गायत्री जयंती पर्व 20/6/2002 - वह अविस्मरणीय दिवस

May 2002

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गायत्री जयंती के इन पुण्य पलों में युग शक्ति के प्रेरक प्रवाह से जन-मन अभिसिंचित है। भावनाएँ उन भगीरथ को ढूँढ़ रही है, जिनके महातप से गायत्री की प्रकाश धाराएँ बहीं। महाशक्ति जिनके प्रचंड तप से प्रसन्न होकर इस युग में अवतरित हुई। वेदमाता के उन वरदपुत्र को भावनाएँ विकल हो खोज रही हैं। आज युग के उन तप-सूर्य की यादें उन्हीं की सहस्र रश्मियों की तरह मन-अंतः करण को घेरे हैं। यादों के इस उजाले में वर्ष 1990 की गायत्री जयंती (2 जून) की भावानुभूति प्रकाशित हो उठी है जब एक युग का पटाक्षेप हुआ था। प्रभु साकार से निराकार हो गए थे। भावमय अपने भक्तों की भावनाओं में विलीन हुए थे। उस दिन न जाने कितनी भावनाएँ उमगी थीं, तड़पी थीं, छलकी थीं, बिखरी थीं। इन्हें बटोरने वाले, सँजोने वाले अंतःकरण के स्वामी इन्हीं भावनाओं में ही कहीं अंतर्ध्यान हो गए थे।

सब कुछ प्रभु की पूर्व नियोजित योजना थी। महीनों पहले उन्होंने इसके संकेत दे दिए थे। इसी वर्ष पिछली वसंत में उन्होंने सबको बुलाकर अपने मन की बात कह दी थी। दूर-दूर से अगणित शिष्यों-भक्तों ने आकर उनके चरणों में अपनी व्याकुल भावनाएँ उड़ेली थीं। सार्वजनिक भेंट और मिलन का यहीं अंतिम उपक्रम था। तब से लेकर लगातार सभी के मन में ऊहापोह थी। सब के सब व्याकुल और बेचैन थे। शाँतिकुँज के परिसर में ही नहीं, शाँतिकुँज के बाहर भी सबका यही हाल था। भारी असमंजस था, अनेकों मनों में प्रश्न उठते थे, क्या गुरुदेव सचमुच ही शरीर छोड़ देंगे ! अंतर्मन की गहराइयों से जवाब उठता था- हाँ, पर ऊपर का मोहग्रस्त मन थोड़ा अकुलाकर सोचता, हो सकता है सर्वसमर्थ गुरुदेव अपने भक्तों पर कृपा कर ही दें और अपना देह वसन छोड़े!

मोह के कमजोर तंतुओं से भला भगवंत योजनाएँ कब बंधी हैं! विराट् भी भला कहीं क्षुद्र बंधनों में बंधा करता है!! गायत्री जयंती से एक दिन पहले रात में, यानि कि 1 जून 1990 की रात में किसी कार्यकर्त्ता ने स्वप्न देखा कि हिमाच्छादित हिमालय के श्वेत हिमशिखरों पर सूर्य उदय हो रहा है। प्रातः के इस सूर्य की स्वर्णिम किरणों से बरसते सुवर्ण से सारा हिमालय स्वर्णिम आभा से भर जाता है, तभी अचानक परमपूज्य गुरुदेव हिमालय पर नजर आते हैं, एकदम स्वस्थ-प्रसन्न । उसकी तेजस्विता की प्रदीप्ति कुछ अधिक ही प्रखर दिखाई देती है। आकाश में चमक रहे सूर्यमंडल में माता गायत्री की कमलासन पर बैठी दिव्य मूर्ति झलकने लगती है। एक अपूर्व मुस्कान है माँ के चेहरे पर। वह कोई संकेत करती हैं। और परमपूज्य गुरुदेव सूर्य की किरणों के साथ ऊपर उठते हुए माता गायत्री के पास पहुँच जाते हैं। थोड़ी देर तक गुरुदेव की दिव्य छवि माता के हृदय में हलकी-सी दिखती है। फिर वेदमाता गायत्री एवं गुरुदेव सूर्यमंडल में समा जाते हैं। सूर्य किरणों से उनकी चेतना झरती रहती है।

देखने वाले का यह स्वप्न कुछ ही क्षणों में सुबह की दिनचर्या में विलीन हो गया। उसी दिन ब्रह्मवर्चस् के एक कार्यकर्त्ता भाई के संबंधी की शादी थी। वंदनीया माताजी ने दो-एक दिन पहले से ही निर्देश दिया था कि शादी सुबह ही निबटा ली जाए। सामान्य क्रम में शाँतिकुँज में यज्ञमंडप में शादियाँ दस बजे प्रारंभ होती हैं, लेकिन उस दिन के लिए के लिए माताजी का आदेश कुछ अलग था। गायत्री जयंती के दिन यह शादी काफी सुबह संपन्न हुई। अन्य कार्यक्रम भी यथावत् संपन्न हो रहे थे। वंदनीया माताजी प्रवचन करने के लिए प्रवचन मंच पर पधारी थीं। प्रवचन से पहले संगीत प्रस्तुत करने वाले कार्यकर्त्ता जगन्माता गायत्री की महिमा का भक्तिगान कर रहे थे-’माँ तेरे चरणों में हम शीश झुकाते हैं,’ गीत की कड़ियाँ समाप्त हुई। माताजी की भावमुद्रा में हलके से परिवर्तन झलके। ऐसा लगा कि एक पल के लिए वह अपनी अंतर्चेतना के किसी गहरे अहसास में खो गई, लेकिन दूसरे ही पल उनकी वाणी से जीवन-सुधा छलकने लगी।

प्रवचन के बाद प्रणाम का क्रम चलना था। माँ अपने आसन पर अपने बच्चों को ढेर सारा प्यार और आशीष बाँटने के लिए बैठ गई। प्रणाम की पंक्ति चल रही थी, माताजी स्थिर बैठी थीं। उनके सामने अस्तित्व से वात्सल्य-संवेदना झर रही थी।

प्रणाम समाप्त होने के कुछ ही क्षणों बाद शाँतिकुँज एवं ब्रह्मवर्चस् का कण-कण, यहाँ निवास करने वाले सभी कार्यकर्त्ताओं का तन-मन-जीवन बिलख उठा। अब सभी को बता दिया गया था कि गुरुदेव ने देह छोड़ दी है। अगणित शिष्य संतानों एवं भक्तों के प्रिय प्रभु अब देहातीत हो गए हैं। काल के अनुरोध पर भगवान महाकाल ने अपनी लोक-लीला का संवरण कर लिया है। जिसने भी, जहाँ पर यह खबर सुनी, वह वहीं पर अवाक् खड़ा रह गया। एक पल के लिए हर कोई निःशब्द, निस्पंद हो गया। सबका जीवन-रस जैसे निचुड़ गया। थके पाँव उठते ही न थे, लेकिन उन्हें उठना तो था ही। असह्य वेदना से भीगे जन परमपूज्य गुरुदेव के अंतिम दर्शनों के लिए चल पड़े।

शाँतिकुँज के कंप्यूटर कक्ष के ऊपर जो बड़े हॉल के रूप में परमवंदनीय माताजी का कक्ष है, वहीं पर गुरुदेव का पार्थिव शरीर रखा गया था। महायोगी की महत् चेतना का दिव्य आवास रही, उनकी देह आज चेतनाशून्य थी। पास बैठी हुई वंदनीया माताजी एवं परिवार के सभी स्वजन वेदना से विकल और व्याकुल थे। माताजी की अंतर्चेतना को तो प्रातः प्रवचन में ही गुरुदेव के देह छोड़ने की बाते पता थी तब से लेकर अब तक वह अपने कर्तव्यों में लीन थीं। सजल श्रद्धा की सजलता जैसे हिमवत् हो गई थी, अब वह महावियोग के ताप से पिघल रही थी। अंतिम प्रणाम भी समाप्त हो गया, परंतु कुछ लोग अभी हॉल में रुके थे। प्रणाम करके नीचे उतर रहे एक कार्यकर्ता को एक वरिष्ठ भाई ने ही इशारे से रोक लिया। परमपूज्य गुरुदेव की पार्थिव देह को उठाते समय माताजी ने उसे बुलाया एवं भीगे स्वरों में कहा ,"बेटा! तू भी कंधा लगा ले।" माँ के इन स्वरों को सुनकर उसका रोम-रोम कह उठा ,"धन्य हो माँ! वेदना की इस विकल घड़ी में भी तुम्हें अपने सभी बच्चों की भावनाओं का ध्यान है।"

सजल श्रद्धा एवं प्रखर प्रज्ञा के पास आज जहाँ चबूतरा बना है, तब वहाँ खाली जगह थी। वहीं चिता के महायज्ञ की वेदिका सजाई गई थी। ठीक सामने स्वागत कक्ष के पास माताजी तख्त पर बिछाए गए आसन पर बैठी थीं। पास ही परिवार के अन्य सभी सदस्य खड़े थे। आस-पास कार्यकर्त्ताओं की भारी भीड़ थी। सभी की वाणी मौन थी, पर हृदय मुखर थे। हर आँख अश्रु का निर्झर बनी हुई थी। आसमान पर भगवान् सूर्य इस दृश्य के साक्षी बने हुए थे। कण-कण में बिखरी माता गायत्री की समस्त चैतन्यता उसी दिन उसी स्थल पर सघनित हो गई थी। भगवान सविता देव एवं उनकी अभिन्न शक्ति माता गायत्री की उपस्थिति में गायत्री जयंती के दिन यज्ञपुरुष गुरुदेव अपने जीवन की अंतिम आहुति दे रहे थे। यह उनके जीवन-यज्ञ की पूर्णाहुति थी।

आज वह अपने शरीर को ‘इदं न मम् ‘ कहते हुए यज्ञवेदी में अर्पित कर चुके थे। यज्ञ ज्वालाएँ धधकीं। अग्निदेव अपने समूचे तेज के साथ प्रकट हुए। वातावरण में अनेकों की अनेक सिसकियाँ एक साथ मंद रव के साथ विलीन हुईं। समूचे परिवार का कण-कण और भी अधिक करुणार्द्र हो गया, सभी विह्वल खड़े थे। परमतपस्वी गुरुदेव का तेज अग्नि और सूर्य से मिल रहा था। सूर्य की सहस्रों रश्मियों से उनकी चेतना के स्वर झर रहे थे। कुछ ऐसा लग रहा था, जैसे वह स्वयं कह रहें हों, "तुम सब परेशान न हो, मैं कहीं भी गया नहीं हूँ, यहीं पर हूँ और यहीं पर रहूँगा। मैंने तो केवल पुरानी पड़ गई देह को छोड़ा है, मेरी चेतना तो यहीं पर है। वह युगों-युगों तक यहीं रहकर यहाँ रहने वालों को, यहाँ आने वालों को प्रेरणा व प्रकाश देती रहेगी। मैं तो बस साकार से निराकार हुआ हूँ, पहचान सको तो मुझे शाँतिकुँज के क्रियाकलापों में पहचानो! ढूँढ़ो!" वर्ष 1990 की गायत्री जयंती में साकार से निराकार हुए प्रभु के इन स्वरों की सार्थकता इस गायत्री जयंती की पुण्य वेला में प्रकट हो रही है। हम सबको उन्हें शाँतिकुँज रूपी उनके विराट् शरीर की गतिविधियों में पाना है और स्वयं को इनके विस्तार के लिए अर्पित कर देना है।


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