सूर्य ने अपना रथ पश्चिम दिशा की ओर मोड़ लिया था। सूर्य के इस तरह पीठ मोड़ते ही आँगन की धूप भी धीरे-धीरे खिसकने और सिमटने लगी थी। गुरुदेव अपने इस आँगन में बिछी हुई फोल्डिंग चारपाई पर बैठे हुए थे। अभी थोड़े ही पलों पूर्व उन्होंने नीचे खबर करवाई थी कि सभी वरिष्ठ कार्यकर्त्ताओं की गोष्ठी लेना है। गुरुदेव द्वारा ली जाने वाली इन गोष्ठियों का अपने समय में बड़ा आकर्षण था। सबसे पहले तो उनका संग सुपास सभी को भाता था। गोस्वामी जी महाराज ने कहा है- ‘एक घड़ी, आधी घड़ी, आधी ते पुनि आध। तुलसी संगत साधु की हरै कोटि अपराध॥’ अर्थात् साधु पुरुषों का संग-सुपास आधी, चौथाई घड़ी मिलने पर जीवन के करोड़ों पापों-अपराधों का शमन हो जाता है।
परम पूज्य गुरुदेव तो साधु पुरुषों में शिरोमणि, महासिद्ध, तपोमूर्ति और ज्ञान का साक्षात् स्वरूप साकार वेदमूर्ति थे। भगवान् ने भगवद्गीता में कहा है कि विद्याओं में मैं अध्यात्म विद्या हूँ। गुरुदेव तो अध्यात्म विद्या के रूप में स्वयं भगवान् थे। उनका लेशमात्र सान्निध्य भी आत्मा में अपरिमित सुख उपजाने वाला था। उनके द्वारा ली जाने वाली गोष्ठियाँ दरअसल उनकी अहैतुकी कृपा का ही एक रूप थी। जो जब-तब अनायास होती रहती थी। सूक्ष्मीकरण साधना के बाद से गुरुदेव के काम करने में प्रतिपल एक तेजी दिखाई देती थी। शायद वे मिशन के वर्तमान को बड़ी तेजी से भविष्य के लिए गढ़ रहे थे। उनके द्वारा ली जाने वाली ये गोष्ठियाँ उनकी इस प्रक्रिया का एक माध्यम भर थी।
गुरुदेव ने बुलाया है सुनकर शान्तिकुञ्ज के वरिष्ठगण एक-एक करके सीढ़ियाँ चढ़ते हुए ऊपर पहुँच गए। ऊपर वाले आँगन में गुरुदेव की चारपाई के सामने एक बड़ा सा टाट का टुकड़ा बिछा हुआ था। सभी ने पहले गुरुदेव के चरणों में माथा नवाकर भक्ति पूर्ण रीति से प्रणाम किया। फिर सब शान्तभाव से बैठ गए। सबकी जिज्ञासा थी, गुरुजी आज क्या कहेंगे, क्या बतायेंगे। सबकी उत्सुकता तीव्र हो रही थी, गुरुदेव की बातें सुनने की त्वरा बढ़ रही थी।
तभी गुरुदेव, समय एक भी पल गवाँए बिना बोले, लड़कों, मैंने तुम सबको कुछ जरूरी बातें बताने के लिए बुलाया है। गुरुदेव के इस तरह बात शुरू करते ही सबके कान उनके शब्दों पर जा टिके। वह कह रहे थे- बेटा, अपना मिशन जिस बीज से जन्मा है, वह अध्यात्म है। अध्यात्म से ही इसका जन्म हुआ और आध्यात्मिक शक्तियों ने ही इसे पाल-पोष कर बड़ा किया है। अभी यह और भी बढ़ेगा, बहुत बढ़ेगा, बहुत ज्यादा बढ़ेगा। सच तो यह है कि तुम लोग देखोगे कि इसका विस्तार कभी रुकेगा ही नहीं। यह बढ़ता ही रहेगा, बढ़ता ही चला जाएगा।
इसके इस तरह बढ़ने में तुम लोगों का भी योगदान है। तुम सबने भी इसमें अपना खून-पसीना लगाया है। लेकिन बेटा तुम लोगों की मेहनत अगर इसमें दस पैसे है तो बाकी नब्बे पैसे अध्यात्म है। हमने जिन्दगी में जो कुछ भी पाया इसी आध्यात्म के सहारे पाया। अध्यात्म का साधक बनकर पाया। यदि हमने साधना की होती, अध्यात्म के लिए अपना सर्वस्व न लुटाया होता, हम साधक न बने होते, तो फिर आज तुम लोग यह सब जो कुछ भी देख रहे हो, वैसा कुछ भी न होता। न तुम लोग हमें गुरुजी कहते और हम तुम लोगों की नौकरियाँ छुड़ाकर, तुम्हारे घरों से दूर यहाँ तक ला पाए होते। तुम्हारे जीवन में, हमारे जीवन में जो कुछ अचरज घटा है, वह सब अध्यात्म के कारण है। हमारे साधक होने की वजह से है।
अपनी बातें कहते-कहते गुरुदेव रुके। एक पल को उनकी वाणी का अमृत प्रवाह थमा। सुन रहे सारे लोग शान्त, मौन और एकाग्र थे। सबके हृदयों में अपने गुरुदेव के प्रति श्रद्धा सघन से सघनतर सघनतम होती जा रही थी। सभी अपने सद्गुरु के वचनों में निमग्न हो रहे थे। गुरुदेव शायद इस पल उनकी इस एकाग्रता को जाँचने-परखने के लिए रुके थे। सम्भवतः वह यह सच्चाई जान लेना चाहते थे कि अब वह जो गम्भीर बात बताने जा रहे हैं, उसे सुनने के लिए ये लोग तत्पर हैं भी या नहीं। सभी की तत्परता-एकाग्रता एकदम खरी थी।
गुरुदेव की अमृतवाणी का प्रवाह फिर से वेगपूर्ण हो उठा। वह कहने लगे- बेटा, मैं साधक पहले हूँ, बाकी सब बाद में। मेरी जिन्दगी में लिखना, पढ़ना, सेवा, संगठन से सारी बातें बाद में आयीं। सबसे पहले साधना आयी। ये सब जो कुछ भी दिख रहा है, वे फूल-पत्ते हैं। सबकी जड़ तो साधना है। बेटा, मथुरा के अखण्ड ज्योति संस्थान में जो 9&9 की कोठरी है, वहीं पर मैंने सब कुछ देख समझ लिया था। वहीं पर उसी कोठरी में साधना करते हुए मैंने मिशन का आज का वर्तमान और आगे का भविष्य देखा था। अपने साधनाकाल में ध्यान करते हुए मैंने शान्तिकुञ्ज देखा था, तुम सबको देखा था। आगे जो लोग आएँगे, शान्तिकुञ्ज का जो भावी विस्तार होना है, वह भी मैंने उसी छोटी सी कोठरी में ध्यान करते हुए देख लिया था।
मुझसे कुछ छुपा थोड़े ही है। मैं सब जानता हूँ। मिशन में जो कुछ भी आगे होना है, जो घटनाएँ आगे घटेगी, मुझे सबका ज्ञान है। अभी तो मैं हूँ, आगे मैं नहीं रहूँगा, तब काफी उथल-पुथल होगी। कुछ लोग जाएँगे, कुछ नए लोग आएँगे। मैं तो चाहता हूँ कि तुम सब लोग रहो। पर बेटा, समय की तेज हलचलों में टिकने के लिए साधना का बल चाहिए। तुम लोग अपने अन्दर यही बल पैदा करो। एक बात मैं और बताए देता हूँ, तुममें से कोई यह न समझ ले कि उल्टी-सीधी माला टरकाने से साधना हो जाती है। यह न समझना कि बैठे रहकर नाक दबाने का नाम साधना है।
ये सारे कर्मकाण्ड तो साधना का खोल है। इसका प्राण तो पवित्रता और प्रामाणिकता है। अपनी जीवात्मा को धोने से साधना होती है। अपने गुरु की नजर में, अपनी आत्मा के सामने और भगवान के सामने एकदम सौ फीसदी खरा साबित होने का नाम साधना है। तुम लोग यह कर सको, तो करो। रोज अपनी चीर-फाड़ करो, अपनी कमियों-कमजोरियों को ढूंढ़ो और और उन्हें निकाल बाहर करो। जो अपने प्रति जितना कठोर होता है, वह उतना ही अच्छा साधक बन पाता है। अपनी बुराइयों, अपने अहंकार के प्रति घोर निर्ममता का नाम साधना है। यही साधना हमने की है, यही तुमको बता रहे हैं।
साधना का रहस्य समझा रहे गुरुदेव के मुख मण्डल पर तपस्या की प्रखरता एवं प्रभा झलक रही थी। उनके मस्तक पर सदा विद्यमान रहने वाले चन्द्रकार निशान इस समय और अधिक स्पष्ट हो आया था। उनकी वाणी से शब्द नहीं उनका प्राण बरस रहा था। सभी सुनने वाले मौन थे। शायद यह मौन उन्हें अन्दर ही अन्दर कुरेद रहा था। धूप अभी आँगन के काने से चिपकी, सहमी और ठीठकी खड़ी थी। सूर्यदेव अभी तिरोहित नहीं हुए थे। वह भी पश्चिम के दरवाजे पर थोड़ी देर के लिए रुक गए थे। उनकी सभी रश्मियाँ उन्हीं की तरह, उनको घेरे झुण्ड बनाए खड़ी थी। सबके-सब आज के दिन की अन्तिम विदा लेने से पहले इस दृश्य को भली प्रकार निहार लेना चाहते थे। परम पूज्य गुरुदेव की वाणी को सुनने की ललक शायद इन्हें भी थी।
गुरुदेव कह रहे थे, बेटा तुम लोग मेरे लिए कुछ कर सकते हो, तो अपने में पवित्रता और प्रामाणिकता पैदा करो। इस साधना से तुमको हमारा प्यार मिलेगा, भगवान का प्यार मिलेगा। और उन सब ऋषियों-मुनियों, हिमालय वासी देवात्माओं का आशीर्वाद मिलेगा, जिनके तप से यह मिशन चल रहा है। इन शब्दों के साथ गुरुदेव ने उस दिन अपनी वाणी को विराम दे दिया। गोष्ठी के पल बीत गए। पर कुछ ऐसा भी था, जो नहीं बीता न उस दिन और न आज के दिन। वह है साधना का कर्त्तव्य, जो उन्होंने उस दिन बताया था। इसे पूरा करके ही हम उनके अपने हो सकते हैं।