मानसिक स्वास्थ्य - मन को साधें, ताकि शरीर सधे

May 2002

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आहार, आवेग और स्वास्थ्य का परस्पर गहरा संबंध है। संवेग के गड़बड़ाने, घटने या बढ़ने से खुराक प्रभावित होती है। खुराक यदि प्रभावित हुई, तो उसके दो प्रकार के परिणाम सामने आते हैं-दुर्बलता अथवा मोटापा। भोजन की मात्रा कम होने से कमजोरी आती है और ज्यादा होने पर स्थूलता बढ़ती है। स्थिर स्वास्थ्य तभी बना रहा सकता है, जब आवेग नियंत्रित हो।

वैज्ञानिक एमझ्एसझ् गजेनिगा अपनी रचना ‘पैटर्न्स ऑफ इमोशन्स’ में लिखते हैं कि हमारा पूरा शरीरतंत्र और उसकी गतिविधियाँ संवेगों पर आधारित है। उसके अच्छा होने पर शरीर-क्रिया सामान्य बनी रहती है, जबकि इसकी बुरी प्रकृति समस्त प्रणाली को असामान्य स्तर का बना देती है। ऐसी स्थिति में प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने वाले आचार-व्यवहार से लेकर शरीर में चलने वाले सूक्ष्म आँतरिक क्रियाकलाप भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। भूखे चूँकि सूक्ष्म आभ्यंतरित हलचल की परिणाम है, अतः उस पर भी भावनात्मक उथल-पुथल का स्पष्ट असर दिखलाई पड़ता है। वे कहते है कि अध्ययनों के दौरान यह देखा गया है कि आह्लाद एवं तनाव की स्थिति में आहार की मात्रा बढ़ जाती है, जबकि उदासी और निराशा उसे अस्वाभाविक रूप से घटा देती है।

यह सच है कि बार-बार अधिक मात्रा में अधिक कैलोरी युक्त भोजन लेने से मोटापा बढ़ता है, पर तनाव के दौरान बार-बार भोजन लेने की आवश्यकता आखिर क्यों महसूस होने लगती है? इस संबंध में शरीरशास्त्रियों का कहना है कि इसे आवश्यकता या इच्छा कहने के बजाय शरीर-क्रिया का अंग मानना ज्यादा उपयुक्त होगा। उनके अनुसार शरीर तनावग्रस्त होता है, तो भीतरी प्रणालियाँ उसे मिटाने के लिए अपने ढंग से प्रयास आरंभ कर देती हैं और ऐसे ऐसे रसायनों का निर्माण करने लगती है, जो आँतरिक दबाव को घटा सकें। इस क्रम में भूख उत्तेजित करने वाले रस-स्राव भी पैदा होने लगते हैं। इस स्राव के द्वारा काया तनाव को कम करने का उपक्रम करने लगती है। यही कारण है कि भोजन के मध्य व्यक्ति तनाव से कुछ राहत अनुभव करता है। यह राहत यों तो अस्थायी और अस्थिर होती है; पर जब तक रहती है, व्यक्ति को आरामदायक स्थिति प्रदान किए रहती है।

इसी प्रकार जब कभी कोई बहुत भावनात्मक आघात पहुँचता है, तो एक बार फिर समस्त आँतरिक संस्थानों का व्यतिक्रम हो जाता है और उससे आदमी दूसरे ढंग से प्रभावित होता है। चूँकि तनाव और विषाद में बाह्य लक्षणों के साथ-साथ आँतरिक संरचना में भी फर्क होता है, इसलिए देह-संस्थान उन दोनों के साथ पृथक्-पृथक ढंग से पेश आता है। तनाव में जहाँ भूख उत्तेजित होती है, वहीं अवसाद में वह घटती है। दबाव की स्थिति में यदि क्षुधा बढ़ती है, तो इसका एक ही मतलब है-शिथिलता लाना और काया को अस्वाभाविकता से मुक्त बनाए रखना। चूँकि अवसाद की स्थिति में शरीर प्रायः तनावरहित होता है, अतः भूख बढ़ाकर उसे घटाने-मिटाने का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता। इसी कारण ऐसे समय में भीतर तंत्र क्षुधावर्द्धक रस उत्पन्न नहीं करते।

हाल की शोधों में भी इस तथ्य को बल मिला है कि भोजन और आवेग के बीच गहरा लगाव है। शिकागो मेडिकल कालेज के अनुसंधानकर्त्ताओं का कहना है कि डाइटिंग करने वाले लोग सामान्यजनों की तुलना में तनाव, आवेग और उत्तेजना के प्रति अधिक संवेदनशील होते है। उनके अनुसार यदि ऐसे लोग डरावने दृश्य देख लें, तो उनके संवेग में असामान्य ढंग से बढ़ोत्तरी के कारण इस मध्य उनकी आहार की मात्रा में भी आश्चर्यजनक वृद्धि होती देखी गई है। इस स्थिति में मोटापा भी बढ़ने लगता है।

एक प्रयोग के द्वारा इसकी पुष्टि हो गई। अन्वेषणकर्त्ताओं ने इसके लिए 30 महिलाओं का चयन किया। इनमें से 15 स्त्रियाँ ऐसी थी जो डाइटिंग करती थीं। इन सभी को निश्चित संख्या में कुछ सूखे खाद्य पैकेट दिए गए। इसके उपरांत उन्हें ऐसे भयोत्पादक फिल्म ‘हलोबीन’ के कुछ डरावने दृश्य दिखाए गए। आधे घंटे के पश्चात फिल्म की समाप्ति पर जब उनकी खाद्य सामग्री का लेखा-जोखा लिया गया, तो अध्ययनकर्त्ता यह देखकर विस्मय में पड़ गए कि जो महिलाएँ नियमित डाइटिंग करता थीं, उन सबने डाइटिंग नहीं करने वाले ग्रुप से दुगने परिणाम में भोजन उदरस्थ किया था।

उक्त प्रयोग से वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला कि डरावने दृश्यों से तनावजन्य आवेग में वृद्धि होती है। काया उसे अपने ढंग से सुधारने के क्रम में आँतरिक क्रियाविधि में परिवर्तन लाती है। अंतर के इस बदलाव के कारण भूख बढ़ाने वाले रसों का निर्माण होता है। इससे जठराग्नि की ज्वाला भड़कती है। क्षुधा बढ़ती है, तो बार-बार खाने की आवश्यकता महसूस होती है। यह स्थिति लंबे समय तक बने रहने पर चर्बी में अनावश्यक वृद्धि होने लगती है, जो अवाँछित मोटापे का कारण बनती है। इस वृद्धि के साथ शारीरिक कठिनाइयाँ भी बढ़ने लगती है, जिनसे व्यक्ति तब तक छुटकारा नहीं पा सकता, जब तक इसके पीछे के निमित्त को ठीक न किया जाए। देखा गया है कि भावनात्मक संवेग को लेने पर इस प्रकार की शिकायत देर तब टिकी नहीं रहती। इसलिए विशेषज्ञ इस संबंध में प्रायः यह सलाह देते देखे जाते हैं कि आवेग और उत्तेजना पर यदि अंकुश लगाया जा सका, तो एक सीमा तक मोटापे को नियंत्रित किया जा सकना संभव है।

यों चर्बी बढ़ने के कई अन्य कारण भी हैं; पर सबमें प्रमुख भावनात्मक अव्यवस्था ही है। इससे शरीर प्रणाली की सहज और स्वाभाविक क्रिया प्रभावित होती है और ऐसी कृत्रिमता का उदय होता है, जो संपूर्ण तंत्र को असहज बनाए रखती है। इस दशा में अंग-अवयव अपने निर्धारित रसायनों से हटकर दूसरे प्रकार के निर्माण में जुट जाते है, जो अंततः स्थूलता के लिए जिम्मेदार होते है।

हमारे आवेग-संवेग नियमित-नियंत्रित बने रहें, यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि हम किस परिवेश में रहते हैं और हमारी दिनचर्या क्या है? हम किस प्रकार की पुस्तकें पढ़ते और मनोरंजन के लिए कैसी फिल्में देखते हैं? यदि सब कुछ सहज-स्वाभाविक रहा, तो अचेतन पर उसका अनुकूल असर पड़ता है, जो शरीर तंत्र को सुचारु और स्वस्थ बनाए रखता है।

यह सर्वविदित है कि दृश्य-श्रव्य माध्यमों का मन पर गहरा असर पड़ता है। यह प्रभाव जिस प्रकार का और जितने अंशों में होगा, शरीर के अंग-अवयवों और क्रियाविधि में वैसी ही प्रतिक्रिया परिलक्षित होगी। कोई व्यक्ति यदि नियमित रूप से किसी मनोरम उपवन में घूमता है, जहाँ उसकी मनोदशा उत्फुल्लता से ओतप्रोत बनी रहती है, तो निश्चित रूप से इसका उसके अचेतन पर वाँछनीय और अच्छा असर पड़ेगा। इससे उसकी संवेगात्मक स्थिति संतुलित बनी रहेगी, जो उसके उत्तम स्वास्थ्य को अक्षुण्ण बनाए रखेगी। इसके विपरित यदि किसी की आँखों के सामने कोई हत्या हो रही हो, तो इससे उसके अंदर जो विक्षोभ पैदा होगा, वह शरीरतंत्र की संपूर्ण समरसता को इस प्रकार अस्त−व्यस्त बना देगा, जो सरलतापूर्वक सामान्य रूप में न आ सके। यदि उस वातावरण में ऐसी लोमहर्षक घटनाएँ और डरावने दृश्य बराबर दिखलाई पड़ते रहें तो यह स्थिति एक मानसिक अव्यवस्था को जख्म देगी, जो अंततः शारीरिक अस्वस्थता का कारण बनेगी।

पढ़ने-सुनने का भी शरीर-स्वास्थ्य पर ऐसा ही अनुकूल-प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।हम जो कुछ भी पढ़ते-सुनते हैं, हमारा मस्तिष्क उसकी कल्पना साकार रूप में करता चलता है। तदनुरूप उसकी प्रतिक्रिया भी सामने आने लगती है। कथानक यदि सुखद, सुँदर और कल्याणकारी हो तो उससे मन आनंद से भर उठता है वह बार-बार उसे ही याद करना चाहता है। इससे उन संवेगों को पोषण मिलता है, जो स्वास्थ्यकारी हैं। इसके विपरित हिंसक और डरावने कथानकों से रोंगटे खड़े होने लगते हैं। भय, चिंता, विषाद जैसी मन-स्थिति पैदा होने लगती है। इसका असर अधिक होता है। अंदर के गड़बड़ाने से बाहर का लड़खड़ाना, स्वास्थ्य का कमजोर पड़ना स्वाभाविक ही है। यही कारण है कि ऐसे अवाँछनीय पठन-श्रवण को स्वास्थ्य विज्ञान में निषिद्ध ठहराया गया है।

शरीर का मूल मन है। वह यदि असामान्य और अस्वाभाविक स्थिति में उत्तेजनाग्रस्त बना रहा, तो देह तंत्र सहज और स्वस्थ बना न रह सकेगा। संवेगों के घटने-बढ़ने के हिसाब से स्वस्थता भी प्रभावित होगी और उससे आहार की मात्रा भी अछूती न रह सकेगी। इसलिए “एकै साधे सब सधे” की उक्ति को चरितार्थ करते हुए यदि संवेगों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया गया, तो समझना चाहिए कि समग्र स्वास्थ्य की समस्वर स्थिति प्राप्त कर ली गई।


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