जीवन जीने के के लिए मिला है, मरने के लिए नहीं

May 2002

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मनुष्य की जिजीविषा साधारणतया अदम्य मानी जाती है। हम जीवित रहना चाहते हैं और जीवन को प्यार करते है। उसकी सुरक्षा के लिए तरह-तरह के साधन जुटाते है। मरण से सबका भय लगता है। प्राण-संकट की घड़ी आने पर पशु-पक्षी तक सब कुछ कर गुजरने पर उतारू हो जाते है। आत्मरक्षा के प्रयत्नों में सृष्टि के प्रत्येक प्राणी को संलग्न देखा जा सकता है। इससे प्रतीत होता है। कि न केवल मनुष्य, वरन् हर एक जीवधारी जीवन-संपदा को सुरक्षित रखने के लिए अपनी सूझबूझ और स्थिति के अनुसार हर संभव उपाय करता है। इतने पर भी मनुष्य न जाने क्यों उसे गँवाने और आत्मघात करने पर कटिबद्ध हो जाते है ! इसे उलझन की परिणिता नहीं, मानसिक अस्वस्थता और अस्थिरता का परिणाम माना जाना चाहिए।

जीवन जटिल है। , यह सत्य है। यदि वह एकदम सरल होता, उसमें कष्ट-कठिनाइयाँ और मुसीबतें नहीं होतीं, तो शायद वह उतना सरस, सुँदर और सुखद नहीं रह पाता, जितना कि वह है। एकरसता का बोझ दीर्घकाल तक ढोते रहने से वह इतना उत्साहहीन बन गया होता कि उसे और आगे खींच ले सकने की उमंग शेष न बचती और येन-केन- प्रकारेण व्यक्ति उससे छुटकारा पाने एवं जीवन को त्यागने का विचार करता। इसे मनुष्य का सौभाग्य ही कहना चाहिए कि परमात्मा ने उसके जीवन को सरल नहीं रहने दिया, फलतः जीवन संघर्ष का तत्त्व उसमें आ जुड़ा जिसमें आदमी विभिन्न प्रकार की प्रिय-अप्रिय परिस्थितियाँ का सामना करते हुए चरम लक्ष्य तक पहुँच सके। यह विधान हर मनुष्य के लिए है। प्रत्येक को इसमें से होकर गुजरना पड़ता है, फिर किसी के लिए वहीं परिस्थितियाँ असह्य क्यों हो उठती हैं कि उसे आत्महत्या करनी पड़े! जबकि असंख्य लोग उन्हीं जटिलताओं में संतोषपूर्वक जीते और सुखपूर्वक दिन गुजारने है।

गंभीरतापूर्वक विचार करने से ज्ञात होता है कि यह परिस्थिति नहीं, मनःस्थिति है, जो व्यक्ति को आघात करने की करुणा देती और इस बहुमूल्य जीवन में कुछ कर गुजरने के अवसर को एक झटके में छीन लेती है। अस्वस्थ मनःस्थिति जहाँ कहीं भी होगी, उसका परिणाम आत्महत्या जैसा अवाँछनीय होगा। इस अवाँछनीय का संबंध भौतिकता से भी हैं। देखा गया है कि जो राष्ट्र भौतिक दृष्टि से समृद्ध हैं, वहाँ मानसिक अस्वस्थता, कम विकसित देशों में आत्महत्या का अनुपात भी ज्यादा भी ज्यादा होता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिर्पोट के अनुसार प्रति एक लाख में 45.9 व्यक्ति अमेरिका में, 35.11 व्यक्ति डेनमार्क में, 33.99 व्यक्ति इंग्लैंड में, 33.72 व्यक्ति स्विट्जरलैंड में, 23.35 व्यक्ति फिनलैंड में, 2.73 व्यक्ति स्वीडन में, 19.26 व्यक्ति फ्राँस में, 15.3 व्यक्ति आस्ट्रेलिया में तथा 13.37 व्यक्ति कनाडा में आत्महत्या करते है।

एमाइल डर्कहीम अपनी पुस्तक ‘ली स्यूसाइड’ से लिखते हैं कि बीसवीं सदी में जितनी आत्महत्याएँ हुई है, उतनी संसार में इससे पूर्व नहीं हुई। वे इस बात को स्वीकारते हैं कि आत्महत्या का सीधा संबंध मानवी विकास जैसे-जैसे होता गया, मानवी जटिलताएं भी बढ़ती गई। आज जबकि वह विकास अपने चरम पर हैं, तो उससे जुड़ी हुई समस्याएँ भी उजागर हुई है। उनके अनुसार इन दिनों के सभ्य समाज की सबसे बड़ी कठिनाई मानसिक अस्वस्थता की है। यह अस्वस्थता ही आत्महत्या जैसे कठोर निर्णय का कारण बनती है। वे कहते हैं कि जंगली कबीलों में रहने वाले वनवासी चूँकि सभ्य समाज से दूर रहते हैं, इसलिए उनमें किसी प्रकार के मानसिक रोग नहीं पाए जाते, फलतः आत्मघात जैसे मामले भी उन समुदायों में कभी प्रकाश में नहीं आते।

ऐसी बात नहीं कि साधारण पढ़ा-लिखा और सामान्य स्तर का नागरिक ही अपघात करता है। कई बार विद्वान और ज्ञानवान समझे जाने वाले लोग भी इस कुकृत्य के शिकार हो जाते हैं इनमें विश्वप्रसिद्ध साहित्यकार, संगीतकार से लेकर राजनेता और वैज्ञानिक तक सम्मिलित है।

जर्मन विद्वान् गेटे ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि वे आत्महत्या करना चाहते थे, इसलिए एक धारदार चाकू बाजार से खरीद लाएं बहुत दिनों तक वे उसे तकिए के नीचे रखे रहे; पर हिम्मत नहीं जुटा सके। अंततः अपघात का विचार त्याग दिया। वायरन जिन दिनों ‘चाइल्ड हेराल्ड’ के लेखन में व्यस्त थे उन दिनों अक्सर उन पर आत्महत्या की सनक तैयार रहती; पर माँ का प्यार कर वे पैसा न कर सके।

यूनान के महान् दार्शनिक डायोजिनीज अपने हाथों फाँसी लगाकर मरे थे। ‘मृच्छकटिक’ के लेखक शूद्रक आग में जल मरे थे। वे ‘जानकी हरण’ महाकाव्य के रचनाकार सिंहल देश के राजा की मृत्यु का शोक न सह सके और चिंता में जल मरे। चीनी साहित्यकार लाओत्से ने भी अपनी मौत स्वयं बुलाई थी। लैटिन कवि एम्पेदोक्लीज ने ज्वालामुखी में कूदकर आत्मघात किया था। महाकवि चैटररन ने दरिद्रता से पीछा छुड़ाने के लिए विषपान करना उचित समझा। गोर्की ने पेट में पिस्तौल चलाकर उसे विदीर्ण कर डाला। आस्ट्रियाई साहित्यकार स्टीफन ज्विग अपनी मौत का कारण बताते हुए अपने पीछे एक पुर्जा छोड़ गये थे, ‘अब संघर्षों से टकराने की मेरी शक्ति चुक गई हैं अशक्त जीवन का अंत कर लेना मुझे अधिक अच्छा जँचा।’

चित्रकार लाडत्रे ने अस्पताल की चारपाई पर पड़े-पड़े ही स्वयं को गोली मार ली। एक अन्य चित्रकार बानगाँग ने भी अपना अंत ऐसे ही किया। राबर्ट क्लाइव अपने जीवन में तीन बार बच गए। बाद में एक अनजाने व्यक्ति की राइफल की गोली से मारे गए। मूर्द्धन्यों में भी ऐसे कम नहीं है, जिनने तनिक-सी परेशानी से उद्विग्न होकर आत्मघात कर लिया हों। ऐसे लोगों में सेफो, डेमोस्थनीज, ब्रुटस, केसियस, डेमोक्लीज, हनीवाल, बर्टन, आर्थर कोयेसलर जैसे विश्वप्रसिद्ध व्यक्तित्व सम्मिलित हैं।

आत्महत्या के तरीकों में अगणित प्रकार के उपाय अपनाए जाते रहे हैं। इनमें पानी में डूब मरना, ऊंचाई से कूदना, विषपान करना, नस काटकर संपूर्ण रक्त को धीरे-धीरे निकाल देना आदि अधिक प्रचलित हैं। एक दुःख को हलका में करने के लिए दूसरा उससे बड़ा दुख मोल लेना भी एक उपाय सोचा जाता रहा है, यद्यपि वह इच्छित लाभ प्राप्त करने में तनिक भी सहायक नहीं होता। अताई इलाज में एक उपचार यह भी था कि के पेट में दर्द हो, तो लोहे की गरम सलाख से उसकी छाती दाग दी जाएं इससे जलने का कष्ट इतना बढ़ जाता है कि रोगी पेट दर्द की बात भूल जाता है। लगभग इसी स्तर का दुस्साहस यह है कि अमुक चिंता अथवा आपत्ति को अपना लिया जाए।

जिस प्रकार शरीर में अनेक प्रकार के घातक विषाणु प्रवेश करके विविध लक्षणों वाले रोग उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार मनःक्षेत्र में भी इसी तरह की कई विकृतियाँ अपनी जड़े लेती है और परिपूर्ण उन्माद न सही उससे मिलते-जुलते ही विघातक मानसिक रोग उत्पन्न करती है।

डिमेंशिया प्रिकोक्स अर्थात् किशोरावस्था की हिंसात्मक सनक, डिमेंशिया पैरालिटिख अर्थात् आवेश का सामयिक दौरा, मेलनकोलिया अर्थात् अवसादग्रस्तता, न्यूरस्थेनिया अर्थात् स्नायविक असंतुलन जैसी कितनी ही विकृत मनःस्थितियाँ ऐसी हैं जो विवेक को अस्त-व्यस्त करके रख देती है और समयानुसार जो भी उभार आता है, उसी में मस्तिष्क इतनी तीव्र गति से बहता चला जाता है, जिसमें अपने को सँभाल सकना कठिन पड़ता है।

प्राचीनकाल में आत्मघात को धार्मिक प्रशंसा प्रदान करने का भी प्रचलन रहा है। संन्यासियों की स्वाभाविक मृत्यु की अपेक्षा स्वेच्छा मरण की सराहना की गई है। बौद्ध और जैन धर्मों में भी मृत्यु संबंधी ऐसे विधानों का उल्लेख उनके धर्मग्रंथों में मिलता हैं। पाँडवों का स्वर्गारोहण, मंडन मिश्र का तुषाग्नि संदाह, ज्ञानेश्वर की जीवित समाधि, रामतीर्थ की जल समाधि, कुमारिल भट्ट का आत्मघाती प्रायश्चित्त विधान, हाड़ा रानी द्वारा अपना ही शिरोच्छेदन जैसी अनेकानेक घटनाएँ इतिहास के पृष्ठों पर अंकित हैं, जिन्हें सराहा ही जाता है। चित्तौड़ की रानियों का सामूहिक आत्मदाह (जौहर) और सतीप्रथा ऐसे कृत्य हैं, जिन्हें महिमामंडित किया जाता रहा है।

उपर्युक्त घटनाएँ कुछ विशेष परिस्थितियों में किन्हीं विशेष उद्देश्य को लेकर घटित हुई, अतः वह साधारण नहीं, असाधारण कहीं जाएँगी। सबके पीछे तो नहीं; पर कुछ के पीछे ऊँचा आदर्श और महान् उद्देश्य था, इसलिए आत्महत्या जैसी लगने वाली ये घटनाएँ भी तब सराही गई। आज उनकी लकीर पीटना और परंपरा का स्वरूप देना किसी भी प्रकार की समझदारी नहीं कही जाएगी। छोटी-छोटी बातों पर अथवा राजनैतिक माँगों पर मनवाने के लिए आत्मदाह कर लेना, पति के उपरांत पत्नी को जिंदा जलने के लिए विवश करना, जल समाधि लेना सभ्य जन और सभ्य समाज का लक्षण नहीं, अपितु असभ्यता का चिह्न कहना चाहिए। इसके पीछे भारत की मूल संस्कृति नहीं वरन् सामयिक विचार विकृति ही कारणभूत मानी जाएगी।

आत्महत्या को भी दूसरे की हत्या के समान ही गर्हित कर्म माना जाता है। दूसरे देशों में पुराने से इसे बहुत बुरा कहा जाता था और मरने के उपराँत भी यह कृत्य करने वाले की भर्त्सना की जाती थी। यूरोप में उन दिनों आत्महत्या करने वाले के प्रति बहुत अनुदान दृष्टिकोण था। उनकी लाशें सड़कों के आस-पास कूड़े के ढेर में दबा दी जाती और उसके आगे भयंकर आकृतियाँ खड़ी कर दी जाती थीं, ताकि मरने वाले की निंदा हो और जो ऐसा करना चाहते हों, वे हतोत्साहित हों। इस प्रचलन को बदलने में डेविड ह्यम, वाल्टेयर, रूसो जैसे दार्शनिकों ने आवाज उठाई। अंततः उसे समाप्त करवा दिया। इसके पीछे उनका तर्क था कि आदमी को जीने की तरह मरने की भी आजादी होनी चाहिए।

कुरान में दूसरों की हत्या से भी अधिक जघन्य पाप आत्महत्या को बताया है। यहूदी धर्म में इस निंदनीय कर्म को करने वाले के लिए शोक मनाने और उसकी आत्मा की शाँति के लिए प्रार्थना करने का निषेध है। ईसाई धर्म में भी इसे घृणित पातक बताया गया है। 11 वीं सदी में इंग्लैंड में एक कानून बना था, जिसमें आत्महत्या करने वालों की संपत्ति जब्त कर ली जाती थी और उसके शव को किसी ईसाई कब्रिस्तान में धार्मिक विधि से दफनाया नहीं जा सकता था।

आत्महत्या का प्रयत्न करने वालों को रोगी माना जाए या अपराधी? इस प्रश्न पर आज भी मनः शास्त्रियों, मानवविज्ञानियों और विधिवेत्ताओं की दलील है कि यदि हम किसी को दारुण वेदनाओं से मुक्ति नहीं दिला सकते, तो उसे ऐसी मौत मरने का अधिकार होना चाहिए, जिसमें वह पीड़ा झेलने की अपेक्षा राहत पा सके। नृतत्त्ववेत्ता मध्यवर्ती मार्ग अपनाते हुए उन्हें करुणा का पात्र घोषित करते हैं और ‘यूथेनेसिया’ के नाम पर उन पर सहानुभूति प्रकट करते हुए समाज को उनकी समस्याओं को हल करने का सुझाव देते हैं।

शोध-अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि जिन-जिन देशों में आत्मघात की दर उच्च है, वहाँ-वहाँ मद्यपियों की संख्या भी उसी अनुपात में ज्यादा है। अनुसंधानकर्त्ताओं का कहना है कि अमेरिका, स्विट्जरलैंड, स्वीडन, डेनमार्क एवं फ्राँस में विश्व की सर्वाधिक आत्महत्याएँ होती हैं और मद्यपान की लत वहाँ उसी अनुपात में देखी गई है। इससे यह स्पष्ट है कि आत्महत्या का कारण शारीरिक कम, मानसिक अधिक है।

एरिक फ्रॉम अपनी पुस्तक ‘दि सेन सोसायटी’ में एक स्थान पर लिखते हैं कि यूरोप के सबसे अधिक शाँत, समृद्ध और लोकताँत्रिक कहे जाने वाले राष्ट्रों एवं विश्व के सर्वाधिक संपन्न देश अमेरिका की मानसिक स्वस्थता के क्षेत्र में जो वर्तमान अवस्था है, उसे दयनीय ही करना चाहिए। वे लिखते हैं कि इन राष्ट्रों का संपूर्ण सामाजिक, आर्थिक उन्नयन का इतना ही प्रयोजन है कि उनका भौतिक जीवन सुखमय हो, सभी संपत्तिवान हों, स्थित लोकताँत्रिक व्यवस्था हो और वह शाँतिपूर्ण हो। वे कहते हैं कि जिन देशों ने इस लक्ष्य को प्राप्त कर लिया अथवा जो इसकी प्राप्ति के सन्निकट पहुँच गए, वहाँ मानसिक असंतुलन की गंभीर समस्याएँ उठ खड़ी हुई हैं।

एरिक फ्रॉम के इस निष्कर्ष से स्पष्ट है कि आत्महत्या के मूल में संव्याप्त मानसिक असंतुलन का सबसे प्रमुख कारण समृद्धि है। संभवतः इसी करण से अध्यात्मवादी चिंतन में धनोपार्जन की छूट तो है; पर धन-संग्रह पर रोक लगाई गई है। यदि यह बात सही है कि वर्तमान मानसिक अस्वस्थता की जड़ में संपदा की प्रधान भूमिका है, तो अर्थवेत्ताओं, नृतत्त्वविज्ञानियों और समाजशास्त्रियों को मिल-जुलकर कोई ऐसा हल वर्तमान संदर्भ में ढूँढ़ना चाहिए, जिससे समाज भी संपन्न बना रहे और मनुष्य भी मानसिक दृष्टि से विपन्न नहीं कहलाए।

यह भी एक तथ्य है कि अर्थ के साथ-साथ समाज की अवाँछनीय परिस्थितियाँ भी मनुष्य को विक्षुब्ध करती हैं। स्नेह-सौजन्य का अभाव, नैतिकता का गिरा स्तर, शोषण उत्पीड़न, ठगी, विश्वासघात, बेकारी, हानि, बरबादी जैसे कितने ही कारण मानव को दुःखी बनाते हैं। सामाजिक कुरीतियों के कुचक्र में कितनों को ही पिसना है। इन प्रचलनों को बंद करना सरकार और समाज का काम है। समाज की संरचना ऐसी हो, जिसमें हर व्यक्ति को निर्वाह, प्रगति और सुरक्षा के समुचित साधन प्राप्त हों; कोई किसी के भी साथ अन्याय और अनीति नहीं बरत सके। इसके अतिरिक्त एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य यह भी होना चाहिए कि स्वास्थ्य-रक्षा और अर्थ-उपार्जन की तरह ही चिंतन तंत्र का सही उपयोग कर सकने की क्षमता भी सर्वसाधारण में उत्पन्न की जाए। इसके लिए मानसिक प्रशिक्षण की एक समर्थ प्रणाली खड़ी की जानी चाहिए। इसके बिना आत्महत्या जैसे व्यापक संकट उत्पन्न करने वाले मनोरोगों का भड़काया हुआ दावानल रोका न जा सकेगा।

जीवन जीने के लिए हम सबको मिला है, मरने के लिए नहीं-यह तथ्य हर स्थिति में याद रखा जाना चाहिए। अनेकानेक योनियों में भटककर मानव योनि में जीव जब आता है, तो इसलिए कि कर्म करते हुए अपनी मुक्ति का पथ प्रशस्त कर ले; किंतु विक्षुब्ध मनः स्थिति में प्रेत-सा जीवन जीते हुए आत्मघाती प्रवृत्ति की ओर उन्मुख होना उसे कदापि शोभा नहीं देता। स्रष्टा के राजकुमार के रूप में मनुष्य को जो पदवी मिली है, उसका तिरस्कार न कर जीवन चुनौती के रूप में, खिलाड़ी की तरह जिया जाए, तो हँसते-हँसते, पुण्य कमाते औरों की सेवा कर संतोष प्राप्त करते हुए यह जीवन जिया जा सकता है, इसमें काई संदेह नहीं।


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