जाग्रत राष्ट्र का ब्रह्मक्षत्र बल

May 1997

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ब्रह्मचारी कौत्स के आगमन से अयोध्यावासियों में आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता छा गई। नगर की वीथियों, चतुष्पथ में नगर निवासी एक-दूसरे से पूछते दिखाई पड़ते-सुना है महर्षि वरतन्तु के शिष्य कौत्स पधारे हैं? उत्तर में हाँ सुनकर वे अचरज में डूब जाते। क्योंकि उनमें से सभी को मालूम था कि सर्वथा अपरिग्रही महर्षि वरतन्तु परम तपस्वी है। वे महान् अध्यात्मवेत्ता होने के साथ ही महान् वैज्ञानिक भी है। उनकी अनुसन्धानशाला के चमत्कारी अन्वेषणों से अयोध्या की जनता परिचित ही नहीं लाभान्वित भी थी।

किन्तु महर्षि वरतन्तु की एक विशेषता से अयोध्यावासी ही नहीं सम्पूर्ण भारतवासी परिचित थे, वह यह कि महर्षि अपने एकांत में कोई व्याधात नहीं पसन्द करते। उन्होंने अपने शिष्यों को भी यही सिखाया था कि अध्यात्मवेत्ता एवं वैज्ञानिकों को सर्वथा एकान्त में रहना चाहिए। तभी वे जनहित के लिए महत्वपूर्ण शोध कर सकते हैं। पिछले कई दशकों से किसी ने उन्हें अथवा उनके शिष्यों को नगर में भ्रमण करते अथवा इधर-उधर घूमते हुए नहीं देखा। परंतु आज महर्षि के प्रधान शिष्य उनकी अनुसंधानशाला के वरिष्ठ वैज्ञानिक कौत्स को राजमहल की ओर जाते हुए देख सभी चकित थे।

महाराज रघु ने उनके आगमन का समाचार जैसे ही सुना, स्वयं द्वार तक आकर उन्हें लेने आए। वह अपने अतिथि का योग्य स्वागत-सत्कार करने के उपरान्त कुशल-क्षेम पूछ रहे थे।

“कहिए भगवान्। ऋषियों में श्रेष्ठ मंत्र द्रष्टा, हम सबके पूज्य ब्रह्मर्षि वर-तनतु कुशल से तो है न ? उनकी तथा अन्य ऋषियों की शोध साधना निर्विघ्न रूप से चल रही है ? विद्या अभ्यासी ब्रह्मचारीगणों के अध्ययनादि में कोई व्याघात तो नहीं पड़ रहा ?”

“आश्रम एवं आम के वृक्षों को आँधी के वृक्षों को आँधी -पानी से कोई नुकसान तो नहीं पहुँचा और वे हरिणशावक तो कुशल से है न जिनकी नाभि का नाल ऋषियों की गोद में सूखकर गिरता है और जिन्हें ऋषिगण यज्ञ के लिए बटोरी गयी कुशा भी खाने से नहीं रोकते।”

“उन नदियों का जल तो ठीक है न, जिनके तट पर आप ऋषि-मनीषियों की शोधशालाएँ स्थित है और आश्रमों में संचित अन्न तथा कन्द , फल, मूलादि तो सुरक्षित है न, जिनके द्वारा आप लोग स्वयं की देह रक्षा करते हुए आगत ऋषि-मनीषियों , अतिथियों का सत्कार करते हैं।

मनीषी कौत्स महाराज की विनम्रता से अभिभूत थे। जितना हतप्रभ महाराज उन्हें देखकर हुए थे, उतना ही वे महाराज को देखकर हुए थे। अपने आश्रम में रहकर अभी तक वे महाराज की वीरता, प्रजापालन, विद्वत्ता के किस्से सुनते आए थे, लेकिन कोई शासक वह भी चक्रवर्ती ,भरतखण्ड का एकछत्र सम्राट् इतना अकिंचन, इतना अपरिग्रही हो सकता है, इसकी उन्हें कल्पना नहीं हो रही थी।

वह एकटक महाराज की और देखे जा रहे थे। महाराज का शरीर न केवल सुगठित और बलिष्ठ था, बल्कि तपस्या की अलौकिक आभा से दमक रहा था। उनके पाँवों में खड़ाऊं, कमर में एक सामान्य-सी धोती जिसका एक सिरा उत्तरीय की तरह उनके कंधों पर पड़ा हुआ। उनका आवास जो राजप्रसाद या राजमहल कहलाता था, कौत्स को आश्रम जैसा ही लगा।

अद्भुत है अपने प्रजावत्सल महाराज। उनका मस्तक राजर्षि के इस अनूठेपन पर श्रद्धा से झुक गया। अभी कुछ समय पहले उन्होंने महाराज द्वारा किए गए विश्वजित् यज्ञ की चर्चा सुनी थी। विलक्षण था इस महान् यज्ञ का आयोजन । इसमें जो ऋषिगण भागीदार हुए थे, उन्होंने इसकी चर्चा उनके गुरुवर्य ब्रह्मर्षि वरतन्तु से की थी।

इस यज्ञ में राजर्षि रघु का संकल्प था कि ऋषिगणों में जनहित के लिए कृषि, चिकित्सा, शिक्षा आदि विभिन्न क्षेत्रों में जो भी अनुसंधान किए हैं।, उन्हें वे जन-जन तक पहुंचाएंगे। साधनों की कमी से हमारे महर्षियों, ब्रह्मर्षियों के अथक श्रम से प्राप्त निष्कर्ष उनकी प्रयोगशालाओं में ही बन्दी रहें, ऐसा नहीं होगा।

बड़ा साहसपूर्ण था महाराज का संकल्प । स्थान-स्थान पर यज्ञ संसदों का आयोजन, ऋषियों एवं राजकर्मचारियों के सम्मिलित प्रयास से सामान्य नागरिकों तक महर्षियों के अनुसंधान के नवीनतम निष्कर्ष तक पहुँचने लगे। शीघ्र ही इसकी परिणति भी सामने आयी। कृषि की उपज चौगुनी हो गयी। तकनीकी ज्ञान की प्रचुरता के कारण भारतीय व्यवसाय विश्व के शीर्ष पर जा पहुँचा। कला-संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान की गतिविधियाँ इतनी बढ़ गयी कि भारत की धरती को विश्व के विभिन्न भू-भागों के निवासी स्वर्गलोक कहने लगे।

महाराज ने सचमुच अनोखी और अनूठी विश्व-विजय की थी। उनके इस कार्य से ऋषियों में और अधिक उत्साह जागा। उन सबने महर्षि वरतन्तु से निवेदन किया, कि अबकी बार कुछ ऐसे अनुसन्धान किए जाएँ जिससे प्राकृतिक आपदाओं पर पूरी तरह से रोक लगायी जा सके। पर्यावरण को कुछ इस तरह सन्तुलित एवं नियन्त्रित किया जाय कि प्रकृति कुपित ही न हो। योजना ब्रह्मर्षि वरतन्तु को पसन्द आयी। उन्होंने इसका प्रारूप भी तैयार कर डाला, परन्तु इसमें चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का व्यय अपेक्षित था। अपनी अनुसंधानशाला के वरिष्ठ वैज्ञानिक कोत्स को उन्होंने इसीलिए महाराज के पास भेजा था।

परंतु महाराज स्वयं पिछले विश्वजित् महायज्ञ को सफल बनाने में अपने सारे धन-साधन की आहुति दे चुके थे। चक्रवर्ती सम्राट फुस की साधारण झोपड़ी में रह रहा था। मृतिका पात्रों के अलावा और कुछ नहीं था।

सुखी-संतुष्ट प्रजा के सुख में राजा भी सुखी है, प्रसन्न है। आनन्द-उल्लास उसके तेजस्वी मुख पर लहरा रहा है, किंतु मेरी कार्य पूर्ति कैसे हो ? मुझे महाराज इतनी बड़ी धनराशि कैसे दे पाएँगे ? सोचते-विचारते कौत्स मुनि हृय से निराश होकर धीरे-धीरे बोले-

“राजन् ! यह देखकर कि आपकी प्रजा में दुःख’दैन्य की छाया मात्र खोजे भी नहीं मिलती, मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हुई है। चक्रवर्ती होकर सम्पूर्ण धन-धान्य प्रजाहित में लगा देने के बाद आपका तेज और यश और भी बढ़ गया है।”

“आपका कल्याण हो राजन्! मैं ही नहीं गुरुदेव वरतन्तु सहित समस्त ऋषि शक्तियाँ आप पर प्रसन्न है।” आशीर्वाद का हाथ उठाते हुए मनीषी कौत्स चलने को उद्यत हुए ।

“अरे ऐसा क्यों ? आप कुछ आज्ञा भी तो करें.......भारत भूमि के सौभाग्य तिलक ब्रह्मर्षि वरतन्तु की आज्ञा को स्वीकार-शिरोधार्य करके मैं धन्य हो जाऊँगा। आप कुछ कहें भी तो मैं प्राणपण से प्रयत्न करूंगा।” राजा ने स्वभावानुसार अनुनयपूर्ण स्वर में अधिक जानने की जिज्ञासा की। ब्रह्मर्षि वरतन्तु का शिष्य उनके द्वार से निराश लौट जाए, इससे बढ़कर अमंगल और दुःख की बात और क्या हो सकती है ?

“क्या कहूँ राजन! पिछले समय किए गए आपके विश्वजित् यज्ञ से अनुसन्धानरत ऋषिगणों का उत्साह द्विगुणित हुआ है। आपने जिस तत्परता से पिछले शोध-निष्कर्षों को जनसामान्य तक पहुँचाया, उससे वे सभी अति उत्साहित है। इसी उत्साह में भरकर उन्होंने प्राकृतिक आपदाओं को रोकने के लिए एक महत्वाकाँक्षी शोध योजना बनायी है। इसमें चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का व्यय अपेक्षित है। इसी उद्देश्य से ऋषिगणों ने मुझे अपना प्रतिनिधि बनाकर आपके पास भेजा है।

“अच्छा...। “ अमित पराक्रमी राजा के सामने क्षण भर के लिए एक ऊँची अंधकारमयी दीवार-सी खड़ी हो गयी।

“नहीं ऋषिवर ! ऐसा कदापि सम्भव नहीं कि रघु की झोपड़ी से आप इस प्रकार निराश लौट जाएँ। रघु अपने शरीर के रक्त की एक-एक बूँद और प्राणों की एक-एक श्वास शेष रहते आपको विश्वास दिलाने का प्रयास करेगा कि ऋषि सत्ताओं की इच्छाओं को आज्ञा व कर्तव्य के रूप में पूरी करके ही राजपुत्र धरती पर जीवित रह सकता है। आप विश्राम करें दो चार दिवस...........।”

राजा के पुरुषार्थ ने उनकी आत्मा को ललकारा, जो समष्टि में समायी हुई थी। आज उसके सामने अद्भुत चुनौती थी। उसके पौरुष ने हार मानना नहीं सीखा था। उसके साहसिक अभियानों की कहानियाँ लोक विख्यात थीं, जनता उन्हें चाव से सुनती थी, क्योंकि राजा उनका नितान्त अपना था।

सैनिक अपने राजा के साहसिक अभियानों की बात बड़े उत्साह एवं उल्लास से लोगों को सुनाते थे। प्राग्ज्योतिषपुर (असम) नरेश ने किस तरह उनकी सेनाओं का आदर-सत्कार करते हुए अपने युद्धकला में निपुण विशालकाय हाथी उपहार में दिए थे। जब अन्य राजाओं की स्त्रियाँ विलाप करने लगीं तो कैसे उनके दयालु राजा रघु ने उनके पति राजाओं को मुक्त कर दिया।

हिमालय पर अपनी विजय पताका फहराने के निमित्त जब उसकी घाटियों और ऊँची-नीची चढ़ाई पर उनके अपने घोड़े दौड़ रहे थे, तो पर्वतीय खनिजों की लाल-लाल धूल टापों से उड़कर हिमालय की चोटियों तक किस भाँति छा गयी थी ? भोज पत्रों का मर्मर स्वर पहाड़ी बाँसों के छेदों में घुसकर कैसा विचित्र स्वर उत्पन्न करता था तथा देवदारु के तनों से बंधे हुए हाथियों के गले की साँकलें रात्रि में कैसे चमकती थीं, यह बताते समय वे सजीव चित्र-सा खींच देते।

भल्ल नामक बाणों से मधुमक्खियों से भरे छत्ते के समान दाढ़ियों वाले बर्बरे यवनो के सिर किस प्रकार कट-कट कर ढेर हो गए थे और काम्बोज की लड़ाई में अख़रोट ही अख़रोट आ झरते थे आदि बताते समय लगता मानो व फिर से काबुल के साहसिक अभियानों में पहुँच गए। सुनने वाले अपने महाराज के साहस पर चमत्कृत रह जाते।

आज वही साहसी महामानव एक कठिनाई में आ पड़ा हैं यह बात भी पहले इन्हीं सैनिकों को ज्ञात हुई। कौत्स का आगमन नागरिकों को जितना चौंकाने वाला था, उनका यकना उससे भी ज्यादा रहस्यमय था। इस रहस्य का भेद जैसे ही नागरिकों को पता चला, वे राजा के लिए कुछ करने के लिए उतावले हो उठे। वणिकों, जौहरियों , किसानों, राजगीरों , स्वर्णकारों , लौहकारों और कुम्भकारों आदि जिसने भी सुना अपने राजा की चिंता और कठिनाई शीघ्रातिशीघ्र दूर करने को आकुल हो पड़े।

रात्रि का द्वितीय प्रहर बीत रहा था कि राजपथ पर भाग-दौड़ मच गयी। पर केवल लोगों की पदचाप सुनायी पड़ती थी, मानो गूँगे चल-फिर रहे हो। हर आने वाला जैसे के भण्डार उड़ेल रहा था। हर एक के मुंह पर एक ही बात थी, हमारे देश के ऋषि हमारे देश का राजा चिरायु हो। ब्रह्मतेज और क्षात्रतेज सक्रिय रहेगा, तो देश सुख-समृद्धि से भरा रहेगा, तो देश सुख-समृद्धि से भरा रहेगा। स्वर्ण देने वालों में से प्रत्येक का सिर ब्रह्मर्षि वरतन्तु और राजर्षि रघु के प्रति श्रद्धावनत था।

ब्राह्मी वेला समाप्त होते-होते महाराज रघु स्नान संध्या से निवृत्त हो नागरिकों की कुशलक्षेम जानने के लिए बाहर निकले। यह उनका रोज का नियम था। कभी-कभी तो वे सूर्य निकलने से पूर्व अपने अश्व सहित 100-200 मील तक परिक्रमा कर डाला करते थे। आज जब महाराज अपने कटिबन्ध में कसी हुई दो तलवारों को चलाते हुए बाहर आए तो उनके अचरज की सीमा न रही।

राजद्वार के सामने स्वर्ण मुद्राओं का एक छोटा−मोटा पहाड़-सा खड़ा था। दोपहर होते-होते वहाँ पर नागरिकों का जमघट-सा लग गया। हर कोई स्वर्ण उड़ेल रहा था।

“मैं अपनी आवश्यकतानुसार केवल चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ ही लूँगा।” ब्रह्मचारी कौत्स नियम बँधे थे।

“पर यह धनराशि तो आपके निमित्त आयी है। इसे आपको ही लेना होगा।” महाराज का आग्रह था। ऋषि ने सहायतार्थ नागरिकों की ओर नजर उठाई।

“यह संकल्पित अर्थ है। हम नहीं लेंगे और फिर आपकी कृपा से हमारे पास क्या कमी है।” सभी

ने एक स्वर से मना कर दिया और मुँह फेर कर चल दिए। अन्त में महाराज को उसे राजकोष भिजवाना पड़ा, ताकि फिर से वह जनकल्याण के काम आ सके।

राजा रघु और ऋषि कौत्स, अब तक नेत्रों से जनसमूह को देखते हुए सोच रहे थे कि यदि देश का नेत्रों से जनसमूह को देखते हुए सोच रहे थे कि यदि देश का ब्रह्मतेज एवं क्षात्रतेज सक्रिय एवं कर्त्तव्य रहे तो समाज अपने आप ही उदार एवं दृढ़ चरित्र हो जाता है। धरती स्वयमेव स्वर्गादपि गरीमयी हो जाती है।


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