा जाए तो इंद्रियों का स्वभाव ही बहिर्मुख होना है। वे बार-बार विषयों की ओर हमारा ध्यान खींचती हैं। इसीलिए जब तक हम इंद्रियों पर नियंत्रण प्राप्त नहीं करते, तब तक शाँति प्रदान नहीं कर सकती।

ज्ञान को प्राप्त होने का साधन है- श्रद्धा, गुरु के प्रति-शास्त्रवचनों के प्रति अटूट निष्ठा, आदर्शों से असीम प्यार एवं साधना में गति होने, इंद्रिय संयम अर्थ संयम-समय संयम एवं विचार संयम साध लेने पर सर्वोच्च स्तर की उपलब्धि हमें मिलती है-वह है शाँति (पराँ शाँतिम्)। सारी विकलताओं से मुक्ति, तनाव से मुक्ति, दुःखों से छुटकारा हमें मिल जाता है। संक्षोभ ही हमें विकल-रोगी बनाते हैं। यदि संत्रास मन से समाप्त हो जाएँ तो हम सभी आधि-व्याधियों से मुक्ति पा सकते हैं। आज सारा संसार इसी की तलाश में तो है। यह शाँतिमय है, चैन की नींद कहाँ किसी को आती है। सारा जीवन परिग्रह में बीत गया, तृष्णा-ललक को पूरा करने में बीत गया, उसी कारण असंयमी बने तथा जीवनी शक्ति के स्रोतों को खोलकर कर दिया। मन सदैव शंकाग्रस्त बना रहा, बुद्धि ने प्रगति के क्षेत्र में चरम शिखर को छू लिया, पर श्रद्धा गति हो नहीं पाई एवं यही कारण है कि सर्वत्र आज अशाँति है, तनाव है आतंक का साम्राज्य है।

कोई समाधान है, तो गीताकार ही बनाते हैं, श्रद्धावान बने, साधनाशील बने तथा अपने ऊपर अपना नियंत्रण स्थापित करें। इससे हम आदर्शों के,सत्प्रवृत्तियों के समुच्चय परमपिता परमात्मा के ज्ञान से ओत प्रोत हो सकेंगे एवं यही ज्ञान मिलने पर अविलंब हमें भगवत्प्राप्ति होगी, जो परम शाँति की ओर हमें ले जाएगी।

अश्रद्धावान का तो सुनिश्चित है सर्वनाश

शास्त्र-ज्ञानरहित अज्ञानी,गुरु और वेदाँतरूपी तत्वदर्शन के वाक्यों में अश्रद्धा रखने वाला तथा संदेहशाली व्यक्ति नष्ट हो जाता है, कभी ब्रह्मज्ञान को प्राप्त नहीं होता। यह बात चालीसवें श्लोक में एक उद्घोषणा के रूप में श्रीकृष्ण कहते हैं। आत्मज्ञानहीन जीवन श्रीकृष्ण की दृष्टि में मृत्युतुल्य और निरानंद हैं वह यह भी कहते हैं कि ऐसे अविश्वासी और निरानंद है। वह यह भी कहते हैं कि ऐसे अविश्वासी के लिए न तो इस लोक में सुख है और नहीं परलोक में ही सुख है। इस सीमा तक कह जाते हैं कि उसके लिए न तो यह संसार है, न अगला ही और सुख की प्राप्ति की तो आशा ही नहीं करनी चाहिए। कितनी आश्चर्य की बात है कि पशुओं को किसी प्रकार का संशय नहीं होता, पर बुद्धिसंपन्न मनुष्य सदैव-अधिकाँश समय संशयी होता है। संशय वहीं उठते हैं, जहाँ अभी स्पष्ट और सुनिश्चित ज्ञान का उदय न हुआ हो। इस संशयों से आखिर बाहर कौन निकाले? गुरुजन, शास्त्र, जाग्रत् महापुरुषों के प्रवचन स्वाध्याय ये सभी साधन हैं, जो किसी भी साधक के हृदय की श्रद्धा को बढ़ा सकते हैं। बुद्धि द्वारा ग्रहण ज्ञान हृदय द्वारा आत्मसात किया जाए और यह भी तभी संभव हैं, जब साधक ध्यान में शाँतभाव से मनन करने में रुचि रखे। अध्ययन-मनन द्वारा एकत्र ज्ञान व्यवहार में लाने पर उसके प्रति निरंतर श्रद्धा बढ़ती रहने पर सारे संशयों से निवृत्ति मिल जाती है।

जो बिना प्रश्नचिह्न लगाए गुरु के ज्ञान को ग्रहण करता चलता है, यह मानता है कि उनके पास दिव्य दृष्टि है, तो उसका प्रगति का पथ प्रशस्त होता चलता है। परम पूज्य गुरुदेव अपने जीवनकाल का मंच का अंतिम उद्बोधन देने 1983 के वसंत पर्व पर आए थे। और तब उन्होंने कहा था कि तुम्हारे पास दूरबीन हो, तो मैं तुम्हें दिखा देना चाहता हूँ कि सूक्ष्म जगत् में परिवर्तन हो चुका है। युग -निर्माण का कार्य आरंभ हो चुका है। तुम चाहो तो श्रेय ले लो। बस 14-15 वर्ष निरंतर कार्य करते रहने भर की आवश्यकता है, फिर बदला जमाना तुम्हें दिखाई देने लगेगा। यदि हमें गुरु के वचनों पर दृढ़ विश्वास है, हमारी श्रद्धा है, किसी भी प्रकार का संशय नहीं है, तो हम उनकी शक्ति को अपने अंदर धारण कर वास्तव में अगले दिनों परिवर्तन का निमित्त कारण बनेंगे, हम भी यह देखेंगे, जमाना भी देखेगा, पर यदि हमें ही विश्वास न हो, हम ग्रहणशील न बन पाए हों तो हमारा विनाश-आत्मिक दृष्टि से अवगति, अधोगति सुनिश्चित है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं, गुरु के वचन प्रतीत न जेंहि, सपनेहुँ सुख सिधि सुलभ न तेहिं। अर्थात् जिसे गुरु के वचनों पर विश्वास ही नहीं है, उसे प्रत्यक्ष तो क्या, स्वप्न जगत् में भी सुख नहीं मिलता। वह अकारण दुःख पाता, निरंतर कष्ट भोगता रहता है। कितने ही उदाहरण- नमूने हैं हमारे समक्ष, जिनको गुरु के वचनों पर विश्वास न रहा, वे गुरुद्रोही बने एवं अंततः कष्ट को प्राप्त हुए। कई ऐसे हैं जो स्वार्थसिद्धि के लिए गुरु की बैसाखी के लिए खड़े हैं, पर स्वयं अपने अंदर झाँके, तो पाते हैं कि उन्हें स्वयं गुरु के वचनों पर विश्वास नहीं है। सिख धर्म पूरा गुरु के वचनों पर गहन विश्वास पर टिका है। यदि आज का युगधर्म निभना है, तो वह युगपुरुष-हमारे अपने गुरु के वचनों पर विश्वास-गहरी श्रद्धा टिकाने पर ही संभव हो सकेगा। अखण्ड ज्योति मई 1970 में पूज्यवर ने लिखी” सद्भावनाओं का चक्रवर्ती सार्वभौम साम्राज्य जिस युगावतारी-निष्कलंक भगवान द्वारा होने वाला है, वह और काई नहीं, विशुद्ध रूप में अपना युगनिर्माण आँदोलन ही है।” (पृष्ठ 6) इसके बाद भी संशयात्मा हैं, तो विनाश सुनिश्चित है। इस व अंतिम दो श्लोक की विस्तार से व्याख्या जुलाई अंक में।

(जुलाई अंक में इस अध्याय की समापन किश्त)


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