सतयुग के आगमन का मतलब है-जीवन के मूल्याँकन और मानदण्डों में सात्विक बदलाव। कोई समय अपने आप में अच्छा या बुरा नहीं होता। प्रचलित मानक ही उसे भला या बुरा रूप देते हैं। हर आदमी की चाहत समाज में अपनी पहचान बनाने की होती है। दर्जे पर पड़े रहना कतई पसन्द नहीं। सामाजिक प्रतिष्ठा पाने के लिए वह जमाने के प्रचलित मानदंडों पर जल्दी से जल्दी खरा उतरना चाहता है। अब इस जल्दबाजी को उसका दोष मान लिया जाय, तो और बात है। लेकिन छान-बीन जरा गहराई से करें तो यही पाएंगे कि उसके व्यक्तित्व के ढाँचे को बुरा या भला बनाने वाले साँचे सामाजिक मानक ही है।
अतीत का भारत जग सतयुगी परिस्थितियों से सम्पन्न था, तो उसके मूल में मानव की सात्विक प्रवृत्तियाँ ही कारण थीं। व्यक्ति की योग्यता एवं प्रतिष्ठा का आकलन उसके निष्कलंक चरित्र, उत्कृष्ट चिंतन, शालीन आचरण एवं विनम्र व्यवहार से किया जाता था। त्याग एवं बलिदान के आभूषणों से अलंकृत नररत्न ही प्रतिष्ठा के योग्य माने जाते थे। कालान्तर में सोच व नजरिया बदला। इन मानवीय मूल्यों के स्थान पर आर्थिक सम्पन्नता का आधार खड़ा किया गया। जिसकी कमजोर नींव पर टिकी प्रतिष्ठा की मंजिल चन्द क्षणों की चकाचौंध दिखाकर धराशायी हो जाती है। आज का इनसान अपनी सात्विकता को पूरी तरह से खोकर रासिक एवं तामसिक प्रवृत्तियों के सहारे कुटिलता, बर्बरता एवं छद्म के चक्रव्यूह रचाकर जैसे-तैसे सफल करने , सत्ता हासिल करने, समृद्ध बनने की जुगत भिड़ाने में लगा है।
इस प्रक्रिया से जीवन व्यवस्था बुरी तरह चकनाचूर हो चुकी है। क्योंकि राजसिक एवं तामसिक प्रवृत्तियाँ आर्थिक सम्पन्नता को पाकर ही चुप नहीं बैठती, उनके साथ विलासिता अनिवार्य रूप से जुड़ी है। असंयमित एवं अनियन्त्रित विलासिता का यह दौर समूचे जीवन को रोग-शोक एवं पाप-पतन का जमावड़ा बना देता है। इस सत्य को हम अपने इर्द-गिर्द जाँच-परख सकते हैं। भारत में हाल में हुए आर्थिक उदारीकरण के पश्चात् बहुतायत में अर्थोपार्जन बढ़ा है। फलस्वरूप एक नए वर्ग की फसल उपजी है, जिसे नवधनाढ्य वर्ग कहते हैं। इसने अपनी आर्थिक सुदृढ़ता के साथ प्रतिष्ठा के नए-नए मानदण्ड खोजे है, जो इन दिनों स्टेटस सिम्बल के रूप में प्रचलित-प्रचारित है।
सिर्फ अपने ही देश में ही नहीं, बल्कि समूची दुनिया आज इन्हीं मानदण्डों से अपना मूल्याँकन करती है। समाज के इस वर्ग की नजर में पैसा होना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि इससे विलासिता के संसाधनों की खरीद एवं एकत्रीकरण भी जरूरी है। कीमती वस्त्र , आभूषण, तरह-तरह की विदेशी वस्तुएँ, गाड़ी बंगला जो पहली नजर में ही अपनी विशिष्टता व मूल्यवान होने का परिचय दे दें। स्टेटस सिम्बल को ऊँचा करने के दौर में विदेशी कम्पनियों के महँगे टेलीविजन, वीडियो सेट, सेल्युलर फोन, पेजर तथा नए ढंग की बिल्डिंग पाने की होड़ लगी है। आज समाज में वहीं प्रतिष्ठित व्यक्ति माना जाता है, जिसके घर में चमचमाता डायनिंग रूम खूबसूरत नारीटैक बात चाइना की प्लेट तथा हाथ में बेहद कीमती कार्टिआर या कार्न्कड घड़ियाँ सुशोभित हो रही हों।
वर्तमान प्रतिष्ठा के इन मानदण्डों ने जीवन-पद्धतियों का विदेशीकरण कर दिया है। हरेक जीवन की मुख्य कल्पना विदेशी चीजों को पाने में सिमटी रहती है। इन चीजों को हासिल करके इनका प्रदर्शन और आडंबर करना ही एकमात्र मकसद बनकर रह गया है। लगता है कि आज अपने देश एवं समाज का विकास इसी लक्ष्य को पाने के लिए तड़प रहा है। गुजरती शताब्दी के इस अन्तिम दशक के अन्तिम दौर में विलासिता की वस्तुओं के विदेशी उत्पादों को पाने की अदम्य इच्छा सब ओर देखी जा सकती है। इसे देखकर अचरज होता है, क्या जीवन जीने का मकसद यही सब है ?
हाल के सालों यह दिखावटी एवं आडम्बरपूर्ण सामान अपने देश के बाजारों में कुछ ज्यादा ही अट गया है। अभी कल तक जिनका नाम सुना जाता था, उनको जल्दी से जल्दी खरीदकर अपना घर सजाने के लिए लोग रोजमर्रा की जरूरी चीजों को भी तिलाँजलि दे रहे है। पचास साल पहले जिस देश के लोग जहाँ स्वदेशी अपनाने के लिए अपनी आत्माहुति देने से भी नहीं हिचकता थे, उसी देश के वासी आज इन झूठे ‘स्टेटस सिम्बसल्स’ को पाने के लिए चोरी, स्मर्लिंग को भी बुरा नहीं समझते। इनके लिए पानी की तरह धन बहाना एवं थोथे प्रदर्शन को उजागर कर अभावग्रस्त लोगों में हीनता एवं ईर्ष्या भाव जगाना इनके लिए आनंददायक कार्य बन गया है। लोगों की भोगवादी प्रवृत्ति कहें या कम्पनियों का लुभावना आकर्षण जाल, हर कोई इसमें फँसने व जकड़े जाने के लिए आकुल-व्याकुल है। विदेशी कम्पनियाँ अपनी दिखावे भरी सामग्री को छोटे-छोटे बाजारों में मुहैया करा रही है और हम प्रतिष्ठित बनने के नाम पर अपना सर्वस्व दाँव पर लगाकर भी इन्हें खरीद रहे है।
इन सामग्रियों को बनाने-वाले अर्थशास्त्र के एक सिद्धान्त को उद्धृत करते हैं, ‘माँग पूर्ति का सृजन‘ करती है और इसे ही मद्देनजर रखकर ऐसी वस्तुओं को उपलब्ध कराना उनका यानि कि कम्पनी मालिकों का कर्त्तव्य है। फिर चाहे इसकी कीमत कुछ भी क्यों न हो और इन्हें खरीदने वालों को भले ही कुछ क्यों न करना पड़े। अनेकों अन्तर्राष्ट्रीय कम्पनियाँ इस दौड़ में शामिल है। इनमें से एक है-’हीरों का व्यापार करने वाली ब्यूटीफुल डायमण्ड कम्पनी’। करोड़ों रुपए का कारोबार करने वाली इस कम्पनी ने हाल में ही भारत में विलासितापूर्ण सामग्रियों का अतिशय विस्तार किया है। एक सर्वेक्षण से पता चला कि है कुछ साल पहले टिफैनीज गोल्ड मास्टर, कार्न्कड, नारीटेक जैसे नाम केवल कुछ गिने-चुने पवारों में जाने जाते थे, लेकिन आज की दशा में ये उत्पाद उच्च से उच्च मध्यम वर्ग तक पहुँचते हुए मध्यवर्गीय परिवारों के स्टेटस सिम्बल बनते जा रहे है। विदेशी उत्पाद होने के कारण इनको विदेशों से लाने में पहले काफी दिक्कत उठानी पड़ती थी, परंतु अब तो विदेशी कम्पनियों ने भारतीय बाजारों को इनसे पाट दिया है।
भारतीय बाजारों में ऐसी कीमती चीजों के मिलने का सिलसिला सन् 1996 से कुछ ज्यादा ही शुरू हुआ है। टिफैनी व गोल्डमास्टर के 24 कैरेट के चमकते सोने के आभूषण, कार्न्कड की जगमगाती घड़ियाँ, चश्मे हो या क्रिस्टल वाले काँच के सामान व नारीटेक के चीनी, मिट्टी के बर्तन या मुख्यतः अमेरिका, यूरोन , थाईलैंड और जापान के विश्व प्रसिद्ध उत्पाद है। विकसित देशों की चकाचौंध का अनुकरण करना विकासशील देशों के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। अतः आर्थिक समृद्धि के सर्वोच्च मानदण्ड आज अपने देश के काफी कुछ आवास गृहों को सुशोभित करने लगे है। इनकी शुरुआत बंबई जैसे महानगरों से हुई थी। बाद में दिल्ली, मद्रास, कलकत्ता एवं अन्य महानगरों में इनके पाँव काफी हद तक फैल चुके है। प्रतिष्ठा बटोरने के लिए लालायित लोग बड़े शान से इनका संग्रह करने में लगे हैं। प्रतिष्ठा की इस अंध-मानसिकता ने समाज को दो भागों में विभक्त कर दिया है- एक तो वह वर्ग है ता अपनी झूठी शान की चकाचौंध में स्वयं ही अन्धा हो रहा है, दूसरा वह वर्ग है जो अपनी गरीबी , भुखमरी अशिक्षा की मार से छटपटा रहा है।
‘स्टेटस सिम्बल’ बेचने वाले इन केन्द्रों की विक्रय नीति बड़ी ही लुभावने तरीकों से इनसान की ओछी वृत्तियों को बढ़ावा देती है। ग्राहकों से सम्बन्ध एवं अपनी चीजों का प्रस्तुतिकरण सुपर मॉडलों द्वारा किए जाते हैं। नारी की असीमता एवं अस्तित्व को मॉडल बनाकर, बाजारू रूप देकर धन कमाने का एक नया ही तरीका ईजाद कर लिया गया है। यह आकर्षण जाल इतना लुभावना है कि कमजोर मानसिकता के लोग सहज ही इसमें फँस जाते हैं और एक संक्रामक बीमारी की तरह स्टेटस सिम्बल का रोग उनको अपनी चपेट में ले लेता है।
भारतीय महानगरों में अभी तो केवल ‘सलोन’ कम्पनी की ही वस्तुएँ ही आयी है। अभी तो कार्टियर, पाटेक, फिलिप, हैरीविस्टन, वाटरफोर्ड, टायरान, बेलोक, रायलडाल्टन, पेजबुड, स्वारोवस्की एवं स्टूबेन जैसे अति कीमती कम्पनियों के सामानों का प्रवेश होना बाकी है। स्टेटस सिम्बल बटोरने के लोभी जब इतनी सारी कम्पनियों के सामानों को देखेंगे तो उनका क्या होगा। प्रतिष्ठित होने की यह अंधी चाह में हम अपना विकास कर रहे है अथवा अपने एवं अपने परिवार के लिए तनाव एवं अलगाव की दरारें पैदा कर रहे हैं यह ठहरकर सोचें तो हमें अपने ऊपरी चकाचौंध की क्षणिक आभा के तले सब कुछ अँधेरे में घिरा नजर आएगा। शायद इसीलिए महाकवि कालिदास अपनी अमर कृति अभिज्ञान शाकुन्तलम् में की गए है-
औत्सुक्य मात्र भवसाय यति प्रतिष्ठज्ञ क्लिश्नति लब्ध परिपालनवृत्तिरवे॥
यानि कि ऐसी प्रतिष्ठा की प्राप्ति केवल उत्सुकता को समाप्त कर देती है, किन्तु बटोरे गए इस साजो-सामान की रक्षा करना निहायत कष्टकारी होता है।
इसीलिए भारतीय मनीषियों ने प्रतिष्ठा का यथार्थ मानदण्ड मनुष्य की सात्त्विक वृत्तियों के उत्कर्ष को माना हैं जो अपनी परिणति में जीवन शान्ति और सन्तोष से भर देती है, लेकिन इसे अपना दुर्भाग्य ही कहेंगे कि हम अपना जीवन-स्तर उठाने के लिए वैचारिक एवं भावनात्मक उत्कर्ष का कोई प्रयास न करके आभूषण , फर्नीचर, घरेलू सजावट के समान, सौंदर्य प्रसाधन बटोरने में लगे हैं । बदले में इनकी परिणति हमें तनाव जन्य मानसिक व्याधियों की बढ़ोत्तरी करके हम अशान्त-परेशान होते चले जा रहे है।
गीताकार ने जीवन-सूत्रों को समझाते हुए कहा है। ’अशान्तस्य कुतो सुखम्’ यानि कि अशान्त व्यक्ति को सुख कैसा ? शान्ति आह्लाद एवं प्रसन्नता तो सात्विक मनोभूमि में उपजती एवं पनपती है। शताब्दी के इस अंतिम दौर में हमें अपनी प्रतिष्ठा के मूल्याँकन एवं मानदण्डों पर फिर विचार करना होगा। हमारा व्यक्तिगत ही नहीं सामाजिक, साँस्कृतिक और अन्तर्राष्ट्रीय जीवन गहरे संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। सब ओर भयानक उथल-पुथल छिड़ी है। हर तरफ बदलाव के स्वर है।
ऐसे में क्या हमारी प्रतिष्ठा के ये वर्तमान मानदण्ड भविष्य में अपना अस्तित्व बचाए रख पाएँगे ? प्राकृतिक नियमों एवं जीवन व्यवस्था के जानकर लोगों का जवाब इस बारे में स्पष्टतया नकारात्मक है। बदली हुई परिस्थिति एवं परिवेश में पुरानी चीजें बेकार पड़ जाती है। वसन्त आने पर पुराने पत्तों को झड़ना ही पड़ता है। गर्मी का मौसम आते ही जाड़ों के कपड़े अपनी उपयोगिता गँवा देते हैं।
इक्कीसवीं सदी मानव प्रजाति के लिए सर्वथा नयी परिस्थितियाँ लेकर आ रही है। यह नया युग-मानव की सात्विक प्रवृत्तियों का उत्कर्ष ही ‘स्टेटस सिम्बल’ के रूप में स्वीकार्य होगा। प्रतिष्ठा के नए मानक सद्गुण सत्कर्म एवं सत् चिंतन प्रधान होंगे। अंतर्राष्ट्रीयता भावनात्मक एवं वैचारिक उत्कर्ष के लिए माध्यम बनेगी। श्रेष्ठ विचार एवं रेष्ठ जीवन-पद्धति कहीं की भी हो उसे अपनाना गौरव की बात समझी जाएगी। साधन’-सुविधाओं का आदान-प्रदान स्टेटस सिम्बल को ऊँचा करने के लिए नहीं, जीवन निर्वाह के साधनों को दुनिया के अन्तिम छोर में बैठे इनसान को सुखी बनाने के लिए किया जायगा।
मानव की इस अनिवार्य भवितव्यता को समझते हुए हमारे लिए श्रेयस्कर यहीं है कि प्रतिष्ठा के नए मानदण्डों का अपनाना शुरू कर दें। अभी से किया गया अभ्यास ही भविष्य में अपना स्वभाव बन पाएगा। कहीं ऐसा न हो कि आज के ‘स्टेटस सिम्बल’ बटोरने का लोभ हमें घटिया एवं गो दर्जे का आदमी प्रमाणिक कर दे। सत्य को समझना, तथ्य को अपनाना ही समझदारी है। अपनी सात्विक प्रवृत्तियों का उत्कर्ष करके ही हम भविष्य में अपनी प्रतिष्ठा बचाए रख सकेंगे।