प्रतिभाओं पर चढ़ा है राष्ट्र-भूमि का ऋण

May 1997

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अतीत का जगद्गुरु भरत-भविष्य में विश्वगुरु कैसे बनेगा ? यह सवाल हमें एकबारगी चौका देता है । यह नहीं हमें कल्पनाओं के सौंदर्य लोक से यथार्थ की मरुभूमि में ला खड़ा करता है। हमारा अतीत कुछ भी क्यों न रहा हो, वर्तमान में हम विज्ञान और तकनीकी न की छोटी-छोटी जानकारियों के लिए चतुर देशों के सामने याचक है। यहाँ उन्हें इसलिए कहा जा रहा है, क्योंकि उन्होंने बड़ी चालाकी से हमारे देश का ज्ञान ही नहीं, ज्ञानियों को भी हासिल कर लिया। उनके बिछाए जाल में अपने देश की प्रतिभाएँ फँसती चली गयीं और हम प्रतिभाहीन होते गए।

ज्ञान की अनन्त जलधारा प्रतिभा की नदी में ही प्रवाहित होती है। बुद्धि तो सिर्फ छान-बीन करती है, आविष्कार-अनुसंधान का श्रेय तो प्रतिभा को जाता है। किसी भी राष्ट्र के वैभव-विकास एवं समृद्धि का शाश्वत आधार है। अपनी भारतमाता सभ्यता की शुरुआत से ही प्रतिभाओं को जनम देने में अग्रणी रही है। आज भी उसकी कोख बाँझ नहीं हुई। दुनिया के आँकड़े यह सिद्ध करते हैं। कि विश्व की सर्वाधिक प्रतिभाएँ भारत में जन्म लेती है, पर हम उन्हें न उचित साधन दे पाते हैं और न सम्मान। इसके अभाव में वे पलायन कर जाती है और अपनी भारतमाता अपने प्रतिभावान सपूतों से वंचित होती जाती है ।

नवीनतम सर्वेक्षण से स्पष्ट है कि 50,000 से एक लाख भारतीय प्रतिवर्ष पश्चिमी देशों में जाकर बस जाते हैं। उपयुक्त कार्यक्षेत्र अत्याधुनिक सुविधा-साधन इन्हें वहाँ की ओर आकर्षित करता है आर्थिक आकर्षण एवं भारी सम्मान के कारण ही उच्च प्रतिभाएँ विदेशों में जाकर बस जाती हैं इनमें वैज्ञानिक इंजीनियर, डाक्टर व मेधावी छात्र शामिल है। इस तरह हर साल भारत से 5560 से 7554 की संख्या में उच्चस्तरीय प्रतिभाएँ विदेशों में अपना आश्रय खोज लेती है। सन् 1990 के कुल 40,000 के आँकड़े के मुकाबले अब यह संख्या 596000 तक जा पहुँची है, जिसमें तकरीबन 24094 इंजीनियर शामिल है। वैज्ञानिकों में लगभग 23 % पश्चिमी एशिया , 30 % अमेरिका तथा 11% पश्चिमी यूरोपीय देशों में है।

भारतीय तकनीकी संस्थानों से सर्वाधिक प्रतिभा-पलायन 68 % होता है। इसी तरह कम्प्यूटर इंजीनियरिंग की 69% एवं केमिकल इंजीनियरिंग की 53% प्रतीभाएँ पलायन कर जाती है। (इण्डियन स्पेस रिसर्च आर्गनाइजेशन) भी इन दिनोँ भारतीय अन्तरिक्ष वैज्ञानिकों के पलायन से काफी चिन्तित है। इस संगठन ने स्वीकारा है कि कम से कम पिछले छह सालों में 600 वैज्ञानिक देश छोड़कर विदेश में जा बसे है। 1995-96 में 42% कम्प्यूटर टेक्नोलॉजी के तथा कम्यूनिकेशन्स के जूनियर साइंटिस्ट विदेश गए है। इसरो के प्रबन्धन तन्त्र ने स्वीकार है कि प्राइवेट सेक्टर एवं बहुदेशीय कम्पनियों का आर्थिक एवं अन्य आकर्षण कुछ ज्यादा ही है पलायन की यह दशा आई. आई. टी. में कुछ ज्यादा ही गम्भीर है।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान पवई (आय. आय. टी.) बम्बई की एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक उच्च प्रशिक्षण प्राप्त छह से 10 हजार भारतीय प्रतीएँ हर साल विदेशों में जा बसती हैं उनमें बी. टेक के 36.7 फीसदी , एम. टेक के 29.3 फीसदी एवं 13% पी. एच. डी. सकालर होते हैं। आई. आई. टी. बम्बई से 46% मद्रास से 43% तथा इलेक्ट्रानिक्स और कंप्यूटर विज्ञान के प्रशिक्षितों का एक बड़ा भाग विदेशों में नौकरी या व्यवसाय तलाशता है। भारत के कुल आई. आई. टी. स्नातकों का लगभग 70% हिस्सा विदेश गमन कर जाता है।

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की दशा भी काफी दयनीय हैं यहाँ 4250 लोगों की आबादी के पीछे एक डाक्टर है, लेकिन यहाँ से 25 से 30 हजार डाक्टर भागकर विदेशों में जा बसें है। शायद इसीलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत को चिकित्सा के क्षेत्र में मानव शक्ति का बड़ा दानी देश कहा है। इस सम्बन्ध में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नई दिल्ली ने हाल ही में प्रकाशित अपनी एक सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा है कि 1956 से 1990 के बीच हर साल 8 % से 63.3 % तक डाक्टरों का पलायन हुआ है। इनमें से 88.9 % तो सिर्फ अमेरिका में बसे हुए है। देश के प्रतिभा-पलायन के बारे में प्रोफेसर सुखाले ने एक गम्भीर अध्ययन किया है। उनके निष्कर्ष के मुताबिक 90 % प्रतिभाएँ विदेश जाने के सपने सँजोती रहती है।

सन् 1992 में विभिन्न देशों की जनसंख्या के आधार पर प्रतिभाओं का प्रतिशत है-ताइवान 0.68, सिंगापुर 0.69, कोरिया 0.54, हांगकांग 0.49, मैक्सिको 0.35, ब्राजील 0.13 तथा भारत 0.06 है। प्रति दस लाख आबादी में संलग्न वैज्ञानिक एवं इंजीनियर हैं, जापान में 4569, ताइवान 1426, कोरिया 1283, सिंगापुर, 960, मैक्सिको 217, इण्डोनेशिया 152 थाईलैंड 150 एवं भारत 132। भारत में प्रतिभाओं की सर्वाधिक कमी का कारण उनका व्यापक पलायन है।

प्रतिभा-पलायन का यह इतिहास काफी पुराना है। 400 से 300 बी. सी. में एथेन्स आज के अमेरिकी वैभव व प्रतिभा के समान प्रबुद्ध वर्गों का केन्द्र था। एथेन्स में सुकरात के शिष्य प्लेटो ने एक अकादमी का गठन किया। इसी तरह अरस्तू एवं लीसियम ने 335 वी. सी. में एक अकादमी बनायी। यह अकादमी पूरे ग्रीस में आकर्षण का केन्द्र अकादमी पूरे ग्रीस में आकर्षण का केन्द्र बिन्दु बनी। 300 बी. सी. में ग्रीस के 60 प्रखर बुद्धिमानों में से 45 एथेन्स और अलेक्जेण्ड्रिया पलायन कर गए थे। 300 बी. सी. में सिकन्दर ने स्वीकार किया था कि देश की चहुँमुखी प्रगति के लिए विज्ञान के आविष्कारों की नितान्त आवश्यकता है। उसका भारत अभियान करने का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य यहाँ की प्रतिभाओं का अपहरण करना भी था।

अपहरण न कर पाने पर भी वह महर्षि दण्डायन को मनाने में सफल रहा। ये महर्षि दण्डायन ही वहाँ जाकर डायोजिनिस कहलाए। इन्होंने वहाँ पूरे देश की लाइब्रेरी एवं संग्रहालय के संचालन का दायित्व सँभाला। उनके द्वारा संचालित लाइब्रेरी उस समय विश्वविख्यात बनी। यहाँ पर ज्योतिष , वनस्पतिशास्त्र , जीवविज्ञान, रसायन एवं भौतिक आदि अनेक विषयों के प्रख्यात विद्वान एवं अन्वेषक उनके अधीन काम करते थे यहाँ सो जाने-माने विद्वान थे, जो वहाँ उनका सान्निध्य पाने के लोभ से पहुँच गए थे। इसी तरह ग्यारहवीं एवं बारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में इटली का सेलार्नो बोलाँगों तथा फ्राँस का पेरिस की पेरिस यूनिवर्सिटी भी कतिपय विशिष्ट प्रतिभाओं से धन्य हुई थी।

प्रतिभाओं के कारण ही कोई भी केन्द्र या संस्था महत्वपूर्ण होती है। इनके पलायन से ये उजड़ जाती है। 1204 में विसंजा यूनिवर्सिटी अपने प्रोफेसरों के कारण ख्यातिलब्ध थी। इसी तरह प्रतिभाओं के आने से 1215 में अरेजो यूनिवर्सिटी, 1222 में पाडुआ, 1228 में वर्सेली, 1246 में सिएना, 1343 में पीसा तथा 1339 में फ्लोरें स विश्वविद्यालय का निर्माण सम्भव हो सका। 1250 में इटली में 9 विश्वविद्यालय , फ्राँस में 5 स्पेन में चार तथा इंग्लैण्ड में 2 विश्वविद्यालयों का निर्माण हुआ। तकरीबन 1224 में बोलगा विश्वविद्यालय से प्रतिभा पलायन का सिलसिला शुरू हुआ, जिससे वहाँ अच्छी-खासी परेशानी हो गयी, इससे बचने के लिए वहाँ एक अधिनियम बनाया गया। 1228 में इसी वजह से पेरिस विश्वविद्यालय काफी परेशानी में फँस गया। अतः किंग हेनरी तृतीय ने 1229 में इसे रोकने के लिए अनेक प्रयास किये। 2400 सालों के पश्चिमी दुनिया के इतिहास को देखने पर हम वहाँ प्रतिभा-पलायन से उत्पन्न संकट एवं उससे निपटने के लिए बरती गई नीतियों का ब्योरा पढ़ सकते हैं।

परन्तु न जाने क्यों हमने अपने देश की प्रतिभाओँ को लगातार खोते चले जाने के बावजूद चुप्पी साध रखी हैं ब्राजील में आज भी भारतीय अंतरिक्ष वैज्ञानिकों की भरमार है। ब्राजील के अंतरिक्ष संगठन ने 70 के दशक में इस मौसम अनुसंधान केन्द्र खोला। अनुसंधान केन्द्र में नियुक्ति के लिए वहाँ वैज्ञानिकों एवं विशेषज्ञों का अभाव था। भारत से गए वैज्ञानिकों एवं तकनीकी विशेषज्ञों का अभाव था। भारत से गए वैज्ञानिकों एवं तकनीकी विशेषज्ञों के कारण ही यह संगठन चल सका। इस बात की स्वीकारोक्ति इस केन्द्र के संस्थापक डॉ. फेन्डेन मेंडन ने स्वयं की है। सेण्ट जोन्स डेस कम्पोस में 20 से अधिक भारतीय वैज्ञानिक अपने परिवारों के साथ रह रहे है। जीन संश्लेषण के प्रणेता एवं नोबुल पुरस्कार विजेता डॉ. हरगोविन्द खुराना एवं विश्वप्रसिद्ध अन्तरिक्ष विज्ञानी सुब्रह्यण्यम चन्द्रशेखर भी मूल रूप से भारतीय ही है। विश्वविख्यात सिद्धान्त सापेक्षितावाद का मर्म विश्व में वैज्ञानिक एडिंगटन के बाद इन्हें ही मालूम था।

सन् 1960 के दशक तक विकसित और विकासशील दुनिया को हम जैसे लोगों की खूब जरूरत थी। उनके विकास में हमारे मजदूर, इंजीनियर, डाक्टर, वैज्ञानिक बहुत मददगार थे। इसी वजह से उन्हें लुभा-ललचाकर ले जाया गया। इससे पहले 19 वीं सदी में ब्रिटिश उपनिवेशों मारीशस सूरीनामा फिजी , दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में हमारे लोग जबरदस्ती ले जाए जाते थे। विश्वयुद्ध के दौरान लाखों व्यक्तियों का पलायन हुआ। पश्चिम जर्मनी में तब दस लाख लोग गए। अमेरिका, कनाडा, जर्मनी , बिअन अथवा ऐसे किसी अन्य देश में जाने और बसने की ललक आज भी भारत के एक बड़े वर्ग में है। एक नवीनतम अनुमान से पता चलता है कि 105 देशों में करीब ढाई करोड़ से अधिक भारतीय फैले हुए है। कइयों की कई पीढ़ियों वहीं जन्मी हैं।

इन दिनों अधिकतर भारतीय प्रतिभाएँ अमेरिका और कनाडा जाना पसन्द करती है। इन प्रवासियों में तीन महत्वपूर्ण परिवर्तन देखे जा सकते हैं। ये पहले इंग्लैंड जाकर बसते थे। सातवें दशक में इन्हें अमेरिका के चकाचौंध ने आकर्षित किया। आठवें दशक में इन्होंने कनाडा में पड़ाव डालना शुरू किया। पश्चिमी देश इन युवा प्रतिभाओं को लुभाने के लिए भाँति -भाँति के उपाय भी खोजते रहते हैं।

युवा प्रतिभाएँ किसी भी देश की जीवनी-शक्ति है। जब यही बाहर निकलने लगे तो राष्ट्रीय अस्तित्व का कमजोर होना स्वाभाविक हैं पहले कभी ये युवक इंग्लैण्ड के आक्सफोर्ड एवं कैम्ब्रिज विश्वविद्यालयों में अध्ययन हेतु जाते थे और वहाँ के होकर हर जाते थे। आज इनकी मंजिल अमेरिका हो गयी है। इस ओर भागने की गति इतनी तेज है कि आँकड़े बताते हैं कि दुनिया में किसी भी देश के मुकाबले भारत में प्रतिभा -पलायन सर्वाधिक है।

यहाँ की कुल प्रतिभा पलायन का 90 प्रतिशत अमेरिका में तथा शेष 90 % अन्य पश्चिमी देशे में होता है। हालाँकि अब कनाडा में रहने वाले प्रवासियों की संख्या बढ़ रही हैं अमेरिका में 1974 से 1988 के बीच प्रवासी वैज्ञानिकों की संख्या दुगुनी हो गयी है। पहले इनका %5.8 था, अब यह बढ़कर 105 हो गया हैं अमेरिका को यह प्रतिभाएँ जिन 5-6 देशों से मिलती है, उनमें भारत मुख्य है। न्यूयार्क में, कुवैत व सउदी अरब में केरल की नर्सो का जाल -सा बिछा हुआ है। आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड के बड़े-बड़े संस्थानों में भरी संख्या में भारतीय वैज्ञानिक और इंजीनियर काम कर रहे है। विशेष रूप से कृषि व डेरी वैज्ञानिक।

अमेरिका में एक इंजीनियर को प्रशिक्षित करने में लगभग 403 लाख. रुपये लगते हैं और ऐसे संस्थानों को चलाने में 16,650 करोड़ रुपये खर्च होते हैं। भारत की अपेक्षा अमेरिका में यह खर्च छह गुना अधिक है। इस तरह अमेरिका को मुफ्त में इंजीनियर मिल जाता है, जिसका वह भरपूर लाभ उठा लेता है। दीपक नैय्यर की प्रसिद्ध पुस्तक ‘माइग्रेशन रैमिटैसेज एण्ड कैपिटल ग्रोथ’ में प्रतिभा-पलायन से हुए भारत के नुकसान का हवाला दिया है। प्रतिभाओं की यह लागत तथा लाभ का समाजीकरण यदि भारत में हो सकता तो तो हम आज ही विश्व समुदाय का नेतृत्व करने की स्थिति में होते।

प्रतिभा-पलायन को रोकने के विरोध में अक्सर भूमण्डलीकरण का तर्क दिया जाता है। इस तर्क की गहराई से छान-बीन करें तो पता चलेगा, यह चतुर देशों का बेहद चतुराई भरा जाल है, जिसमें फँसकर वे मानव संसाधन को लगातार अपनी ओर खीचते जा रहे है। अपने देश का उच्चशिक्षित वर्ग खासतौर पर इसमें बुरी तरह जकड़ चुका है। उसे यह बात भूल चुकी है कि भूमंडलीकरण समूचे विश्व में एक से प्रतिभाओं एवं संसाधनों के प्रवाह का नाम है, न कि समूचे विश्व से किसी एक या कुछ खास देशों की ओर संसाधनों का खिंचते चले जाना।

यह स्थिति भारत सहित सभी विकासशील देशों के लिए गम्भीर समस्या बन चुकी है। ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने विकासशील देशों से प्रतिभा-पलायन की गम्भीर कठिनाई का अध्ययन करने के बाद अपनी रिपोर्ट में कहा था कि भारत ने अमेरिका को 1967 से 1985 के दौरान करीब 51 अरब डालर की मानव सम्पदा सौंपी। सिर्फ चिकित्सकों के विदेशों में बस जाने से तीस करोड़ डालर का नुकसान हुआ है। करीब 25 से 35 हजार डाक्टर विदेशों में अपना व्यवसाय अपनाए हुए है, जबकि एक डाक्टर को तैयार करने में पाँच से सात लाख रुपये तक खर्च होते हैं। विकासशील देश भी करोड़ों रुपये इनकी लाभ उठने से वंचित रह जाते हैं। अध्ययन के मुताबिक अमेरिका की समृद्धि में 28% से अधिक भारतीय बुद्धि का योगदान है।

प्रतिभा को खोते जाने की समस्या किसी भी देश के लिए शोचनीय है। इस समस्या का एक दयनीय पहलू और है-प्रतिभा संवर्द्धन की उपेक्षा। 1990 के दशक के आँकड़ों के अनुसार भारत में ही नहीं अन्य देशों में भी विज्ञान स्नातकोत्तर छात्रों की संख्या घटती जा रही है। मौलिकता के इस परिवेश में ज्ञान का मानदण्ड व्यावसायिक लाभ हो गया है। प्रतिभा दैवी वरदान अवश्य है। परन्तु जन्म के समय यह अंकुरित अवस्था में होती है। जीवन में इसे विकसित, संवर्धित करने पर ही इसके उपयुक्त लाभ लिए जा सकते हैं। इसकी ओर बरती जा रही उपेक्षा शुभ सूचक नहीं है।

प्रतिभा-पलायन की रोकथाम एवं इसका सतत् सम्वर्द्धन दो समस्याएँ नहीं है। वस्तुतः ये दोनों एक ही समस्या के दो पहलू है। लगातार इनके बढ़ते जाने का कारण अपने समाज में बढ़ती संकीर्ण स्वार्थपरता, भ्रष्टाचार एवं येन-केन प्रकारेण धन बटोरने की हविश है। ऐसी स्थिति में न तो हम प्रतिभाओं को समुचित सम्मान दे पाते हैं, स्थिति का विश्लेषण करते हुए अल्फ्रेड टेन ग्रिस वोल्ड ने ठीक ही कहा है जो राष्ट्र स्वयं पर विश्वास नहीं करता वह बुद्धिजीवियों का विश्वास कैसे हासिल कर सकता है प्रतिभाओं के रोकने का उपाय उन्हें सम्मान देना है। इसका एक उदाहरण भारत में टाटा कन्सल्टैन्सी समूह के रूप में देखा जा सकता है।

पलायन की इस विकरालता को रोकने के लिए कतिपय उपाय किए भी गए है। 1984 में वैज्ञानिकों को काफी सुविधाएँ मुहैया कराई गई। इस दिशा में संयुक्त राष्ट्र के ‘टोक्ने’ के कार्यक्रम तथा 1991 में यूनेस्को के ‘यूनिटिविन’ योजना भी मूल्यवान रही। इनके 21 नेटवर्क कार्यक्रमों के माध्यम से विभिन्न विश्वविद्यालयों के बीच संपर्क स्थापित करने के साथ ही छात्रों को उन्हीं के देश में उच्च शिक्षा हेतु आर्थिक सहयोग का प्रावधान है।

अपने देश में प्रतिभाओं को पल्लवित -पुष्पित करने के लिए मलेशिया-ब्राजील आदि देश भी कम्भीरता से कारगर उपाय खोज रहे हैं। उन्होंने अपने राष्ट्र की समृद्धि के लिए इनका समुचित सुनियोजन भी शुरू कर दिया है। चीन के अपनी सर्वोत्तम बुद्धि एवं ज्ञान के वाहक दिमागों को अमेरिका और यूरोप की ओर पलायन से रोकने के लिए व्यापक कार्यक्रम बनाए है। हाल ही में चीन के एक प्रमुख आर्थिक दैनिक ‘बिजनेस यूज ऑफ बीजिंग’ के अनुसार 1995 में अमेरिका , फ्राँस और ब्रिटेन में 13 त्न चीनी विद्वानों की वापसी हुई है।

प्रतिभा के सुनियोजन के लिए हमें अपनी सोच को औपनिवेशिकता के दायरे से बाहर निकलकर सोचना होगा। प्रशासनिक ही नहीं, सामाजिक स्तर पर, ऐसी सोच पैदा करनी होगी कि डाक्टरों, वैज्ञानिकों, प्रोफेसरों, लेखकों, विचारशीलों को नौकरशाहों की तुलना में अधिक सम्मानित समझा जाय, क्योंकि यही प्रगति के पहिए है, जिनके बल पर देश प्रगति की मंजिल प्राप्त करता है। प्रतिभा न केवल ज्ञान का पर्याय है, बल्कि सत्य, तप, त्याग एवं शान्ति का वाहक भी है। बट्रेण्ड रसेल ने सच्ची प्रतिभाओं की पहचान बताते हुए कहा है कि “सच्ची प्रतिभा किसी भी प्रलोभन और मानसिक आवेग के सामने नहीं झुकती। यह सदा शांत और पक्षपात रहित रहकर रचनात्मक सृजन में निरत रहती है।” जिस समाज एवं राष्ट्र में ऐसी प्रतिभाओं की बहुलता होगी, वह राष्ट्र उन्नति और प्रगति के शिखर तक अवश्य पहुँचेगा।

अपने देश में सदा से विद्या एवं विवेक की अभ्यर्थना होती आयी है। आज फिर से इसे सामाजिक प्रतिष्ठा का मानदण्ड बनाना होगा। इसके साथ प्रतिभाशालियों को भी सोचना होगा कि मातृभूमि के प्रति उनका भी कुछ कर्त्तव्य है। माँ का प्यार किसी प्रलोभन से अधिक मूल्यवान है। प्रतिभाएँ भारत माता की वरिष्ठ संतानें है। उन्हें अपनी योग्यता को राष्ट्र के नव-निर्माण के लिए सोचना चाहिए। यदि वे अपनी कायरता को छोड़कर ‘न दैन्यं न पलायनम् ‘ की नीति अपनाएँगी तो निश्चित ही उनके प्रयास भारत देश के नए भविष्य का सृजन करेंगे। ऐसा भविष्य जिसमें वह फिर से विश्व गुरु के आसन पर प्रतिष्ठित होगा।


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