ध्यान धारणा की सिद्धि बना देती है कालजयी

May 2002

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योग विज्ञान में अंतरंग साधना का प्रथम चरण ‘धारणा’ कहलाता है। धारणा अर्थात् निर्धारित ध्येय में चित्त को एकाग्र करना। यह एकाग्रता अनायास ही नहीं सध जाती। मन के चंचल होने के कारण वह बार-बार विषय-वासनाओं की ओर प्रवृत्त हो जाता है। उसकी इस वृति को निरुद्ध कर मन को ध्येय वस्तु में टिका देना ही ‘धारणा’ है।

साधारण व्यक्ति और साधारण स्थिति में मन देर तक किसी एक वस्तु या विषय पर नहीं टिकता और वह यहाँ-वहाँ नाना प्रकार के भाव, विचार और वस्तु में भटकता रहता है; किंतु जब धारणा शक्ति का उदय होता है, तो मन की एकाग्रता को लंबे समय तक स्थिर रख सकना संभव होता है, यही एकाग्रता बाद में ध्यान में बदलती और अपनी सर्वोच्च भूमिका में ‘समाधि’ कहलाती है। योगदर्शन, विभूतिपाद में महर्षि पतंजलि लिखते हैं-

‘देशबंधश्चित्तस्य धारणा’

अर्थात् वृति मात्र से किसी स्थान विशेष में चित्त की स्थिरता ‘धारणा है। चित्त बाह्य विषयों को वृत्ति मात्र से ग्रहण करता है। ध्यानावस्था में जब प्रत्याहार के द्वारा इंद्रियां अंतर्मुख हो जाती है, तब भी वह अपने ध्येय विषय को वृति मात्र से ही ग्रहण करता है। वह वृति ध्येय के विषय में तदाकार होकर स्थिर रूप से भासने लगती है। अर्थात् स्थिर रूप से उसके स्वरूप को प्रकाशित करने लगती है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जब किसी स्थान विशेष में चित्त की वृति स्थिर हो जाती और तदाकार रूप होकर उसका अनुभव होने लगता है, तो वह ‘धारणा’ कहलाता है। पृथक्-पृथक् उपनिषदों में धारणा का जो स्वरूप बत’ कहलाता है। पृथक्-पृथक् उपनिषदों में धारणा का जो स्वरूप बतलाया गया है, उनमें शब्दों की भिन्नता होते हुए भी भाव की एकरूपता है। जिन उपनिषदों में योग के पंचदशाँग माने गए हैं, वहाँ तेरहवें अंग के रूप में; जहाँ योग के आठ अंग माने गए हैं, वहाँ छठे अंग के रूप में और जहाँ योग के षडंग स्वीकृत किए गए हैं, वहाँ चतुर्थ अंग के रूप में ‘धारणा’ को अंगीकार किया गया है।

त्रिशिखि ब्राह्मणोपनिषद्(2/31) में इसका स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि चित्त का निश्चली भाव होना ही ‘धारणा’ है। शरीरगत पंचमहाभूतों में मनोधारण रूप धारणा भवसागर को पार करने वाली है। दर्शनोपनिषद् (8/1/3) में धारणा का जो स्वरूप बतलाया गया है, उसके अनुसार शरीरगत पंचभूताँश बाह्य पंचभूतों की धारणा करना ही यथार्थ धारणा है। इसी में अन्यत्र (8/7-9) पुरुष अर्थात् आत्मतत्त्व में सच्चिदानंद स्वरूप सर्वशास्ता शिवतत्त्व की धारणा करने का उपदेश दिया गया है,। योगतत्त्वोपनिषद् (84-102) में शरीर के विभिन्न भागों को पृथ्वी, जल, तेज, वायु, एवं आकाश का स्थान बतलाया गया है। इनमें से प्रत्येक स्थान में पंचघटिका पर्यंत क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर एवं शिव की धारणा करने से साधक के उन-उन महाभूतों से भयमुक्त होकर खेचरत्व संपादित कर सुख प्राप्त करने का प्रतिपादन किया गया है। इसी में एक अन्य स्थान(69-72) पर कहा गया है कि पंचज्ञानेंद्रियों के विषय में आत्मा या ब्रह्म की भावना होना ही ‘धारणा’ है। तेजोबिंदूपनिषद् (1/35) के अनुसार मन के विषयों में ब्रह्मभाव की अवस्थिति होना ‘धारणा’ है। मेडलब्राह्मणोपनिषद्(1/1/6) में चैतन्य में चित्त को स्थापित करना ‘धारणा बतलाया गया है। शाँडिल्योपनिषद् (1/9) में आत्मा में मन, दहराकाश में ब्राह्माकाश तथा पंचमहाभूतों में पंचमूर्ति की धारणा का निरूपण किया गया। इस प्रकार विभिन्न उपनिषदों में धारणा का विवेचन एवं प्रतिपादन व्यापक रूप से किए जाने के कारण उसका स्वरूप अधिक स्पष्ट एवं गम्य हो गया है।

धारणा के अभ्यास में ‘देश’ और ‘बंध’- इन तत्त्वों का विशेष महत्व है। देश अर्थात् जिस वस्तु या स्थान पर चित्त को एकाग्र किया जाता है और बंध अर्थात् चित्त को अन्य विषयों से हटाकर एक ही ध्येय विषय पर वृत्तिमात्र से ठहराना-यह ‘बंध’ कहलाता है। स्थान भेद के हिसाब से ‘देश’ दो प्रकार के होते हैं-आँतरिक या आध्यात्मिक देश तथा बाह्य देश। नाभि, हृदय, कपाल,नासिकाग्र, भृकुटी, ब्रह्मरंध्र आदि आध्यात्मिक देश कहलाते हैं जबकि सूर्य चंद्र, ध्रुव, इष्ट की मूर्ति, गुरुसत्ता का चित्र आदि बाह्य देश है। इनमें से किसी एक स्थान या वस्तु पर जब चित्त स्थिर होता है, तो वास्तव में उसे वायु की स्थिरता ही समझनी चाहिए। ऐसा दीर्घकाल तक प्राणायाम आदि का अभ्यास करते रहने से स्वतः हो जाता है। नाभि आदि स्थानों में जब वायु की स्थिरता हो जाती है, तो साधक धीरे-धीरे एकाग्रचित्तता की स्थिति प्राप्त कर लेता है और दृढ़भूमि हो जाता है। इसके बाद अभ्यासी जिस भी स्थान पर वायु का निरोध करना चाहता है, कर लेता है। इस स्थिति में वहाँ पर प्राणापानादि के विकार दूर हो जाते है, फलतः दिव्यशक्ति का उदय होता है।

योगतत्त्वोपनिषद् (73-76) में शरीर के भिन्न-भिन्न केन्द्रों पर संयम करने से उद्भूत होने वाली शक्ति का विस्तार से उल्लेख किया गया है। नाभिचक्र में संयम करने वालों की जठराग्नि में सूक्ष्मता और विशेष बल आ जाता है, जिसका प्रभाव संपूर्ण शरीर पर पड़ता है। जठराग्नि, शरीरगत सभी के पाचन, परिवर्तन और परिवर्द्धन के लिए उत्तरदायी है। वह सभी क्रियाओं, संस्थानों एवं अवयवों की नियंत्रक, पोषक तथा धारक है। वह शरीर के सूक्ष्मतम अणु अंश को अपने तेज और पाकादि क्रिया से प्रभावित करती है। उसमें सूक्ष्मता और विशेष बल संपन्नता आ जाने से संपूर्ण पाचन संस्थान में एक अभूतपूर्व परिवर्तन हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप योगी के शरीर में किसी प्रकार की विकृति या व्याधि उत्पन्न नहीं होती है। उसकी भूख और प्यास नियंत्रित हो जाती है, जिससे कई-कई दिनों तक योगी यदि आहार ग्रहण न करें, तब भी उसके शरीर पर कोई प्रतिकूल नहीं पड़ता है।

जठराग्नि के दिव्य प्रभाव से योगी के शरीर में आद्य रस-धातु का निर्माण तीव्रता से होता है तथा मलमूत्र का निर्माण अल्प मात्रा में निर्गंध संयत रूप में होता है। योगी के शरीर में धातु साम्य रहने से रोगादि विकार उत्पन्न नहीं होते, जिससे अंग-प्रत्यंगों में स्फूर्ति, उत्साह और क्रियाशीलता बनी रहती है।

कपाल में संयम करने अर्थात् धारणा करने पर धी-धृति-स्मृति(बुद्धि-धैर्य-स्मरणशक्ति) अत्यंत सूक्ष्म हो जाती है, जिससे योगी गहनता, सूक्ष्मता, गंभीरतम और दुर्बोध विषयों को ग्रहण, धारण और स्मरण रखने की अपूर्व सामर्थ्य वाला हो जाता है। फिर उसके लिए कोई भी विषय अगम्य नहीं रह जाता।

नासिकाग्र में संयम से ‘दिवय गंध’ और जिह्वा के अग्र भाग में संयम से ‘दिव्य रस’ की अनुभूति होती है। कंठकूप में संयम करने से क्षुधा-तृषा आदि विकार भावों पर नियंत्रण एवं विजय प्राप्त होती है। योगी को वायु के द्वारा ही उत्तमोत्तम रसास्वादन होता रहता है, जिससे उसे भूख-प्यास का अनुभव नहीं होता। हृदय कमल में संयम करने पर योगी स्फटिक मणि की भाँति निर्मल और स्वच्छ हो जाता है। चित्त में स्थिरता एवं प्रसन्नता बनी रहती है। उसका हृदय या मन विकारों में लिप्त नहीं होता । उसमें रज और तम गुण का अभाव हो जाता है तथा एकमात्र शुद्ध सात्विक भाव विद्यमान रहता है। त्वचा पर संयम करने पर शीत-उष्णता का अनुभव नहीं होता। यही कारण है कि योगी बरफीले प्रदेशों में भी किसी प्रकार की कष्ट-कठिनाई का अनुभव नहीं करते और आराम से वहाँ लंबे समय तक बने रहते हैं। ऐसे ही अतिशय गरम क्षेत्रों में भी उन्हें तनिक भी असुविधा महसूस नहीं होती। आँखों में चित्त को स्थिर करने पर साधक में दिव्य दृष्टि का विकास होता है। फिर उसके समक्ष सब कुछ ‘हस्तामलकवत्’ भासने लगता है। कोई व्यक्ति अथवा काल वहाँ आगे और आवृत नहीं रह पाता; वह त्रिकालज्ञ बन जाता है।

इसी प्रकार कर्णेंद्रियों पर धारणा सिद्ध होने से वहाँ दिव्य श्रवणशक्ति का प्रादुर्भाव होता है। सामान्यतः मानवी कर्ण निश्चित सीमा वाली स्थूल ध्वनियों को ही सुनने की सामर्थ्य रखते हैं उस सीमा से आगे और पीछे की स्थूल तरंगें भी उसकी ग्रहण क्षमता से परे होती है। ऐसे में जब साधक उनमें संयम साधता है, तो न सिर्फ संपूर्ण स्थूल ध्वनियाँ कर्णगोचर बनती हैं, वरन् अंतरिक्ष में प्रवाहित होने वाले कितने ही प्रकार के दिव्य नाद एवं दिव्य संदेश श्रव्य बनकर प्रकट होने लगते है। मूर्धा में जब चित्त की एकाग्रता सधती है, तो वहाँ पर दिव्य वाक्शक्ति का आविर्भाव होता है। यह वाक् वाणी का परिष्कृत रूप है। साधारण वाणी की क्षमता साँसारिक कार्यों तक ही सीमित होती है। उससे आदेश-निर्देश के सामान्य क्रियाकलापों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं सधता। कई बार तो सामने वाला उसकी आज्ञा की उपेक्षा तक कर जाता है और वह विवश अपनी असमर्थता को कोसती रह जाती है; किंतु जब वहाँ संयम से वाक्शक्ति का प्रकटीकरण होता है, तो उसमें असाधारण बल आ जाता है; दूसरों को प्रभावित करने की क्षमता से वह संपन्न बन जाती है। फिर सामने वाला उसके आदेशों की उपेक्षा नहीं कर पाता और कठपुतली की तरह उन्हें मानने एवं पूरा करने के लिए बाध्य हो जाता है। इसके साथ ही उसमें श्राप-वरदान देने की दिव्य शक्ति आ जाती है। इसी प्रकार दिव्य चेष्टा, दिव्य बल, दिव्य गति, दिव्य क्रिया, दिव्य प्रवृत्ति जैसी कितनी ही विभूतियों का विकास भिन्न-भिन्न देह-केन्द्रों पर धारणा साधने से होता है। योगतत्त्वोपनिषद्(103-104) में पाँच प्रकार की धारणा का फल बतलाते हुए कहा गया है कि पंचविध धारणा की सिद्धि से योगी से दृढ़ शरीर वाला एवं मृत्युँजयी हो जाता है।

धारणा अष्टाँग योग का छठा पाद है। उसकी सिद्धि विभिन्न प्रकार की शारीरिक, मानसिक एवं अलौकिक उपलब्धियों का कारण बनती है। जो साधक इनके आकर्षणों में उलझ जाते है, वे चरम लक्ष्य के अपने वास्तविक प्रयोजन को भूलकर दिग्भ्रमित हो जाते है। यही कारण है कि इस पथ के विवेक वान पथिक सदैव इस स्थिति से बचते और एकनिष्ठ भाव से अपनी मंजिल की ओर आगे बढ़ते चलते हैं।


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