कण-कण में समाई भगवान की सत्ता

May 2002

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‘अहं ब्रह्मास्मि’ मैं ब्रह्म हूँ। इस अनुभूति में ईश्वर से एकात्मता की गई है, जो मन और बुद्धि से परे अगम, अगोचर है। यह मन के विचार तथा बुद्धि की कल्पनाओं की अवधारणा नहीं बल्कि अनुभूति का विषय है। यह साधनामय जीवन का अनुभव है जो सृष्टि के कण-कण में, पौधों एवं प्राणियों में लहराता-उफनता दृष्टिगोचर होता है। आवश्यकता है उस दृष्टि की जो जगत् में इसकी लीला को देख सके तथा अपने अन्तर में विद्यमान उस परम पुरुष परमात्मा को झाँक सके। समस्त जप, तप, साधना, स्वाध्याय, सेवा का मूल यही है कि स्वयं को परिष्कृत एवं परिमार्जित करे तथा उसके दिव्य स्वरूप का अनुभव प्राप्त करें।

परमात्मा सर्वव्यापी है। सृष्टि का कोई कण उसकी चैतन्य चेतना से वंचित नहीं है। अणु-परमाणुओं में जो गतिविधियाँ सम्पन्न कर रहे हैं, कण-कण में जो ज्ञान की परम एवं चरम अनुभूति भरी हुई है, वह परमात्मा का ही दिव्य स्वरूप है। अगर ऐसा नहीं होता तो प्रह्लाद को बचाने के लिए भगवान नृसिंह रूप धारण कर एक बेजान खम्भे से कैसे अवतरित होते? हवा, पानी, मिट्टी आदि पंच तत्व सब उसी के विभिन्न स्वरूप हैं। और इसलिए तो द्रौपदी की लाज बचाने के लिए भगवान कृष्ण शून्य से प्रकट हुए और उसके वस्त्र को इतना लम्बा कर दिया कि वह किसी भी तरह समाप्त नहीं हो सका। गजराज के आर्त पुकार से सुदर्शन चक्र का आविर्भाव यही कहानी कहता है कि परमात्मा सर्वव्यापी है। वह कभी भी और किसी में भी प्रकट हो सकता है।

सबमें व्याप्त वह ईश्वर है। वह परम सद्वस्तु भिन्न-भिन्न नहीं हो सकती। वह अपने सभी नाम, रूप, गुणों में एक ही है। अतः वैदिक ज्ञान की भाव भूमि में उसे ‘एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति’ के रूप में अलंकृत किया जाता है। इस सत्य का वैदिक ऋषि उद्घोष करते हैं- वही इन्द्र है, वही मित्र है, वही वरुण है, अग्नि वही है, दिव्य, सुपर्ण, गरुत्मान, यम भी वही है और मातरिश्वा के रूप में एक वही जाना जाता है। अनन्त रूपों, गुणों वाला वह ईश्वर अपने अन्तर में ही विद्यमान है। जो इसकी झलक-झाँकी पा लेता है, वही अनन्त ऐश्वर्य एवं वैभव रूपी ब्रह्मांड को जान-समझ लेता है। वेद ने इसी ऐश्वर्य के प्रतीक-प्रतिनिधि परमात्मा को जाना। वैदिक ऋषि इस ऐश्वर्य के प्रतीक-प्रतिनिधि परमात्मा की परमेश्वरी सत्ता को अपनी हृदय गुहा में अवस्थित मानता है। इसे पाने के लिए मंगल आदि ग्रहों पर कहीं यान भेजने की आवश्यकता नहीं बल्कि पुरातत्त्ववेत्ताओं एवं भूगर्भ- शास्त्रियों के समान अपने अन्दर ही उत्खनन एवं गहरी खुदाई करने की जरूरत है। इसलिए कहा जाता है कि खुदा बाहरी खोज से नहीं वरन् अपने अन्दर की खुदाई से ही प्राप्त किया जा सकता है।

अपना अन्तर प्रदेश काम, क्रोध, मोह की मोटी विषाक्त एवं मलिन परतों से आवृत्त है। यहाँ पर कामना का विप्लवी ज्वार उठता है। और कामनाएँ अनन्त हैं जो कभी पूरी नहीं होती। एक पूरी होने से पहले ही घात लगाये बैठी अनेक कामनाएँ उठ खड़ी होती हैं। इसमें बाँधा और व्यवधान आने पर जहरीले सर्प के समान फुँफकारता क्रोध उठ खड़ा होता है। इसकी लपलपाती लपटें इतनी भीषण होती हैं कि सभी को भस्मिभूत कर देना चाहती है। यह स्वयं को भी नहीं छोड़ता। समस्त मनोविकार यहीं से उद्भूत होते हैं और यही इसकी जड़ एवं मूल कारण है। इसी कारण परमात्मा का दिव्य धाम मनुष्य जीवन शान्ति एवं प्रेम के पावन गुणों से वंचित रहता है और इसके बदले लोभ का गहरा दलदल पसरा रहता है। यह तीव्र दुर्गन्धयुक्त होता है और मनुष्य अपना दैवी स्वरूप भूलकर इसी में लोटता रहता है। नश्वर वस्तु का लोभ, पद-प्रतिष्ठ का लोभ और न जाने कितने अन्तहीन लोभ सताते रहते हैं। और फिर अपने ही मोहपाश में जकड़ा यह जीव इतने बंधनों में बंध जाता है कि इसे फिर से चौरासी लाख योनि के चक्र में भ्रमण करना पड़ता है। और वह इसी में बारम्बार भटकता रहता है।

अन्तर प्रदेश की इसी कंटीली-पथरीली बंजर भूमि की खुदाई जरूरी है। खुदाई एक अनिवार्य शर्त है। इस शर्त की पूर्ति के बिना वह नीलमणि ज्योति, वह परमेष्ठी पुरुष भला कैसे दिखाई दे? हाँ खुदाई एवं जुताई का तरीका भिन्न-भिन्न हो सकता है। कोई विश्वामित्र, अगस्त्य के समान तप का हल चलाता है, कोई शंकराचार्य के सदृश ज्ञान का फावड़ा उठाता है, तो कोई स्वामी विवेकानन्द के समान नव्य वेदान्त का कुदाल पकड़ता है। मीराबाई और चैतन्य के प्रबल प्रेम, ध्यानयोगी भगवान् बुद्ध के निष्कम्प ध्यान, महायोगी श्री अरविन्द एवं रमण महर्षि की प्रचण्ड योग साधना जैसे अस्त्र-शस्त्रों एवं साधनों के द्वारा भी अपने अन्तर प्रदेश को परिष्कृत एवं परिमार्जित किया जाता है।

अन्तःकरण की पवित्रता दुर्गुणों को त्यागने से होती है। जब असह्य दुष्प्रवृत्तियों से हृदय का भार हल्का हो जाता है तो प्रभु का प्रकाश बिखरने लगता है। यह ज्योतिर्मय प्रकाश सद्गुणों के रूप में ज्योतित होता है। हृदय में सद्गुणों के बढ़ने से ही उसके दिव्यत्व का अनुभव होता है क्योंकि ईश्वर सद्गुणों का समुच्चय है, श्रेष्ठ आदर्शों का समन्वय है। फिर हृदय के गुहा में परमात्मा का सतत अनुभव होने लगता है। यह पवित्र स्थल प्रभु का डाक बंगला बन जाता है। और ‘तत्त्वमसि’ जो तुम हो वह मैं हूँ, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ मैं ही ब्रह्म हूँ का अलौकिक अनुभव होने लगता है। इस अव्यक्त अनुभव के होते ही, उसका दिव्य दर्शन करते ही दृष्टि व्यापक हो जाती है एवं देखने का नजरिया बदल जाता है। फिर वह सृष्टि के कण-कण में जगत् के घट-घट में और समस्त जड़-चेतन, में एकमात्र वही मचलता-इठलाता दिखाई देता है। और ब्रह्ममय सृष्टि का बोध हो जाता है। इसी विराट् अनुभवबोध को प्राप्त कर ही उपनिषद् का ऋषि कह उठा था- यही ब्रह्म है। विशाल एवं अनन्त ब्रह्मांड में बस उसी की चेतना लहराती दृष्टिगोचर होती है।

इस सत्य को साक्षात्कार करने वाला अनुभव करता है कि आत्मा केवल इन्सान के काय-कलेवर में ही सीमित नहीं है बल्कि सृष्टि के सभी पदार्थों, सूर्य, चन्द्र एवं पार्थिव जगत् में भी एक चेतन तत्त्व व्याप्त है। इस विश्व में व्याप्त वही चेतन आत्मा ब्रह्म है। इसके परे और कुछ नहीं। समूची दुनिया में वही एक सक्रिय तत्त्व है। और फिर भी वह सबसे शान्त और अचल है। प्रकृति की सभी शक्ति में और कण-कण में विद्यमान है। संसार के सारे काम उसकी इच्छा से सम्पादित होते हैं। उसकी इच्छा के बिना पत्ता तक नहीं खड़कता। वही प्राणी मात्र की आत्मा है। जब यह उदात्त दृष्टि प्राप्त हो जाती है तो ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ का स्वर उद्घोषित होता है।

इसी विशाल दृष्टिकोण के कारण ही उपनिषद् के ऋषि कहते हैं- तृण से लेकर पर्वत तक, चींटी से हाथी तक हे प्रभु! जब सभी में एक तू ही विद्यमान है तो मैं किसे अपना कहूँ और किसे पराया। न पराये का भेद है और न अपनों का मोह है। सभी में तू ही तू झलकता है। औरों की मुख से मेरे लिये निकलने वाली अपमान, तिरस्कार एवं अपशब्द भी तेरी ही वाणी है और तू ही इसका शमन करने वाला है। इसलिए तो डसने के लिए आ रहे काल सर्प को देख मीरा भयग्रस्त नहीं हुई।

किसी पीड़ित को पीड़ा से कराहते पीड़ित को देख वह भी कराह उठता है। इसी भाव अनुभूति के कारण रामकृष्ण परमहंस ने एक बैलगाड़ी हाँकने वाले को जब बैल को कोड़े मारते देखा तो पीड़ा से कराह उठे। उनकी पीठ पर कोड़े के निशान पड़ गये और उससे रक्त बह निकला। इन्होंने जन सेवा को शिव की आराधना मानकर कहा है हर व्यक्ति, हर जीव परमात्मा है, ऐसा समझकर ही उसकी सेवा करो। और जब यह सेवा हमारे जीवन में आराधना बन जाएगी तो अहंकार विगलित हो जाएगा। अहंकार को गलाने के लिए निष्काम सेवा भाव एकमात्र उपाय है। अहंकारमुक्त पुरुष आकाश पुरुष बन जाता है। और वह वैदिक ऋषि के समान ‘अहं ब्रह्मास्मि’ तथा उपनिषद्कार के सदृश विराट् ब्रह्म का साक्षात्कार करता है।


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