अखंड ज्योति की प्रथम अंक की कथा गाथा

May 2002

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अखण्ड ज्योति के प्रथम अंक की कथा बड़ी प्रेरक है। आज तो इन क्षणों में अपने परिजन इसके 749 वें अंक को अपने हाथों में थामे हुए हैं। उन्हें शायद आज से 62 वर्ष और कुछ महीने पूर्व प्रकाशित हुए इस अंक की ठीक से कल्पना भी नहीं हो पा रही होगी। अपने पाठक-परिजनों में से कई तो ऐसे होंगे, जो तब जन्में भी न होंगे। पर इन पंक्तियों को पढ़ रहे सभी जनों के मनों में जिज्ञासा के भाव एक समान होंगे। उनकी चाहत एक जैसी होगी- अखण्ड ज्योति के इस पहले अंक की कथा को जानने की। सभी के हृदयों में अंकुरित हो रहा यह प्रश्न-पादप एक सा होगा कि जनवरी 1940 में प्रकाशित हुआ अखण्ड ज्योति का यह पहला अंक कैसा था?

जनवरी 1940 से भी काफी पहले अखण्ड ज्योति परम पूज्य गुरुदेव के हृदय में एक दिव्य संदेश की भाँति अवतरित हुई। अपनी साधना में समाधिस्थ गुरुदेव को हिमालय के ऋषियों का यह सन्देश मिला कि “आध्यात्मिक जगत् में भारत माता की बेड़ियाँ टूट चुकी हैं। राष्ट्र की स्वतंत्रता की घोषणा की जा चुकी है। कुछ ही वर्षों में यह सत्य प्रत्यक्ष जगत् में प्रकट हो जाएगा। इसलिए अब तुम्हें नए दायित्व सम्भालने हैं। राजनैतिक क्रान्ति को सही अर्थ तब तक न मिलेगा, जब तक इसमें सामाजिक क्रान्ति, नैतिक क्रान्ति एवं बौद्धिक क्रान्ति के स्वर न मुखर होंगे। इन नयी क्रान्तियों के स्वर को मुखर बनाने के लिए एक ऐसी पत्रिका की आवश्यकता है, जिसकी मूल भावना आध्यात्मिक हो। जो देशवासियों और विश्वमानवता की आत्मा को जाग्रत् कर सके। अपने प्रकाश की प्रदीप्ति से उनकी आत्म ज्योति को जगा सके।”

परम पूज्य गुरुदेव को साधना काल में जो सन्देश मिला, जो संकेत प्रकट हुए उन्हीं के आधार पर अखण्ड ज्योति के प्रकाशन की योजना बनी। यह दैवी संकल्प का दिव्य प्राकट्य था। उन दिनों न तो मिशन था और न साधन। सहयोगियों एवं समर्पित कार्यकर्त्ताओं की आज की सी लम्बी कतारें न थी। प्रत्यक्ष में कुछ भी न होते हुए अप्रत्यक्ष में हिमालयवासी ऋषियों का आशीष और आश्वासन था। गुरुदेव की मार्गदर्शक सत्ता का वरद्हस्त था। अपने हृदय में अलौकिक ऊर्जा को संजोये गुरुदेव ने ठीक समय पर अखण्ड ज्योति के पहले अंक को प्रकाशित कर ही दिया।

35 पृष्ठो का यह अंक विषय वस्तु एवं सामग्री की दृष्टि से किंचित भी न्यून न था। इसके छापने की व्यवस्था आगरा शहर के जौहरी बाजार की दौलत मार्केट के न्यू. फाइन आर्ट प्रिटिंग काटेज में बनी। इसके मालिक पं. मधुसूदन शरण शर्मा परम पूज्य गुरुदेव, तब के ‘मत्त जी’ के व्यक्तित्व से परिचित ही नहीं, प्रेरित और प्रभावित भी थे। उन्होंने अखण्ड ज्योति के इस प्रथम अंक के मुद्रण को न केवल ठीक समय पर सम्पन्न किया बल्कि इसकी उत्कृष्टता का भी ध्यान रखा। मुद्रण के साथ इसके प्रकाशन की व्यवस्था भी आगरा से ही बनी। उन दिनों गुरुदेव ने आगरा शहर के फ्रीगंज मुहल्ले में ‘अखण्ड ज्योति’ का कार्यालय खोला हुआ था। यहीं से इसके प्रकाशन एवं वितरण की व्यवस्था बनायी गई।

अखण्ड ज्योति के प्रथम वर्ष के प्रथम अंक की कीमत मात्र दो आने थी। इसका वार्षिक शुल्क मात्र 1.50 रुपये था। 24 आने में पूरे वर्ष भर अखण्ड ज्योति के 35 पृष्ठो में उत्कृष्ट विषय वस्तु को मुद्रित कर पाने एवं प्रकाशित करवाने का बीड़ा गुरुदेव ने उठाया। उनका उद्देश्य था कि कम से कम खर्च में पठनीय और उत्कृष्ट सामग्री जन सामान्य तक पहुँचे। वह अखण्ड ज्योति को केवल विचारशील वर्ग की पत्रिका बनाने में विश्वास नहीं रखते थे। उनका उद्देश्य जन सामान्य को विचारशीलों के समुदाय के रूप में विकसित करना था। इसके सरंजाम उन्होंने इसके प्रथम अंक से जुटाए थे।

साज-सज्जा की दृष्टि से अखण्ड ज्योति अपने पहले अंक से ही आकर्षण का केन्द्र बन गयी। इसके पहले अंक के कवर पेज पर योगिराज भगवान् श्री कृष्ण का चित्र प्रकाशित किया गया। प्रथम अंक के कवर पेज पर छपे हुए इस चित्र में जो संकेत है, उनसे पत्रिका के रीति-नीति ही नहीं गुरुदेव के जीवन को भी अभिव्यक्ति मिलती है। इस चित्र में योगीराज भगवान् श्री कृष्ण युद्धभूमि में खड़े हैं। उनके दाँए हाथ की तर्जनी अंगुली में चक्र गतिशील है। इस चित्र से दो सत्यों का भावबोध होता है- 1. महायोगी अब साधना के एकान्त से समाज के महासमर में आ खड़े हुए हैं। 2. यहाँ केवल उनकी उपस्थिति ही नहीं है, अब उन्होंने कालचक्र की गति को अपने हाथों से नियंत्रित करने का संकल्प कर लिया है।

इन दोनों ही बिन्दुओं से परम पूज्य गुरुदेव के अपने- स्वयं के जीवन की झलक मिलती है। इन्हीं से गुरुदेव का अपना स्वरूप एवं संकल्प प्रकट होता है। यह उद्बोधक चित्र बताता है कि इस युग में प्रभु केवल पार्थसारथी बनकर सन्तुष्ट नहीं हैं। वह इस युग के महासमर में स्वयं महानायक की भूमिका निभाएँगे। कालचक्र की गति को अपने हाथों से, अपनी आत्मा से स्फुरित होने वाले आध्यात्मिक तेज से नियंत्रित करेंगे। इस आकर्षक चित्र की ही भाँति इसकी विषय वस्तु भी आकर्षक है। अखण्ड ज्योति के इस प्रथम अंक में प्रकाशित सामग्री के शीर्षक अग्रलिखित हैं- 1. अखण्ड ज्योति क्यों?, 2. कर्त्तव्य की पुकार, 3. धर्म का सच्चा स्वरूप, 4. मौन एक दैवी रेडियो, 5. धर्म और विज्ञान, 6. मनुष्य का मनोबल, 7. शीर्षासन का महत्त्व, 8. जहाँ चाह - वहाँ राह। इसी के साथ इसके अन्तिम पृष्ठ पर ‘आत्मचिन्ता’ शीर्षक से एक कविता प्रकाशित हुई है।

इस प्रथम अंक का प्रथम लेख परम पूज्य गुरुदेव द्वारा लिखा गया सम्पादकीय है। जिसके ऊपर अखण्ड ज्योति एवं उसके संस्थापक की कार्यशैली को स्पष्ट करने वाली दो पंक्तियाँ छपी है। ये पंक्तियाँ हैं-

सुधा बीज बोने से पहले, कालकूट पीना होगा। पहिन मौत का मुकुट विश्वहित मानव को जीना होगा॥

इन पंक्तियों में गुरुदेव का स्वयं अपना जीवन ध्वनित होता है। सचमुच ही वह इसी तरह से जन्मे और जिए। शिवत्व ही उनके जीवन का परिचय और पर्याय रहे। सृष्टि में अमृतबीजों की फसल को बोने के लिए वह सारे जीवन हलाहल विष पीते रहे।

अपने जीवन सत्य की इस काव्यमयी अभिव्यक्ति के साथ उन्होंने अखण्ड ज्योति के आध्यात्मिक सत्य को स्पष्ट करते हुए इस प्रथम अंक में लिखा- ‘आज तक जितने भी मानवता के महान् आचार्य हुए हैं, उन्होंने एक स्वर से चिल्ला-चिल्लाकर कहा है। असली आनन्द, सुख-सन्तोष और शान्ति मनुष्यता की उपासना में है। इस समय जितनी गुत्थियाँ दुनिया के सामने हैं, उनकी जड़ में एक ही कारण है- मनुष्यता का अभाव। राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, साम्प्रदायिक, आर्थिक, शारीरिक, कौटुम्बिक, मानसिक जितनी भी उलझनें हैं, उनका पूरी तरह से तब तक निराकरण नहीं हो सकता, जब तक हमारे आचरण पवित्र न हों, जब तक हम सच्चे नागरिक न बनें। सच्चा योगी बनाने का एक ही मार्ग है, और वह है सदाचार। सदाचार और अध्यात्म विद्या को एक ही चीज के दो पहलू कहना चाहिए। ‘अखण्ड ज्योति’ इसी अध्यात्म विद्या की चर्चा करने के लिए अवतीर्ण हुई है।’ (अखण्ड ज्योति, जनवरी, 1940, पृ. 3)।

अखण्ड ज्योति के प्रथम अंक के सम्पादकीय के अंश, गुरुदेव की लेखनी से निःसृत सत्य- किस तरह अखण्ड ज्योति एवं उसके पाठकों का जीवन सत्य बना हुआ है- इससे हम सभी परिचित हैं। इसके अलौकिक प्रकाश में हमारे देव परिवार के सभी सदस्य इसी तरह अपने जीवन सत्य और जीवन लक्ष्य की ओर बढ़ते रहेंगे, ऐसा विश्वास है। इसके प्रथम अंक से जो जीवन बोध का निर्झरिणी प्रवाहित हुई, वह सदा-सदा यूँ ही प्रवाहित होती रहेगी। बिना तनिक सा भी विराम लिए, अविराम और अखण्ड।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118