पत्रों से मार्गदर्शन : गुरुकथामृत 33 - जीवन जीने की कला के शिक्षक, सच्चे मार्गदर्शक

May 2002

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शिक्षा तो हर कोई-स्कूल कॉलेजों में पा लेता है, पर विद्या तो पूर्व जन्म के संस्कारी, इस जन्म के अध्यवसाय एवं गुरुजनों के शुभाशीष से ही मिल पाती है। शिक्षा जानकारी देती हैं, डिग्रीधारी बना देती है, पर विद्या तो जीवन की कला सिखाती है, रोजमर्रा की परिस्थितियों का व्यावहारिक ज्ञान कराती है। हमें दैनंदिन जीवन की परिस्थितियों से बिना चिंतन गड़बड़ाए किस तरह मोरचा लेना है, यह विद्या अर्जन से ही संभव हो पाता है। विद्या शब्द को ज्ञान भी कह दिया जाए, तो कोई अत्युक्ति न होगी। हमारे शास्त्र कहते हैं, बिन गुरु ज्ञान नहीं, अर्थात् गुरु के माध्यम से ही विद्या, जीवन कला शिक्षण मिलता है।

हमारी गुरुसत्ता पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने सही अर्थों में ‘स्व आचरण शिक्षरेण पृथिव्याँ सर्वमानवः की उक्ति को सार्थक किया। जीवन भर शिक्षण दिया, साधकों को-परिजनों को जीवन कला सिखाई । यह कार्य उनने पत्रों से भी किया। अखण्ड ज्योति पत्रिका से भी तथा ढेरों कार्यकर्त्ताओं को सामने बिठाकर भी किया। यदि सही अर्थों में उन्हें आचार्य-युगाचार्य-संस्कृतिपुरुष कहा जाए, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। क्योंकि जो भी माध्यम मिले, वे उनसे जीवनभर शिक्षण देते रहे, लोगों को योग्य बनाते रहे। उनके लिखे पत्रों को आज भी वर्षों पूर्व के पत्र, जो उनके द्वारा लिखे गए, हम सभी के लिए प्रेरणा के स्त्रोत हैं। विभिन्न विषयों के बारे में हमें बताते हैं कि हमारी सोच उन पर क्या होनी चाहिए। एक ऐसा ही विशद रूप में लिखा पत्र इस अंक में प्रस्तुत किया जा रहा है। यह पत्र 17-1-1−4−डडडडडडडडडडडड को श्री सुमंत कुमार मिश्र (रायपुर) को लिखा गया था। जो जवाब लिखे गए, उन्हें दो खंडों में बाँटकर प्रस्तुत कर रहे हैं, ताकि क्या संभावित प्रश्न था एवं उसकी व्यावहारिक व्याख्या गुरुवर के मन में क्या थी, इसे भी समझ सकें।

हमारे आत्मस्वरूप 17/9/49

आपका पत्र मिला। हमारे प्रति आत्मीयता है, उसके लिए हम विशेष रूप से कृतज्ञ हैं,। आपके प्रश्नों के उत्तर इस प्रकार हैं-

(1) प्रेम विवाह उचित है, परंतु वह प्रेम वासनाजन्य नहीं,गुण साम्य के आकर्षण से उत्पन्न हुआ होना चाहिए।

(2) आधुनिक शिक्षा प्रणाली समय, स्वास्थ्य और धन का अपव्यय करती है, परंतु उसे तभी त्यागना चाहिए, जब उसके स्थानल पर अधिक उपयोगी शिक्षाक्रम सामने हो। स्कूली शिक्षा छोड़ बैठना और अन्य किसी भी प्रकार कि शिक्षण व्यवस्था का प्रबंध न होना इस अव्यवस्था से स्कूली शिक्षा की अच्छी।

(3) आज की स्थिति में कोई विरले ही मनस्वी अखण्ड ब्रह्मचर्य पालन कर सकते हैं, इसलिए सर्वसाधारण के लिए गृहस्थ जीवन ही उचित मार्ग है।

(4) प्राचीनता का मोह और आधुनिकता का विरोध या आधुनिकता का मोह और प्राचीनता का विरोध, ये दोनों ही बातें हठधर्मी है। जो उचित, है, विवेक- संगत है, वही ग्रहण करना चाहिए करना चाहिए। पोशाक, वाहन,अस्त्र के बारे में भी यही बात है।

आत्मीयता के नाते पूछे गए प्रश्नों पर किसी प्रकार की अन्यमनस्कता न दर्शाते हुए आचार्य श्री अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं एवं बिंदुवार एक-एक प्रश्न का समाधान भी देते हैं। 1949 में ‘प्रेम विवाह’ पर एक आध्यात्मिक स्तर के मार्गदर्शक द्वारा सहमति व्यक्त करना हमें परमपूज्य गुरुदेव के प्रगतिशील चिंतन का परिचय देता है, पर वे बड़ा स्पष्ट कर देते हैं कि वह ‘कामज’ नहीं होना चाहिए, वासनाजन्य नहीं होना चाहिए। जब तक गुणों के आधार पर परस्पर एकरूपता स्थापित न हो, तब तक प्रेम विवाह असफल होते रहेंगे। विगत 43 वर्षों में दुनिया कहाँ-से-कहाँ पहुँच गई, आधुनिकीकरण के दौर में हम रह रहे हैं, पर तथ्य अपने स्थान पर हैं कि परिवार संस्था का कल्याण तभी है, जब गाड़ी के दोनों पहिये गुणों-कर्म-स्वभाव के परिष्कार पर, एक धुरी पर चलने को तैयार हों। आज भी यह शिक्षा उतनी ही उपयोगी है। शिक्षा व विद्या के सार्थक समन्वय पर, नैतिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा पर हम आज विचार कर रहे हैं, पर आज की मैकाले प्रधान शिक्षा 1949 में ही प्रबुद्धजनों के लिए निरुपयोगी सिद्ध होने लगी थी। आचार्य श्री अनौपचारिक शिक्षा को महत्त्व देते हैं एवं बताते हैं कि जब तक उस स्तर की स्थापनाएँ नहीं होतीं, प्रयोग व्यापक स्तर पर नहीं होते, तब तक स्कूली शिक्षा पर रोक लगाने से क्या लाभ!

आज तो परिस्थितियाँ और भी खराब है। सांस्कृतिक प्रदूषण, कई चैनेल्स वाले टी. वी., केबल नेटवर्क ने अश्लीलता को घर-घर पहुँचा दिया है।लेकिन तब जबकि टेलीविजन भारत में प्रविष्ट भी नहीं हुआ था, सिनेमा जगत् भी प्रारंभिक दौर में था, पूज्यवर लिखते हैं कि बजाय ब्रह्मचर्य बनने के गृहस्थ बनना ही ठीक है, तो जेल में आजीवन रहने वाला भी प्रत्यक्ष में साध लेता है, पर मानसिक स्तर पर कहाँ संयम हो पाता है। पूज्यवर विचार-संयम पर सर्वाधिक जोर देते थे, इसीलिए वे विवाह-संस्था को उचित माध्यम मानते थे, जहाँ व्यक्ति सीमित ब्रह्मचर्य के पालन से एक संस्था गुण-संस्कारों से भरी खड़ी कर सकता है। कठोर व्रतधारी ही एकाकी रह पाते हैं एवं वे उनकी नजर में 1159 में भी बड़े विरले ही थे। एकाकी अविवाहित यदि असंयमी हुआ, तो समाज के लिए और भी नुकसानदायक हो सकता है, यह पूज्यवर का चिंतन था। आजादी के बाद का वह दौर आधुनिकता की बयार लिए आया था। यह एक प्रतिद्वंद्विता से भरी उपभोक्तावादी होड़ तो 1990 के बाद आँधी के रूप में बढ़ी, पर उस समय भी धीरे-धीरे आधुनिकता जीवन शैली पर अतिक्रमण करने लगी थी।

साधक का प्रश्न हल करते हुए वे लिखते हैं कि ऐसे में अतिवादिता ठीक नहीं है। प्राचीनता से मोह या उसका विरोध दोनों ही अनुचित हैं। इसी तरह आधुनिकता से लगाव व उसकी मुखालफत भी गलत है। जो भी ठीक है, विवेकसम्मत हैं, परिस्थितियों के अनुरूप उसे जीवन में स्थान देना चाहिए।

पत्र में आगे पूज्यवर लिखते है।-’

(5) ताँत्रिक सिद्धांतों और उसके अद्भुत परिणामों पर हमारी श्रद्धा है, परंतु आजकल इन आधारों पर ठगी ही प्रधान रूप से होती है। इसलिए वास्तविकता की परीक्षा कर लेनी चाहिए। सिद्धाँततः से बातें ठीक है।

(6) जीव ईश्वर का अंश है। यह एक प्रामाणिक भारतीय मान्यता है। इस स्थिति का साक्षात्कार तभी होता है, जब कुविचारों, कुसंस्कारों और कुकर्मों से मनुष्य सर्वथा मुक्ति अवस्था में हम निर्विकार ईश्वर हो जाते हैं, जब तक वह अवस्था प्राप्त नहीं, तब तक हम सब जीव हैं।जीवन अपूर्ण एवं त्रुटिसंपन्न होते हैं। ईश्वर पूर्ण एवं दोषरहित है।

(7) यह ठीक है कि बूढ़े लोग युवकों की अपेक्षा अधिक अनुदार, संकीर्ण और स्वार्थी होते है। वे अपने बालकों को इसी दृष्टिकोण से सलाह देते हैं, पर कई बार युवकों की योजनाएँ और कल्पनाएँ भी ऊँची उड़ान और अव्यावहारिकता से भरी होती हैं। ऐसी दशा में उन्हें किसी अनुभवशील, दूरदर्शी, मानव विज्ञान के ज्ञाता एवं व्यवहारिक आध्यात्मिकता के जानकर व्यक्ति से अपनी समस्याओं को सुलझवाते रहना चाहिए। प्रायः अपरिपक्व आयु के युवक ऐसी योजना अपना बैठते है, जो आगे चलकर उन्हें दुःख देती है, इसलिए जोश और होश दोनों का समन्वय होना चाहिए।

(8) चाचा जी का स्वर्गवास का समाचार पढ़कर दुःख हुआ।प्रभु उनकी दिवंगत आत्मा को सद्गति दे और उनके कुटुँबियों को धैर्य प्रदान करे। दूसरों की मृत्यु देखकर हमें अपनी मृत्यु का स्मरण करना चाहिए।

(9) राख पर बनी लकीरों के आधार पर पुनर्जन्म की योनि का अनुमान लगाना अंधविश्वास मात्र है। इसमें कुछ तथ्य नहीं ।

शेष दया।

विनीत श्रीराम शर्मा आचार्य

पत्र में दिए गए बिंदुओं पर परिजन ध्यान दें। तंत्र पर पूरी श्रद्धा बताते हुए भी वे अपने प्रिय शिष्य को ठगी से सावधान करना चाहते हैं। पूज्यवर के अनुसार तंत्र एक विज्ञान है, विधिसम्मत शास्त्र है, पर तभी जब उसके साथ सही व्यक्ति जुड़े हों सिद्धाँततः तंत्र को वे नकारते नहीं, पर उसके दुरुपयोग के प्रति सचेत भी करते हैं। जीवो ब्रह्नौवनापरः की वेदांत दर्शन की उक्ति से पूरी सहमति दिखाते हुए भी आचार्य श्री भवबंधनों से मुक्ति के आध्यात्मिक पुरुषार्थ को पहले प्रधानता देते हैं। यदि विचार-संस्कार व कर्म ही गलत हों, तो जीव, ब्रह्म कैसे बन सकता है? विचार ही संस्कार बनाते हैं व तदनुरूप ही मनुष्य कर्म करता है।सबसे पहले हम उन भवबंधनों से जो वासना, तृष्णा, अहंता के रूप में हमारी नित्य परीक्षा लेते रहते है, मुक्त हों तो हम त्रुटिरहित ईश्वर के समकक्ष बन सकते हैं। स्वामी विवेकानंद के ‘ ईच सोल पोटेंशियली डिवाइन’ वाली उक्ति से वे अपनी सहमति साधक की जिज्ञासा के उत्तर में व्यक्त करते हैं।

बूढ़े बनाम युवा का विवाद युगों-युगों से चला आ रहा है। हमने बाल यों ही नहीं सफेद किए है; वृद्धजन गहरे भी होते हैं व सरल भी, पर पूज्यवर अपने युवा साधक की मनःसंतुष्टि के लिए, अनुदारता-संकीर्णता- स्वार्थपरायणता पर सहमति जताते हुए भी युवाओं को काल्पनिक उड़ान के खिलाड़ी बताते है। सभी वृद्धों को एक ही तराजू से न तौलकर समस्याओं के समाधान हेतु अनुभवी-दूरदर्शी-मानव मनोविज्ञान के ज्ञाता को महत्व देने की बात भी करते हैं, चाहे वह युवा हो या वृद्ध। जोश एवं होश, उत्साह एवं धैर्य दोनों का युग्म हर किसी के जीवन को सफल बना सकता है, यह भी बताते हैं। मनोविज्ञान की दृष्टि से इस प्रश्न का उत्तर कितना गहरा है, इसे हर कोई समझ सकता है।

श्री सुमंत जी के चाचाजी के स्वर्गवास पर सहानुभूति, मृतात्मा के लिए प्रार्थना के साथ वे एक संदेश देते हैं कि हमें नित्य अपनी मृत्यु का स्मरण करते रहना चाहिए। श्मशान-वैराग्य तो अनेकों को होता है, पर वह क्षणिक ही होता है। यदि हम हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत के सिद्धाँत को याद रखे, तो देखते-देखते हमारी दृष्टि बदल सकती है। अंत में वे सुमंत जी के द्वारा व्यक्त एक जिज्ञासा को कि मृत्यु के बाद जब अस्थि बटोरने गए, तो राख पर निशान से लगा कि इस विशेष योनि में जन्म उनका होगा, बिल्कुल निराधार ठहराया है। विज्ञानसम्मत आज के युग में भी ऐसी न जाने कितनी मान्यताएँ हैं, किंतु ऋषि तुरंत नकार देता है व कहता है कि यह कोरा अंधविश्वास है।

यह पत्र एक जिज्ञासा-समाधान है एवं एक मार्गदर्शक लेख भी। मात्र एक ही पत्र इतनी सारी जानकारी देता है, शंकाओं का समाधान करता है कि व्यावहारिक दृष्टि से यह एक व्याख्यान की भूमिका भी निभाता है- जीवन व्यापार के हर क्षेत्र में हमारा दृष्टिकोण कैसा होना चाहिए। कैसी विलक्षण प्रतिभा के धनी थे- सूक्ष्मदर्शी-दूरदर्शी हमारे पूज्य गुरुदेव, जिनने अपनी लेखनी से जन-जन का मार्गदर्शन किया, लोकशिक्षण किया।


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