इनसान अपने चिरअतीत से अनंत आकाश में तारों, नक्षत्रों, ग्रह-पिण्डों से अपने संबंध -सूत्र की खोज करता रहा है। अन्तरिक्षीय हलचलों को उसने बड़ी गहराई से अपने जीवन के परिवर्तनों में महसूस किया है। उसी अनुभूति ने बाद में ज्योतिर्विज्ञान का रूप लिया और ग्रह-नक्षत्रों, निहारिकाओं की आधिक बारीकी से छान-बीन होने लगी। धूमकेतु को कुछ अधिक ही अनोखा एवं अद्भुत पाया गया। प्राचीन भारतीय ज्योतिषशास्त्र से लेकर आधुनिक खगोल-विज्ञानी तक सभी इसके प्रति कुछ विशेष ही आकर्षित हुए है। शायद इसका कारण ही इसकी अजीबोगरीब संरचना रही है। इन धूमकेतुओं में सबसे निराला एवं आज का बहुचर्चित हूल बाप्प है। 1995 से ही इसकी झलक सबको चमत्कृत किए है।
इसकी खोज 22 व 23 जुलाई, 1995 में न्यू मैक्सिको अमेरिका के दो अंतरिक्ष विज्ञानियों एलन हेल तथा थामस बाप्प ने की थी। इन्होंने इसे अपनी शक्तिशाली दूरबीनों से सबसे पहले देखा। इन्हीं दोनों खोजी वैज्ञानिकों के नाम पर इस धूमकेतु का नामकरण हुआ-हेल बाप्प। इनके नाम धूमकेतु की वर्तमान पहचान बने, इसका मतलब यह नहीं कि इसके बारे में इससे पहले किसी को कुछ मालूम ही न था। भारतीय ज्योतिष विद्या के वाराणसी स्थित एक संस्थान ‘ब्रह्मगुप्त ज्योतिष विश्लेषण वेधशाला’ के निदेशक गोपाल शास्त्री कारखाँडेकर का दावा है कि ‘वृहद संहिता’ में आचार्य वारामिहिर ने इस धूमकेतु के बारे में विस्तृत जानकारी दी है। हाँ इतना जरूर है कि आज से 1529 वर्ष पूर्व उन्होंने इसे ‘श्वेतकेतु’ के नाम से सम्बोधित किया था। वृहद संहिता के तुचार अध्याय के एक श्लोक में कश्यप श्वेतकेतु के डेढ़ हजार वर्ष पश्चात् देखे जाने की बात स्पष्ट है। इस श्लोक में आगे वर्णन मिलता है कि यह धूमकेतु 1500 साल बाद आकाश के प्रथम चौथाई हिस्से में उदित होगा और दक्षिण की तरफ वामावर्त दिशा में बढ़ेगा। आचार्य वारामिहिर ने एक अन्य श्लोक में इस धूमकेतु की व्याख्या करते हुए कहा है कि इसकी गति ध्रुवतारा और सप्तर्षि मण्डल की तरफ जाते हुए दिखेंगी। यह लगेगा कि यह आकाश को मध्य से काटते हुए दक्षिण की तरफ जा रहा है।
हेल बाप्प की प्रकृति एवं स्थिति का अध्ययन सूर्यग्रहण के दिन किया गया। अध्ययन करने वाले इस दल में भारतीय ज्योतिष विद्या की प्रवीण सुश्री इस्सर भी शामिल है। इनके अनुसार निकट भविष्य में धूमकेतु की कक्षा में विचलन सम्भव है। यह अचरज भरा तथ्य है कि आज से डेढ़ हजार साल पहले, जबकि आधुनिक खगोलशास्त्र का जन्म ही नहीं हुआ था, तब आचार्य वारामिहिर ने धूमकेतु का स्पष्ट वर्णन कर दिया था। इन्होंने 1000 धूमकेतुओं का उल्लेख किया है।
वारामिहिर ने इस धूमकेतु कश्यप श्वेतकेतु के अलावा उद्दालक श्वेतकेतु का भी वर्णन किया है। ये एक हजार साल पश्चात् दिखाई देते हैं। पैतामच्छल केतु 1500 वर्ष बाद एवं सनवर्त श्वेतकेतु 7800 वर्ष बाद नजर आता है। उन्होंने अपने ग्रन्थ वृहद संहिता में न केवल धूमकेतु कि पहचान बतायी है, बल्कि इसकी उत्पत्ति एवं विकास का विस्तृत वर्णन भी किया है। उनके अनुसार उल्कापिण्ड ही धूमकेतु में परिवर्तित हो जाते हैं।
वर्तमान में अन्वेषक वैज्ञानिकों के नाम पर धूमकेतु का नामकरण किए जाने का प्रचलन है। 30 जनवरी, 1996 को एक जापानी खगोलविद् यू. जी. हयाकुताफे के द्वारा देखे गए धूमकेतु का नाम उसके नाम पर हयाकुताफे रखा गया। बहुचर्चित होली धूमकेतु का नाम इसके खोजकर्ता एडमण्ड हेली के कारण हुआ। इस बारे में यह भी मान्यता है कि इसे सबसे पहले चीन में ईसा से 240 वर्ष पूर्व खोजा गया था। अपने समय के महान वैज्ञानिक आइजक न्यूटन के मित्र एडमण्ड हेली ने 1705 में इस धूमकेतु की कक्षाओं की गणना की थी। हेल बाप्प के बारे में भी कहा जाता है कि 4200 वर्ष पूर्व जब सिन्धु घाटी को सभ्यता चरमोत्कर्ष पर थी, तब इसे पहले पहल पहचाना गया था, परन्तु इस बारे में कोई प्रामाणिक विवरण उपलब्ध नहीं है।
धूमकेतु को लोक प्रचलन में पुच्छल तारा भी कहा जाता है, क्योंकि इसकी पूँछ कुछ ज्यादा ही बड़ी है। डॉ. निरुपमा राघवन के अनुसार जब कोई धूमकेतु सूर्य के पास से गुजरता है तब सूर्य की भीषण गर्मी धूमकेतु के ऊपरी भाग को वाष्पित कर देती है। यह वाष्प सूर्य से दूर होने पर जम जाता है एवं पूँछ का आकार ले लेता है। यह पूँछ हमेशा सूर्य से विपरीत दिशा में दिखाई देती है।
हेल बाप्प 25 मीटर चौड़ाई में एक लाख मीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से बढ़ता चला आ रहा है। हेली धूमकेतु की अपेक्षा इसका आकार करीब सौ गुना बड़ा है। इसको देखने के लिए तीन सौ इंच व्यास की दूरबीन का प्रयोग किया गया, जबकि हेली 200 इंच व्यास की तथा हयाकुताफे सिर्फ 40 इंच की दूरबीन से ही साफ नजर आ गए थे। बड़ी दूरबीन की शक्ति धूमकेतु की दूरी एवं उसके आकार का संकेत करती है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि हेल बाप्प पृथ्वी से सात खगोलीय इकाई की दूरी स्थित है। एक खगोलीय इकाई की दूरी पर स्थित हैं एक खगोलीय इकाई 14 करोड़ 16 लाख तीन हजार पाँच सौ किलोमीटर के बराबर होती है। 22 मार्च , 1997 को यह पृथ्वी से साढ़े उन्नीस करोड़ किलोमीटर की दूरी था। अतः नजदीक होने के कारण बहुत चमकीला दिखाई दे रहा था। अभी भी इसे चैत्र नवरात्रि की मध्य वेला तक संध्याकाल में पश्चिमी आकाश में स्पष्ट देखा गया।
धूमकेतु चट्टान, धूल और गैसों से मिलकर बने होते हैं। ये बर्फ के गोले के समान होते हैं। इन्हें भी सौर मण्डल के सदस्य कहा जा सकता है। क्योंकि ये भी अपनी निश्चित कक्षाओं में सूर्य की परिक्रमा करते हैं। जहाँ तक हेल बाप्प का सवाल है-वैज्ञानिकों के असार इसकी पैदाइश 4.5 अरब साल पहले हुई होगी। जो बाद में सौरमण्डल से दूर निकल गए। अमेरिका में ‘नासा ‘ के धूमकेतु विशेषज्ञ माइकेल मुम्मा ने बर्फ का होने की वजह से इसे आसमानी झोल का नाम दिया है। नवीनतम अध्ययन यह सूचित करते हैं कि हेल बाप्प सूर्य की परिक्रमा 4000 वर्ष वाले कक्ष में रहकर करता है। नेहरू प्लेनेटोरियम बम्बई के निदेशक हृी. एस. वेंकट ने इस पर काफी गहन अध्ययन किया है। उनके अनुसार, यह प्लूटो की कक्षा से 10 गुना दूरी पर अवस्थित है। शोध-अनुसंधान के इन प्रयासों में हेल बाप्प में कतिपय जीवन-तत्वों जैसे अल्कोहल तथा कार्बनिक यौगिकों को रेखाँकित किया गया है। क्वीन्स विश्व विद्यालय बेलफास्ट के अन्तरिक्षवेतता एलेन फिटसजमैन ने स्वीकारा है कि हेल बाप्प की समुचित जानकारी अनेक अविज्ञात तथ्यों को स्पष्ट कर सकती है। जर्मन उपग्रह रौजेट (क्रह्रस््नञ्ज) ने तो हयाकुताफे से एकसकिरण के उत्सर्जित होने की जानकारी दी थी।
हेल बाप्प के चमकीलेपन का कारण एलन हेल और थामस बाप्प ने खोजा है।इनके अनुसार यह 11 दीप्ति वाला धूमकेतु है। खगोलविज्ञान में किसी भी खगोलीय पिण्ड को नापने के लिए ‘दीप्ति ‘ को आधार माना जाता है। 6 दीप्ति से ऊपर वाले खगोलीय पिण्ड नंगी आँखों से देखे जा सकते हैं हेल बाप्प की दीप्ति का मान 11 होने के कारण इसका चमकदार होना स्वाभाविक है।
धूमकेतुओं के कई प्रकार होते हैं। इसके अनुरूप इनका परिक्रमा पथ भी भिन्न-भिन्न होता है। केवल अण्डाकार भ्रमण पथ वाले धूमकेतु ही सौरमण्डल में प्रवेश कर मेहमान की तरह आते-जाते रहते हैं। इनके आने-जाने के समय में भी अन्तर होता है। कुछ धूमकेतुओं के वापस लौटने का समय 200 साल के अन्दर होता है। हैली हर 76 साल में सूर्य का एक चक्कर लगा जाता है। हैली का दर्शन सबसे पहले मई 1910 में हुआ था। यह दुबारा जनवरी 1986 में दिखाई दिया तथा अगली बार 2062 में पुनः दिखेगा।
कुछ पुच्छल तारे ऐसे भी है तो एक बार अपनी झलक-झाँकी देकर जल्दी लौट आते हैं, तो कुछ लौटने का नाम ही नहीं लेते। 1811 का महाधूमकेतु तीन हजार वष्र बाद ही दुबारा लौटेगा। 1844 में दिखाई पड़ने वाला पुच्छल तारा तो एक लाख वर्ष तक रहने की इच्छा लेकर आया है। 1864 के धूमकेतु की वापसी यात्रा तो पूरे अट्ठाइस लाख साल बाद होने की सम्भावना है एक वैज्ञानिक आकलन के अनुसार 87 ईसा पूर्व से अब तक 611 धूमकेतुओं को पहचानने का प्रमाण उपलब्ध है। इनमें से 513 देरी सौरमण्डल की यात्रा में निकलते हैं। शेष 18 धूमकेतु 200 साल के अन्दर ही दुबारा दर्शन दे जाते हैं। 1786 से अब तक 65 बार देखा जा चुका हैं ये तो खास -खास पुच्छल तारे है। वैसे छोटे-बड़े पुच्छल तारों की संख्या अपने सौरमंडल के आस-पास लाखों में है लेकिन इनमें अधिकाँश अपने अंधकारपूर्ण शीत गृहों में पड़े रहते हैं। थोड़े ही अन्तरतारकीय अन्तरिक्ष यात्रा पर निकलते हैं।
धूमकेतुओं के बारे में अभी तक कोई सुनिश्चित तथ्य तथा जानकारी नहीं मिल पायी है। फिर भी वैज्ञानिकों ने सूर्य के स पहुँचने पर इनमें होने वाले प्रभावों को रोचक वर्णन किया है। धूमकेतु जब सूर्य के बहुत करीब पहुँच जाते हैं तो दो प्रकार की प्रक्रिया होती है। कुछ तो सूर्य के शक्तिशाली ज्वारीय बल से अप्रभावित होकर वहीं जमे रहते हैं। कुछ इस बल से टूटकर कई खण्डों में विखण्डित हो जाते हैं। इस अन्तरिक्षीय घटना का सबसे ज्वलन्त उदाहरण है धूमकेतु-वेस्ट। सूर्य के पास से गुजरते समय यह चार टुकड़ों में बंट गया था। इस प्रकार की घटनाओं से धूमकेतुओं की उम्र कम हो जाता है सूर्य की वाष्पीकरण ऊष्मा के कारण उनकी बहुत-सी नाभिकीय सतह फट जाती हैं और बेनकाब हो जाता है। धूमकेतु के ये विखण्डित टुकड़े अलग-अलग कक्षाओं को ग्रहण करते हैं
इसी तरह की घटना शूमेर लेवी-9 के साथ घटी। 1992 में यह धूमकेतु दिखाई दिया था। शूमकेर लेवी-9 बृहस्पति के पास से गुजरा ओर फिर बृहस्पति के असीम गुरुत्व बल के कारण इसका नाभिक 21 खण्डों में आ गया। ये सभी 21 खण्डों लघु धूमकेतुओं के रूप में एक सीधी कतार में दिखाई दिए। बृहस्पति की भूमध्य रेखा से 16 जुलाई, 1994 से शुरू होकर 7 दिनों की अवधि में एक-एक करके क्रमिक रूप से टकराए ओर अन्ततः अन्तरिक्षीय हलचल मचाकर सदा के लिए शान्त पड़ गए।
हेल बाप्प का आकर्षण इन सबसे अधिक है, क्योंकि यह खुली आँखों से दिखाई पड़ता है। 1 अप्रैल से इसकी यात्रा सूर्य की तरफ शुरू हो गयी थी। 1 अप्रैल , 1997 को शुरू किए सौर भ्रमण के समय इसकी दीप्ति में पर्याप्त आभा थी। यह दिसम्बर 1995 को एक जाज्वल्यमान तारे की तरह दिखाई दिया था, तब इसकी दीप्ति का मान 10 था। अभी की गणना के अनुसार हेल बाप्प सूर्य और पृथ्वी की दिशा में गतिमान है तथा क्रमशः इसकी चमक जा रही हैं जून 17 से सम्भवतः यह तेजी से सूर्य और पृथ्वी की कक्षाओं से पीछे हटने लगेगा।
नेहरू तारामण्डल की निदेशक डॉ. राघवन के अनुसार भारत में इसे पूर्वोत्तर दिशा में 10 डिग्री की ऊँचाई पर देखा गया। इस सदी के सबसे चमकीले धूमकेतु को भारत सहित पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध के किसी भी स्थान से देखा जा सकता है। इसे उत्तरी गोलार्द्ध में 8 अप्रैल तक एवं दक्षिणी गोलार्द्ध में बाद तक भी देखा जा सकेगा। यह आकाशीय मेहमान आजकल अनन्त आकाश में मनोहारी दृश्य उपस्थित किए हुए है। इसी दौरान तीन खगोलीय चमत्कार हुए, जिन्हें स्पष्ट रूप से देखा गया। सूर्य, पृथ्वी और मंगल ग्रह तीनों एक सीध में थे और मंगल ग्रह सूर्यास्त के समय पूर्व दिशा में उदय हुआ तथा इसकी चमक सामान्य से अधिक थी। पश्चिम में अस्त होने से पूर्व इसने सूर्य की परिक्रमा की।
ये अन्तरिक्षीय हलचलों सिर्फ कहने-सुनने भर के लिए रोचक एवं रोमाँचक नहीं है, इनके प्रभाव भी उतने ही रहस्यमय एवं रोमाँचकारी है। समय-समय पर इसे पृथ्वीवासी अनुभव भी करते रहे है।युग परिवर्तन की इस संक्रान्ति की वेला में इन्हें भविष्यता का सन्देशवाहक भी कहा जा सकता है। ऐसे में जरूरत हमारे उस विवेक की है, जो विधाता के इन संदेशों को समझे और स्वयं को भावी परिवर्तन के लिए तैयार करें।