प्रकाश विज्ञान -

May 2002

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मानवीय शक्तियों से परे, प्रकृति से पार के सच को ढूंढ़ने, जानने और पाने की चाहत चिर पुरातन है। अपना देश भारत हो या फिर दुनिया का कोई दूसरा कोना, हर जगह इसकी झलक मिलती है। यह हर देश का साहित्यिक सत्य है। अपने यहाँ के रामायण, महाभारत सहित वैदिक साहित्य के अलावा पश्चिमी देशों के प्राचीन नाटकों, इतिहास कथाओं, मध्य एवं नव जागरण काल की कविताओं में इसका व्यापक उल्लेख मिलता है। जर्मन साहित्यकार शीलर, विलैण्ड एवं गेटे ने अपने साहित्य में इस पर काफी प्रकाश डालने की कोशिश की। ब्रिटेन के होरेस कालपोल ने अपनी कृति ’केस्टल ऑफ ओट्राण्टो’ में यह तर्क पूर्ण ढंग से स्पष्ट किया, कि शक्ति और सत्य की सीमा मनुष्य और दृश्य प्रकृति तक ही सिमटी नहीं है। यह इससे परे और पार भी है। उन्होंने बताया नेचुरल के साथ ही सुपरनेचुरल का भी अस्तित्त्व है।

मैथ्यू ग्रेगरी लेविस ने ‘द माँक’ में इसके कुछ अलग रूप तलाशे। यही रीति मेरी शेली ने अपनी रचना ‘फ्रेंकस्टीन’ में निभायी। पिछली बीसवीं शताब्दी में ‘सुपर नेचुरल’ के सच का पर्याप्त साहित्यिक विस्तार हुआ। अमेरिका में एडगर ऐलेन पो, वाशिंगटन इर्विंग, नेथेनील हावथोर्न, रूस में पुश्किन, जर्मनी में हाफमेन, पेरिस में नोडियार ने अपने साहित्य में सुपर नेचुरल की रोमाँचक व्याख्याएँ की। अमेरिका में- एच. वी. लोवक्राफ्ट ने अपने जमाने की पूरी पीढ़ी पर इसका जादुई असर छोड़ा। ब्रिटेन में एम.आर. जेम्स ने आत्मा का सच बयान कर सबको अचरज में डाल दिया। इसी तरह आर्थर मेकेन ने अपनी कृति में प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान एक सैनिक द्वारा स्वर्ग से परी उतरने की आँखों देखी घटना का रोचक वर्णन करके खासी लोकप्रियता अर्जित की।

सुपर नेचुरल या अतिप्राकृतिक सत्य से सम्बन्धित घटनाओं को, परिकल्पनाओं को अपने साहित्य में उतारने, उकेरने वाले लेखकों में डिकेन्स, किटिंलग, वाल्टर डी ला मरे, हेनरी जेम्स और डी.एच. लारेन्स को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। अमेरिकन लेखक रेड ब्राडबरी ने अपनी कविताओं में इसकी सूक्ष्मता को अंकित करने की कोशिश की। एच.जी. वेल्स ने पहली बार सुपर नेचुरल या अतिप्राकृतिक कथा को विज्ञान कथा का रूप दिया।

सुपर नेचुरल या अतिप्राकृतिक की वास्तविकता क्या है- केवल कथा-कहानी या फिर सृष्टि का अद्भुत किन्तु अनुभूत किया जाने वाला सत्य। यह ऊहापोह सदा रही है और आज के विज्ञान युग में भी है। तर्क और प्रयोग की कसौटी वाले वर्तमान जीवन में एक प्रथा यह भी चल पड़ी है कि ऐसी चीजों को महज अन्धविश्वास कहकर उनकी जमकर हंसी उड़ायी जाय। हालाँकि इस संदर्भ में प्रख्यात् वैज्ञानिक विलियम नेपियर का कथन महत्त्वपूर्ण है, जो उन्होंने अपनी विख्यात कृति ‘द एक्सपेरीमेण्ट्स एण्ड एक्सपीरियेन्सेज़’ में कहा है। उनका कहना है कि ज्ञान व सत्य का विस्तार अनन्त है- जबकि मानवीय शक्ति की, उसके द्वारा अनुभव करने की सीमा है। आधुनिकतम उपकरणों द्वारा इस सीमा को थोड़ा-बहुत बढ़ाया तो जा सकता है, पर इतना अधिक नहीं कि ज्ञान और सत्य के अनन्त विस्तार को समूचे रूप में पाया, परखा और जाना जा सके।

विज्ञानवेत्ता विलियम नेपियर के शब्दों में ज्ञान और सत्य के अनन्त विस्तार का वह असीम अंश जो वैज्ञानिक प्रयोगों और मानवीय बुद्धि की सीमाओं से परे है। वही सुपरनेचुरल या अतिप्राकृतिक है। मानव को अन्तःसंवेदना को यदा-कदा इसकी झलक-झाँकी तो मिल जाती है, पर इसकी तर्क पूर्ण या बुद्धि सम्मत व्याख्या नहीं हो पाती। इसके बावजूद सुपरनेचुरल के सत्य को इसकी सत्ता और शक्ति को नकारा नहीं जा सकता। महान् वैज्ञानिक विलियम स्टैनले जेवाँन्स ने भी अपनी सुविख्यात कृति ‘द प्रिन्सिपल्स ऑफ साइन्स’ में सत्य को कुछ इस ढंग से उद्घाटित किया है। उनके अनुसार कोई भी सच्चा विज्ञान किसी भी सत्य के अस्तित्त्व से सिर्फ इसलिए इन्कार नहीं कर सकता है, क्योंकि वह उसके द्वारा तौला या मापा नहीं जा सका। यह भी तो हो सकता है कि वह सत्य उसकी तौल या माप की वर्तमान सीमाओं से बाहर हो। प्रकृति में ऐसे अनेकों आश्चर्य हैं, अस्तित्त्व के ऐसे अनेकों सत्य हैं, जिन्हें जान पाने में हमारी बुद्धि बौनी और असमर्थ है। पर बुद्धि के बौनेपन से उपजी असमर्थता के कारण इनके आश्चर्यजनक अस्तित्त्व को तो नकारा नहीं जा सकता।

इस वैज्ञानिक सत्य को स्वीकार करके इस युग के कई वैज्ञानिकों ने सुपरनेचुरल के अन्वेषण-अनुसन्धान के प्रयास किए हैं। इस क्रम में विज्ञानवेत्ता स्टीवेंसन, एस.जी.सोल एवं जे.बी. राइन का कार्य सराहनीय है। जे.बी. राइन ने अपनी कृति ‘न्यू फ्रंटियर्स ऑफ माइन्डस’ ने मानव मन और मानवीय शक्तियों से परे और पार नए क्षितिजों को पहचानने और परखने की कोशिश की है। उनकी यह पुस्तक सुपर नेचुरल के सच की वैज्ञानिकता को प्रामाणित करने का प्रयास है। इस कार्य से इस दिशा में अनुसन्धान कार्य के लिए उत्सुक विज्ञानियों को पर्याप्त दिशादर्शन एवं मार्गदर्शन मिलता है।

सुपरनेचुरल के वैज्ञानिक सत्य की व्यापकता के नूतन आयामों को उद्घाटित करने में मनोवैज्ञानिक फ्रायड का योगदान भी सराहनीय है। उन्होंने अपनी महत्त्वपूर्ण कृति ‘साइकोलॉजी ऑफ ऑकल्टफिनामिना’ में इसकी सत्ता और सत्य को अपनी स्वीकारोक्ति प्रदान की है। उन्होंने इसे श्वस्क्क (एक्स्ट्रासेन्सरी परसेप्शन) के रूप में स्वीकारा है। ‘साइको एनालिसिस एण्ड टेलीपैथी’ नाम की पुस्तक में भी फ्रायड ने सुपरनेचुरल की सच्चाई का उल्लेख किया है। फ्रायड की ही भाँति सुविख्यात मनोविज्ञानी जुँग ने सुपर नेचुरल के विज्ञान पर अपना विश्वास जताया है। उनका कहना है कि मनुष्य की अन्तः संवेदना विकसित हो तो सुपर नेचुरल एक शब्द नहीं तथ्य और सत्य की अनुभूति के रूप में समझ में आने लगता है।

इन दोनों वैज्ञानिक विभूतियों के अतिरिक्त और भी विज्ञानवेत्ताओं ने इस पर अनुसन्धान करने का प्रयास किया है। इसके अनुसार इसकी अत्याधुनिक खोज का आधार डेप्थ साइकोलॉजी है। कई विशेषज्ञ इसका अध्ययन परा मनोविज्ञानी या पैरा साइकोलॉजी के रूप में करते हैं। आधुनिक फ्रेंच लेखक लुईस पावेल और जक्स बर्गीयर ने अपनी सुविख्यात रचना ‘द डॉन ऑफ मैजिक’ में इसको आधुनिक क्वाँटम सिद्धान्त के अंतर्गत समझाने की कोशिश की है। उनके अनुसार कुछ ऐसे सत्य होते हैं, जिनकी भौतिक ढंग से व्याख्या सम्भव नहीं है। इन्हें केवल मानवी अन्तःचेतना की विकसित शक्तियों से जाँचा, परखा और अनुभव किया जा सकता है।

आधुनिक वैज्ञानिकों एवं विशेषज्ञों द्वारा अनुभव की जा रही मानवीय अन्तःचेतना के विकास की यह आवश्यकता भारतीय ऋषियों द्वारा प्रणीत योग विज्ञान से पूरी होती है। योग वह वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिससे मानव की अंतःशक्तियों का सचेतन रूप से सम्पूर्ण विकास सम्भव है। इस विकसित स्थिति में सुपरनेचुरल एक साहित्यिक कल्पना की सृष्टि नहीं, मानव की अनुभूत दृष्टि बन जाती है। मनोवैज्ञानिक कार्लगुस्ताव युँग ने स्वयं भी वर्षों तक ध्यान का अभ्यास करके इसकी प्रामाणिकता को परखा और जाना था। बाद के वर्षों में उन्होंने नोबुल पुरस्कार विजेता भौतिकशास्त्री वुलफाँग पौली के साथ मिलकर कुछ प्रयोग भी सम्पन्न किए। अपने निष्कर्ष में उन्होंने कहा कि आधुनिक भौतिक एवं आधुनिक मनोविज्ञान कई क्षेत्रों में एक दूसरे से सम्बन्धित दिखाई पड़ते हैं। यदि योग विज्ञान की साधनात्मक दृष्टि और इस आधुनिक विज्ञान की व्याख्या पद्धति का संयोग हो सके तो सुपर नेचुरल का वैज्ञानिक सत्य, विज्ञान की एक नवीन शाखा के रूप में जन्म और जीवन ग्रहण कर सकता है। अध्यात्म एवं विज्ञान के इस समन्वय से मानवीय शक्तियों से परे एवं प्रकृति से पार के सच का अनुभव एवं व्याख्या की जा सकती है।


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