स्थायी मिलन का रहस्य

May 1997

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प्यार के अंकुरित होते ही पिया मिलन की हूक उठती है। छटपटाता दिल अपने प्रिय से मिलने के लिए तड़पता है। भावाकूल हृदय मिलते भी है पर हर मिलन उनमें एक अतृप्ति पैदा करता है। प्यास को बुझाने की बजाय उसे गहरा करता है। प्रत्येक मिलन के बाद उनकी छटपटाहट , बेचैनी और बढ़ती जाती हैं ऐसा इसलिए क्योंकि वे स्थायी मिलन के रहस्य से अनजान है।

प्यार इबादत है, आराधना है, उपासना है। इसके रहस्य को जान लिया जाय तो यह स्वयं परमेश्वर है। जो प्रेमी को पवित्रता, सजलता, शान्ति, एकात्मता और अनन्तता का वरदान देने से नहीं चूकता। प्रेम के रहस्य जानने वाला प्रेमी ‘रसो वै सः’ के तत्व को समझ कर स्वयं रसमय-परमेश्वरमय हो जाता है।

प्यार के अनेकों किस्से दुनिया में प्रचलित है। शीरी-फरहाद, लैला-मजनू, हीर-राँझा, रोमियो-जूलियट की अमर कथाएँ बड़े चाव से कही-सुनी जाती है पर प्रेम की रहस्यमयी महिमा को जानने वालों का मालूम है कि यह तो प्रेम-साधना का सिर्फ पहला चरण है, जिसे इन अमर विभूतियों ने अनुभव किया। परस्पर हित के लिए उत्सर्ग, स्वार्थ नहीं बलिदान इनका मूलमंत्र था, जिसे अपनाकर वे मानवीय प्रेम के चरम बिन्दु तक पहुँच सके।

प्रेमवादिनी मीरा का प्यार प्रेमसाधना का सर्वोच्च प्रकार था। उनके प्रियतम प्रभु श्री कृष्ण का उनके समय कोई स्थूल अस्तित्व न था। चर्मचक्षुओं से उन्हें न देख पाने पर भी भाव-साधना निरन्तर गहराती गयी। दैवी प्रेम से की गयी शुरुआत ईश्वरीय प्रेम के सर्वोच्च बिन्दु तक जा पहुँची। उन्होंने अपनी भावनाओं में यो माँ पश्यति सर्वत्र , सर्व च मयि पश्यति में निहित सत्य का अनुभव किया। चिरवियोग-चिरमिलन में बदल गया।

वह एक सत्य दे गयीं-प्यार में देह की क्या दरकार। प्यार तो भावनाओं में ही अंकुरित, प्रस्फुटित एवं विकसित होता है। यदि प्रिय को अपनी भावनाओं में पाने का यत्न किया जाय तो भावों की ऊष्मा अन्तः करण में हूक, छटपटाहट, हृदय के फट पड़ने की-सी अनुभूति देती है। बाह्य मिलन का हठ न करके यदि इसे धैर्यपूर्वक सह लिया जाय तो इस ताप में सारी वासनाएँ, जन्म-जन्मान्तर के सिंचित कुसंस्कार भस्म हो जाते हैं। पवित्र हुई मानवीय भावनाएँ का रूप ले लेती है और ईश्वरीय प्रेम के सर्वोच्च बिन्दु तक जा पहुँचती है।

अपने प्रिय आराध्य परमपूज्य गुरुदेव मीरा के कृष्ण की ही भाँति स्थूल में नहीं है, परन्तु भावुक भक्तों के भावजगत में हर पल उपस्थित है। प्रेमी साधक अपनी प्रेमसाधना में भावमय गुरुमूर्ति एवं भावमय परमेश्वर की अनन्तता में जब स्वयं को विलीन होते हुए अनुभव करता है, तब कबीर के स्वरों में गा उठता है, मन मगन भया फिर क्यों बोले।


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