उन दिनों शिक्षार्थी विद्याशुल्क जमा नहीं करते थे, पर साथ ही इतने कृतघ्न भी नहीं थे कि जिस आश्रम में लंबी अवधि तक रहकर ज्ञान और निर्वाह प्राप्त किया, वे उसका ऋण न चुकाते। लौटने पर छात्र गुरुकुल का स्मरण रखते और अपनी कमाई का अंश नियमित रूप से भेजते। शिक्षासत्र पूर्ण होने पर शिष्य गुरु से उनकी आवश्यकताएँ पूछते और उनकी पूर्ति का संकल्प लेकर वापस लौटते। उस दिन विरजानंद के गुरुकुल से विद्याध्ययन के उपराँत दयानंद चलने लगे, तो चर्चा उस संबंध में हुई कि गुरु आकाँक्षा की एक आवश्यकता की पूर्ति के लिए उन्हें क्या करना है। ब्रह्मचारी दयानंद की प्रतिभा से विरजानंद प्रभावित थे। उनने कहा कि सामान्य लोगों की तरह न जीकर तुम समय के कुप्रभाव को उलटने में लग सको, तो कितना अच्छा हो। शिष्य ने गुरु इच्छा पर अपनी इच्छा निछावर कर दी और उसी दिन संन्यास लेकर समाज-सुधार के कार्यों में, विश्व संस्कृति के उत्थान में निरत हो गए।