शंकराचार्य पर विशेष - जिनके अवतरण से धन्य हुआ धराधाम

May 2002

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बैसाख शुक्ल पंचमी (17 मई) राष्ट्र के साँस्कृतिक इतिहास का पुण्य दिवस है। इस शुभ दिन भगवत्पाद आदि शंकराचार्य धराधाम पर अवतरित हुए थे। बैसाख का मास, शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि, रविवार को केरल प्रदेश के कालड़ी ग्राम ने उनकी जन्म स्थली होने का सौभाग्य पाया था। भगवान आदि शंकराचार्य के जन्म का इतिहास बताने वाले अनेकों ग्रन्थ हैं। इतिहास की परम्परा के अनुसार इनमें मत भिन्नता भी है। पर ये सभी एक मत से उनके यशस्वी, तपस्वी और मनस्वी जीवन की गाथा गाते हैं। यह सत्य पूर्णतया स्वीकृत एवं प्रमाणित है कि भगवान शंकराचार्य भारतीय संस्कृति एवं साधना के पर्याय हैं। उन्होंने न केवल अध्यात्म साधना के शिखर पर आरुढ़ होकर एकता के सत्य को जाना, बल्कि बाह्य जीवन में भी राष्ट्र को एकता का महत्त्व बताया। राष्ट्रीय एकता की स्थापना की।

भगवत्पाद आचार्य शंकर की जीवन-गाथा का उल्लेख कूर्म, लिंग, पद्म, सौर, स्कन्द और भविष्योत्तर पुराणों में स्पष्ट या अस्पष्ट रीति से मिलता है। मार्कण्डेय और शिव रहस्य नाम की बृहदाकार संहिताएँ भी आचार्य की यशगाथा सुनाती हैं। इसके अलावा पद्मपाद की विजय डिण्डिम, आचार्य चित्सुख की बृहत्-शंकरविजय, आनन्द गिरि की शंकर विजय, व्यासाचल की शंकर विजय, गोविन्दनाथ की शंकराचार्य चरित, चिद्विलास की शंकर-विजय विलास, राजचूड़ामणि दीक्षित की शंकराभ्युदय, तिरुमल दीक्षित की शंकराभ्युदय, सदानन्द की शंकर दिग्विजय-सार आदि रचनाएँ आचार्य वर के जीवन का यशगान करती हैं।

भगवान् शंकराचार्य का जीवन है ही इतना दिव्य और लोकोत्तर कि उसकी कथा को सही ढंग से कह पाने में सभी भाषाएँ, लिपियाँ एवं इनकी शब्दावली स्वयं को असहाय एवं असमर्थ अनुभव करती हैं। ब्रह्मर्षि शिवगुरु एवं उनकी भार्या माता विशिष्ट के घर में जन्में भगवत्पाद शंकर जन्म से ही शिवत्व की विशिष्टताओं से आपूरित थे। उनके जन्म के समय पण्डितों ने जो जन्मकुण्डली तैयार की उसे देखकर वे स्वयं हतप्रभ रह गए। बालक के जन्म के समय वृषभ लग्न थी। मेष राशि में सूर्य और बुध थे। शुक्र वृषभ में था, और चन्द्रमा, पुनर्वसु नक्षत्र में। शनि तुला में, गुरु वृश्चिक में और मंगल मकर राशि में।

जन्म कुण्डली के अतिरिक्त उनके शरीर के चिह्नों को देखकर ज्योतिषियों ने यह अनुमान लगाया कि यह विलक्षण बालक पैदा हुआ है। इसके मस्तक पर चन्द्रमा जैसी ज्योति खेल रही है। मस्तक के मध्य में शिव की तरह तृतीय नेत्र जैसा चिह्न बना हुआ है। इसके कन्धों पर त्रिशूल विराजमान है। शरीर की कान्ति स्फटिक मणि के समान निखर रही है। ज्योतिषियों ने शास्त्रवचनों का स्मरण किया-

मूर्धनि हिमकर चिह्न, निटिले नयनाँऽकं अंसयोशूलम् वपुषं स्फटिक सवर्णं, प्रज्ञास्तं मेनिरे शुभम्॥

और तब उन्हें कुछ ऐसा लगा मानों स्वयं भगवान् शिव भारत की धरती पर ज्ञान का प्रकाश फैलाने आ गए हैं।

इतिहासवेत्ताओं के अनुसार शंकर के बाल्यकाल में जनता का घोर दारिद्रय, जाति वर्ण का विकट कलह, संघर्षशील राज्यों का देश विनाशक वैमनस्य, मादक द्रव्यों का उत्पात, धर्म के नाम पर स्थान-स्थान पर युद्ध, विदेशियों का नित्य प्रति बढ़ता प्रभाव, मानव मूल्यों का पूर्णतया विघटन, धर्म परिवर्तन के नए प्रश्न पिशाच की भाँति मुख फैलाए समूचा भारत निगलने को तैयार बैठे थे। ऐसे में जब राष्ट्र के वयोवृद्ध घर-परिवार की आसक्तियों एवं चिन्ताओं में जकड़े बंधे थे। युवाजन विलास एवं आमोद प्रमोद को ही जीवन का परिचय मान बैठे थे। आठ वर्षीय बालक शंकर राष्ट्र के सभी चुनौतियों का सामना करने के लिए उठ खड़े हुए। उनमें तप की ज्वालाएँ थीं, ज्ञान का प्रकाश था और संन्यास का तेज था। इस आठ वर्षीय महाज्ञानी संन्यासी ने एकादश उपनिषद्, श्रीमद्भगवद्गीता, ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखे। प्रस्थान त्रयी के इस भाष्य के अलावा उन्होंने विष्णु सहस्रनाम भाष्य, अध्यात्मपटल भाष्य, योग सूत्र भाष्य विवरण आदि अन्य भाष्य भी लिखे। अपरोक्षानुभूति, आत्मबोध, पञ्चीकरण प्रक्रिया, विवेकचूड़ामणि, उपदेशसहस्री आदि अनेकों ग्रन्थों का प्रणयन किया। दक्षिणामूर्ति स्रोत, सौंदर्य लहरी, आनन्द लहरी जैसे रहस्यमयी साधनाओं को बताने वाले अनेकों स्त्रोतों की रचना की।

इस अलौकिक किशोर संन्यासी ने अपने तप और ज्ञान से, आध्यात्मिक शक्तियों की प्रचण्ड सामर्थ्य से सारे देश में ऐसा नव जागरण उत्पन्न किया कि समूचा भारत उनके बाद भी लगभग चार सौ वर्षों तक अपनी स्वतंत्रता और संस्कृति को बचाते हुए विदेशी आक्रमणों से देश को सुरक्षित रख सका। इतिहास की गहनता से अपरिचित जनों के लिए यह सत्य कुछ विचित्र लग सकता है, फिर भी यह सत्य है। शाँकर मठों में प्रचलित बृहच्छंकर विजय के अनुसार शंकर का आविर्भाव काल ई. पूर्व 508 से 476 है। केरलोपत्पत्ति नामक ग्रन्थ के अनुसार यह समय 400 ई., इतिहासकार फ्लीट ने भगवत्पाद शंकर का समय 630 के आस-पास निर्धारित किया है। इतिहास के अनेकों प्रमाण इस कथन को सत्य ठहराते हैं कि भगवत्पाद शंकर ने जो समूचे राष्ट्र में साँस्कृतिक क्रान्ति की, उससे देश 400 सालों तक सुरक्षित रहा।

सभी प्रधान भारतीय एवं अभारतीय अभिलेखों के आधार पर इतिहासवेत्ता आर.सी. मजूमदार लिखते हैं-

कन्नौज नामक महानगरी के महाराज महिपाल को उत्तरभारत का सम्राट स्वीकार करके सभी राजा महाराजा प्रसन्नतापूर्वक देश रक्षा के लिए संगठित होकर जूझने को तैयार हो गए। आचार्य शंकर के प्रयास से दक्षिण भारत के भी सभी धार्मिक नेता और राजन्यवर्ग परस्पर वैमनस्य भूलकर ऐसे सुसंगठित हुए कि विदेशी आक्रमणकारियों को भारत पर आक्रमण करने का साहस ही नहीं हुआ। कहने का तात्पर्य यह है कि उत्तर भारत में महाराज महिपाल और प्रतिहार राजा नागभट्ट, कश्मीर के राजा जयपीड़ की सम्मिलित शक्ति से सिन्ध-भद्रदेश विदेशी शासन से मुक्त हुआ। दक्षिण भारत में विदेशी शासन के जो बादल चेरामन पेरुमल के कारण उमड़ रहे थे, वे राष्ट्रकूट महाराज गोविन्दराज, चालुक्य, चोल, केरल आदि राजाओं के सैन्य झंझावात से देखते-देखते विलीन हो गए।

इन प्रमाणों के आधार पर तत्कालीन भाषाओं का उल्लेख करते हुए प्रो. मजूमदार ने यावनी भाषा को यमन प्रदेश (अरब) की भाषा माना है। इस इतिहास सत्य के सहारे नव जागरण का वह महामंत्र भी स्पष्ट हो जाता है, जो भगवत्पाद आचार्य ने भारत के जन-गण को दिया था। सिन्ध, भ्रद भ्रमण के समय जब आर्त जनता ने भगवान शंकराचार्य से विदेशी सत्ता से स्वतंत्र होने का मार्ग पूछा- ‘महाराज, किं र्स्मतव्यं?’ आचार्य ने उत्तर दिया- ‘हरेर्नाम सदा न यामिनी भाषा।’ अर्थात् हरिनाम का स्मरण करो, न कि अरबों की भाषा। यही नव जागरण का मंत्र था, जो उन दिनों घर-घर में व्याप्त हो गया। यही सूत्र था, विदेशी भाषा, विदेशी संस्कृति के बहिष्कार का और राष्ट्रीयता के जागरण का।

आचार्य के इस नव जागरण का परिणाम था कि सभी धर्मों, सम्प्रदायों एवं वर्गों ने मिलकर उन्हें सर्वज्ञ पीठ पर बिठाया। आचार्य ने देश के उत्तर में बद्रीनाथ का ज्योतिर्मठ, दक्षिण में शृंगेरीमठ, पूर्व में पूरी के गोवर्धन मठ एवं पश्चिम में द्वारका के शारदा मठ की स्थापना करके राष्ट्र की संस्कृति-संवेदना को एक सूत्र में पिरो दिया। आचार्य के तप, त्याग, ज्ञान, श्रम एवं संकल्प से उन दिनों राष्ट्र में जो नव जागृति आयी, उसी सत्य को आज फिर से प्रकट करने की आवश्यकता है। इक्कीसवीं सदी में राष्ट्रीय नव जागरण ही भगवान् आदि शंकराचार्य के जन्मोत्सव का संदेश है।


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