धर्म के विस्तार एवं विविधता की खोज अनावश्यक है। आवश्यक है धर्म के तत्त्व की खोज, इसकी अनेकता में एकता की खोज, इसके परम सार की खोज। यह खोज जितनी अनिवार्य एवं पवित्र है, इसकी विधि उतनी ही रहस्यमय और आश्चर्यपूर्ण है। इसे न समझने वाले जीवन की भंवरों की भटकन में भटकते रहते हैं। धर्म को खोजते हुए स्वयं को खो देते हैं। क्योंकि वे धर्म के तत्त्व को नहीं उसके विस्तार एवं विविधता को खोजते हैं।
धर्म के तत्त्व की खोज तो स्वयं की खोज में पूरी होती है। स्वयं का सत्य मिलने पर धर्म अपने-आप ही मिल जाता है। यह तत्त्व शास्त्रों में नहीं है। शास्त्रों में तो जो है, वह केवल संकेत है। धर्म-ग्रन्थों में जो लिखा है, वह तो बस चन्द्रमा की ओर इशारा करती हुई अंगुली भर है। जो इस अंगुली को चन्द्रमा समझने की भूल करता है, वह अंगुली को तो थाम लेता है, पर चन्द्रमा को हमेशा के लिए खो देता है।
शास्त्रों की ही भाँति सम्प्रदाय भी है। धर्म का तत्त्व इन सम्प्रदायों में भी नहीं है। सम्प्रदाय तो संगठन है। ये सुव्यवस्थित रीति से केवल अपने मत का प्रचार करते हैं। बहुत हुआ तो धर्म की ओर रुचि पैदा करते हैं। अधिक से अधिक उसकी ओर उन्मुख कर देते हैं। धर्म का तत्त्व तो निज की अत्यन्त निजता में है। उसके लिए स्वयं के बाहर नहीं, भीतर चलना आवश्यक है।
धर्म का तत्त्व तो स्वयं की श्वाँस-श्वाँस में है। बस उसे उघाड़ने की दृष्टि नहीं है। धर्म का तत्त्व स्वयं के रक्त की प्रत्येक बूँद में है। बस उसे खोजने का साहस और संकल्प नहीं है। धर्म का तत्त्व तो सूर्य की भाँति स्पष्ट है, लेकिन उसे देखने के लिए आँख खोलने की हिम्मत तो जुटानी ही होगी।
धर्म का यही तत्त्व तो अपना सच्चा जीवन है। लेकिन इसकी अनुभूति तभी हो सकेगी, जब हम देह की कब्रों से बाहर निकल सकेंगे। दैहिक आसक्ति एवं भोग-विलास के आकर्षण से छुटकारा पा सकेंगे। यह परम सत्य है कि धर्म की यथार्थता जड़ता में नहीं चैतन्यता में है। इसलिए सोओ नहीं जागो और चलो। परन्तु चलने की दिशा बाहर की ओर नहीं अन्दर की ओर हो। अंतर्गमन ही धर्म के तत्त्व को खोजने और पाने का राजमार्ग है।