वातव्याधि-निवारण की यज्ञोपचार प्रक्रिया

May 2002

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संधिवात एवं संधिशोथ नामक वातव्याधियों की यज्ञ चिकित्सा का वर्णन पिछले अंकों में किया जा चुका है। ये दोनों ही जोड़ों से संबंधित आर्थ्राइटिस रोग है। यहाँ पर इसके तीसरे प्रकार ‘गाउट’ अर्थात् वातरक्त एवं घुटने के शोथ के संबंध में बताया जा रहा है कि किन कारणों से ये उत्पन्न होते हैं और यज्ञोपचार द्वारा इन कष्टकारी व्याधियों से छुटकारा किस तरह से पाया जा सकता है।

वातरक्त को ‘बीमारियों का राजा’ कहा जाता है। सुकुमार प्रकृति के व्यक्तियों एवं संपन्नों को इस व्याधि से सर्वाधिक ग्रस्त पाया जाता है। चालीस-पचास वर्ष की उम्र के पश्चात् इसका आक्रमण महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में ज्यादा देखने को मिलता है। यह बच्चों एवं युवाओं में बहुत कम पाया जाता है। वातशोणित, आढ्यवात, वातबलास, खुडवात आदि नामों से भी जाना जाता है। इसका मुख्य कारण मद्य-माँस का अत्यधिक सेवन, मिथ्या आहार-विहार, प्रतिकूल जलवायु, व्यायाम एवं परिश्रम का अभाव, मोटापा, शोक, क्रोध, चिंता, तनाव आदि मानसिकता विकार माने जाते हैं। आनुवंशिक कारण भी इसके लिए एक जिम्मेदार कारक माना जाता है। घोड़ा, ऊँट,हाथी आदि की सवारी करने, शीत रुक्षादि कारणों से शरीर की वायु प्रकुपित हो जाती है। और अधिक तीखे चरपरे, गरम खट्टे, चिकने खारे पदार्थ, सूखे मटर, बींस, लोबिया, अदरक, पत्तों एवं बैंगन आदि के शाक अधिक मात्रा में खाने से रक्त दूषित हो जाता है! यही दूषित रक्त प्रकुपित वायु से मिलकर वातरक्त को उत्पन्न करता है। सबसे पहले यह हाथ-पैर में उत्पन्न होता है, पीछे सारे शरीर में फैल जाता है।

आधुनिक चिकित्साविज्ञानी वातरक्त को ‘गाउट’ नाम से संबोधित करते हैं। वृद्धावस्था में उभरने वाली यह एक बहुत ही पीड़ादायक रिह्यूमेटिक बीमारी है, जो चयापचयी प्रक्रिया द्वारा रक्त के दूषित होने से उत्पन्न होती है। रक्त में जब यूरिक एसिड एवं सोडियम यूरेट्स की मात्रा अधिक बढ़ जाती है और शरीर से इनका निष्कासन पूरी तरह नहीं हो पाता, तब ये तत्व जोड़ो के खाली स्थानों में, कोमल ऊतकों में क्रिस्टल के रूप में जमने लगते हैं। इस जमाव के कारण जोड़ों, संधियों, संधिकला आदि में सूजन, लालिमा, दाह, दर्द एवं जकड़न होने लगती है। गाउट का आरंभ मुख्य रूप से छोटी अस्थि-संधियों से तथा विशेष रूप से पैर के अँगूठे की संधि से होता है। जोड़ों में पाये जाने द्रव-साइनोबियल फ्लूइड में यूरिक एसिड के रवे-क्रिसटल जमने लगते हैं, जिससे सूजन आती है और दूषित रासायनिक तत्वों के मुक्त होने से जोड़ो के तुतुओं में शोथ के साथ दर्द उभरने लगता है। आगे चलकर यही तत्व त्वचा के नीचे, गुरदे में जोड़ों के आस-पास भी बनने लगते हैं और संबंधित अंगों को विकार ग्रस्त बना देते हैं। सही समय पर उपचार न होने पर जोड़ खराब हो जाते हैं। और व्यक्ति अपंगता का शिकार हो जाता है। पैर के अंगूठे से आरंभ होने वाला यह रोग धीरे-धीरे एड़ी,घुटने, हथेलियों, उँगलियों तथा कुहनियों तक को अपनी चपेट में ले लेता है।

गाउटी आर्थ्राइटिस अर्थात् वातरक्त या गाँठदार गठिया का आक्रमण प्रायः धीरे-धीरे होता है। इसके लक्षणों को देखकर आसानी से पहचाना जा सकता है। प्रायः प्रारंभ में रोग से प्रभावित व्यक्ति को पसीना ज्यादा आता है, किसी-किसी को बिलकुल नहीं आता। हलके बुखार के साथ अँगूठे अथवा किसी अन्य जोड़ में प्रायः रात्रि के समय तेज दर्द के साथ सूजन उभर आती है। प्रभावित स्थान की त्वचा लाल या जामुनी रंग की हो जाती है। जोड़ को छूना या हिलाना-डुलाना मुश्किल हो जाता है। एक बार आक्रमण होने के बाद सप्ताह-दो सप्ताह बाद रोग या तो स्वयं या उपचार के बाद दब जाता है, किंतु कुछ समय पश्चात् यह दुबारा उभर आता है। दो-चार बार यही क्रम चलता रहता है। और पीछे स्थायी बन जाता है। ऐसी स्थिति में गुरदे खराब हो सकते हैं, घुटने की हड्डियाँ बेकार हो सकती हैं, जोड़ उखड़ सकते हैं। हृदय में सूजन आ सकती है। उल्टी, दस्त जैसे अनेक उपद्रव होने लगते हैं। रोग पुराना हो जाने पर अशक्तता एवं विकलाँगता तथा कुरूपता आ जाती है। पसीने से खटास जैसी गंध, स्वभाव चिड़चिड़ा पेशाब की न्यूनता एवं उसमें यूरिक एसिड तथा यूरेट की बढ़ोत्तरी जैसे लक्षण स्पष्ट परिलक्षित होने लगते हैं।

गाउटी-गठिया या वातरक्त तीन तरह का होता है। पहले प्रकार में वायु और रक्त की विषाक्तता से उत्पन्न गठिया आता है। उससे प्रभावित पैरों में छूने से असह्य पीड़ा, सुई चुभाने, त्वचा फटने जैसी वेदना का अनुभव होता है। शुष्कता, भारीपन, संज्ञाशून्यता जैसी प्रतीति होती है। दूसरे प्रकार के वातरक्त में पित्त और रक्त की विषाक्तता अधिक होने से प्रभावित पैर तीव्र दाह युक्त, अधिक गरम, लाल रंग, शोथ एवं पिलपिलापन लिए होता है। तीसरे में कफ एवं रक्त की अत्यधिक विषाक्तता होने के कारण पैरों में खुजली अधिक होती है। वे सफेद ठंडे सूजन युक्त मोटे तथा कठोर हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त तीनों दोषों से युक्त वातरक्त में सभी दोष। अपने-अपने लक्षण पैरों में प्रकट करते हैं। इन लक्षणों के अलावा भी अन्य अनेक शारीरिक लक्षण प्रकट होते हैं- जैसे शरीर का ताप 11 डिग्री से 12 डिग्री तक बने रहना, तीव्र बुखार, प्यास, जी मिचलाना आदि। रोग की अभिवृद्धि होने पर पैर के अँगूठे की संधियों के अतिरिक्त गुल्फ संधि, जानु संधि, कलाई की संधियाँ भी प्रभावित-संक्रमित हो जाती हैं। समुचित उपचार न होने पर यह रोग पूरे शरीर में फैल जाता है। रोगी पंगुता का शिकार हो जाता है, अँगुलियाँ गठीली एवं टेढ़ी हो जाती हैं।

गाउटी आर्थ्राइटिस अर्थात् वातरक्त को दूर करने के लिए आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में अनेकों दरद निवारक एवं शोथ नाशक औषधियाँ विद्यमान हैं, किंतु इन्हें प्रयुक्त करने पर रोग-शमन के साथ-साथ इनके साइड इफेक्ट्स भी रोगी को भुगतने पड़ते हैं। यज्ञोपचार में यह दुविधा नहीं रहती। यह सर्वाधिक सुरक्षित-निरापद होने के साथ ही रोग को समूल नष्ट करने में समर्थ है। हर कोई इसे सरलतापूर्वक स्वयं कर सकता है और दूसरों को भी इससे लाभान्वित कर सकता है। वातरक्त की यज्ञोपचार प्रक्रिया इस प्रकार है-

इसमें गाउटी आर्थ्राइटिस की विशेष हवन सामग्री का प्रयोग किया जाता है। इस विशिष्ट हवन सामग्री में निम्नलिखित चीजें समान मात्रा में मिलाई जाती हैं- (1) मंजीठ, (2) हरड़, (3) बहेड़ा, (4) गिलोय, (5) कुटकी, (6) बच, (7) दारु हल्दी, (8) नीम छाल, (9) नागर मोथा, (10) धनिया, (11) सोंठ, (12) भारंगी, (13) कटेरी पंचाँग, (14) मूर्वा, (15) बायबिडंग, (16) बीजसार, (17) चित्रक की छाल, (18) शतावर (19) त्रायमाण, (20) छोटी पिप्पली, (21) वासा पत्र, (22) भाँगरा, (23) देवदार, (24) लाल चंदन, (25) निशोथ, (26) वरुण छाल, (27) बावची, (28) करंज, (29) अतीस, (30) इंद्रायण की जड़, (31) सारिवा, (32) पित्त पापड़ा, (33) कचनार की छाल, (34) बबूल की छाल, (35) शरपुँखा, (36) गुग्गुल, (37) एरंड मूल, (38) गोक्षुर, (39) गोरखमुँडी, (40) निर्गुंडी, (41) रास्ना, (42) चोपचीनी, (43) अरणी, (44) सहजन की छाल, (45) शीशम की छाल।

उपर्युक्त 45 चीजों को बराबर मात्रा में लेकर उनका जौकुट पाउडर बना लेते हैं और इसे विशेष रोग की ‘हवन सामग्री नंबर-(2)’ का लेबल लगाकर एक डिब्बे में सुरक्षित रख लेते हैं। हवन करते समय पहले से तैयार की गई ‘कॉमन हवन सामग्री नंबर-(1)’ की बराबर मात्रा मिलाकर हवन करते हैं। ‘कॉमन हवन सामग्री नंबर-(1)’ को- अगर, तगर, देवदार, लाल चंदन, सफेद चंदन, असगंध, गुग्गुल, लौंग, जायफल, गिलोय आदि चीजें बराबर मात्रा में मिलाकर बनाया जाता है। हवन सूर्य गायत्री मंत्र से किया जाता है। सूर्य गायत्री मंत्र- ‘ऊँ भूर्भुवः स्वः भास्कराय विद्महे, दिवाकराय धीमहि, तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्।’

उक्त मंत्र का उच्चारण करते हुए मंत्र के अंत में ‘स्वाहाः इदं सूर्याय इदं न मम्‘ कहते हुए कम-से-कम चौबीस आहुतियाँ नित्य डालनी चाहिए।

हवन करने के साथ ही उक्त 45 चीजों से निर्मित जौकुट पाउडर की कुछ मात्रा को बारीक पीसकर कपड़-छन करके एक अलग डिब्बे में रख लेना चाहिए। उसमें से छन करके एक अलग डिब्बे में रख लेना चाहिए। उसमें से हर रोज सुबह-शाम एक-एक चम्मच पाउडर शहद के साथ खाते रहना चाहिए। पाउडर खाने में यदि अरुचिकर लगे तो उसे क्वाथ बनाकर भी पिया जा सकता है। क्वाथ बनाने के लिए चार चम्मच पाउडर लेकर आधा लीटर पानी में रात्रि को स्टील के भगोने में भिगो देना चाहिए और सुबह मंद आँच पर उबालकर क्वाथ बना लेना चाहिए। क्वाथ उबलकर जब चौथाई रह जाए तो उसे ठंडा कर बारीक कपड़े से छान लेना चाहिए। इसकी दो मात्रा बनाकर आधी मात्रा सुबह एवं आधी मात्रा शाम को एक चम्मच शहद मिलाकर रोगी को पिलाते रहना चाहिए। यह दोनों क्रम हवन और क्वाथ तब तक चलाते रहना चाहिए जब तक रोग निर्मूल न हो जाए। उपर्युक्त औषधियों में से यदि कुछ उपलब्ध न हों, तो भी जितनी भी मिल सकें उतने से ही यज्ञोपचार आरंभ कर देना चाहिए।

यज्ञचिकित्सा के साथ ही पीड़ित अंग पर वातनाशक तेल की मालिश भी करनी चाहिए। तैल इस प्रकार बनाया जाता है-(1) सरसों तैल-1 मि.ली, (2) तिल तैल-1 मि.ली, (3) एरंड तैल-5 मि.ली, (4) मालकाँगनी के बीज-24 ग्राम, (5) कायफल-12 ग्राम, (6) जायफल-12 ग्राम, (7) शतवार-12 ग्राम, (8) बकायन-12 ग्राम, (9) सोंठ-12 ग्राम, (10) कतीरा-12 ग्राम, (11) अकरकरा-12 ग्राम, (12) करंज-12 ग्राम, (13) नारियल गिरी-12 ग्राम, (14) इलायची-12 ग्राम, (15) लौंग-12 ग्राम, (16) हल्दी-12 ग्राम, (17) समुद्र खार-12 ग्राम, (18) कुचला-12 ग्राम, (19) बादाम-12 ग्राम, (20) कुलंजन-12 ग्राम, (21) समीर-12 ग्राम, (22) काला धतूरा-2 ग्राम, (23) आक-2 ग्राम, (24) भिलावा-2 ग्राम, (25) तंबाकू-2 ग्राम, (26) सहजन-2 ग्राम, (27) मकोय-2 ग्राम, (28) मोम-2 ग्राम, (29) आक के पत्ते, थूहर के पत्ते एवं एरंड के पत्ते- (प्रत्येक पाँच-पाँच) (30) भाँगरा-2 ग्राम।

मोम को छोड़कर उपर्युक्त सभी चीजों को 3 लीटर पानी में डालकर मंद आँच पर क्वाथ बना लेना चाहिए और जब पानी आधा रह जाए तो उसे ठंडा करके छान लेना चाहिए। अब इस छने हुए क्वाथ में तीनों तेल एवं मोम डालकर तब तक मंद आँच पर पकाना चाहिए जब तक सारा पानी जल न जाए। तेल मात्र शेष रहने पर उसे उतारकर ठंडा होने पर छान लेना चाहिए। निरंतर इस तेल की मालिश से गाउटी आर्थ्राइटिस एवं घुटने का शोथ एवं जोड़ों का दर्द बिलकुल ठीक हो जाता है।


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