सफलता की कुँजी ऐसे मिली

May 1997

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लगातार की असफलताओं ने महाराज सूर्यभानुसिंह को विचलित, परेशान कर दिया था। उनके पूर्वजों द्वारा अर्जित गौरव की आभा इन दिनों धुँधली पड़ गयी थी। उन्होंने अपने पिता द्वारा संचालित-शासित मिथिला राज्य की प्रतिष्ठा को देखा था। पूरे भारत में इसकी ख्याति थी। प्रजा भी उनके पिता महाराज का यशोगान करते नहीं थकती थी। लेकिन अब दिन बदल चुके थे। उनके शासन सँभालते ही जैसे सब कुछ बदल गया था। अतीत के गौरव की कहानी के अक्षर अब मिटने लगे थे। अब नगर में जहाँ-जहाँ लूट-पाट और हत्याएँ हो जाती थी।

वह प्रतापी थे, साहसी योद्धा थे। उन्हें न्याय और निर्भीकता प्रिय थी। विद्वानों, कलाकारों, गुणीजनों का सम्मान करना उन्हें आता था। परन्तु अपने सारे सद्गुणों के बावजूद वह प्रजा को अच्छा शासन नहीं दे पा रहे थे। उनके मन में सतत् ये सवाल गूँजता रहता -”आखिर ऐसा क्यों ?” किस कार्य को कब करूं ? कौन व्यक्ति सबसे महत्व का हो सकता है और कौन कार्य सबसे अहम् है?”

इन्हीं तीन प्रश्नों के उत्तर में कुशल व्यवस्था का रहस्य छुपा है। यह सत्य बार-बार उनके अन्तः करण में बिजली की तरह कौंध उठता था। यदि इन तीनों बिन्दुओं को ध्यान में रखकर प्रबन्ध कार्य किया जाए तो असफलता-सफलता में बदल सकती है। ऐसा उन्हें बार-बार लग रहा था।

परन्तु इन तीनों प्रश्नों को हल करेगा कौन ? यह एक प्रश्न था। उन्होंने अपने मंत्री एवं सेवक-सामंतों से विचार-विमर्श किया, लेकिन कोई निदान नहीं निकला। तब उन्होंने एक दूसरी तरकीब निकाली और समूचे राज्य में ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो भी व्यक्ति मेरे तीनों सवालों का सन्तोषजनक उत्तर देगा, उसे मुँह माँगा पुरस्कार दिया जाएगा।

मुँह माँगे पुरस्कार को पाने की लालसा अनेकों को हुईं मिथिला नरेश सूर्यभानुसिंह के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए अर्थशास्त्री भी आए और वैज्ञानिक भी। सैन्य व्यवस्था के विशेषज्ञ भी इस क्रम में पधारे। किसी ने सैनिक गतिविधियों को ओर अधिक चुस्त-दुरुस्त करने की सलाह दी, तो किसी ने आर्थिक नीति में फेर-बदल करने का सुझाव दिया। लेकिन इन सबकी बातों में महाराज को अपनी समस्याओं का समाधान नहीं मिल पा रहा था।

तभी एक तयोतिषी पधारे। उन्होंने घड़ी -पल, मास-दिवस की गणना का जाल फैलाया। अपनी गणना करके उन्होंने मिथिला नरेश को सुझाव देना शुरू किया-अमुक कार्य को करने के लिए आपको अमुक मास, अमुक तिथि और अमुक योग की प्रतीक्षा करनी चाहिए। घड़ी-नक्षत्रों के चक्रव्यूह में महाराज को अपना दम घुटता जान पड़ा। उन्हें ज्योतिष से भारी निराशा हुई।

इन्हीं दिनों राजा को किसी ने बताया कि गौतम ताल के उस पार एक घना जंगल फैला हैं वहाँ एक महान अध्यात्मवेत्ता संन्यासी रहते हैं। जो हर किसी की समस्या का समाधान चुटकी बजाते कर देते हैं। निराशा के घने अँधेरे में उनके मन में एक आशा कि किरण झिलमिलाया। वे एक सैनिक टुकड़ी सजाकर वन प्रदेश की ओर चल पड़े। संन्यासी की कुटिया के मार्ग में सघन झाड़ी फैली थी। राजा को अपनी सवारी रोकनी पड़ी। वे पैदल ही कुटिया की ओर बढ़े। संन्यासी कुदाल थामे मिट्टी काट रहे थे। वृद्ध शरीर , पसीने से लथपथ और थकान के कारण हाँफ रहे थे।

सूर्यभानुसिंह इस दृश्य को देखकर हतप्रभ रह गए। रूढ़ियों और मूढ़ताओं से भरी इस दुनिया में यह व्यक्ति उन्हें अद्भुत लगा। उसके व्यक्तित्व से परिभाषित होता था-ईश्वर परायण श्रमशील जीवन में सच्ची आध्यात्मिकता है। उन्होंने कुछ पलों की चुप्पी के बाद अपने तीनों प्रश्न उनसे चुप रहे ।

इसी बीच एक विलक्षण घटना घटीं एक युवक बचाओ-बचाओ चिल्लाता हुआ कुटिया के भीतर घुसा। युवक की बाँह में ताजा जख्म था, जिससे खून टपक रहा था। राजा भागकर उसकी सहायता के लिए दौड़े। युवक बेहोश हो गया था। मिथिला नरेश उस घायल के उपचार में लग गए, अपनी चादर फाड़कर पट्टी बांधी , फिर मुख पर पानी के छींटे मारकर होश में आते ही युवक फफक पड़ा। बोला-”महाराज मैं तो आपका शत्रु था और आपकी हत्या के इरादे से झाड़ी में छुपा था, किन्तु आपके अंगरक्षकों ने देख लिया और ऐसी दुर्गति कर डाली।”

“तुम मेरी हत्या किसलिए करना चाहते थे बन्धु? “ राजा ने पूछा। युवक कहने लगा-”आपने रामसिंह को पिछले साल फाँसी चढ़वाई और उसकी सम्पत्ति जब्त की थी। यह अन्याय था। वे मेरे बड़े भाई थे।” अब राजा के समक्ष युवक के रोष का कारण स्पष्ट हो गया। रामसिंह को फाँसी बढ़ाने में सचमुच जल्दबाजी की गयी थी राजा ने अपना सकूर मान लिया और युवक को सान्त्वना

देते हुए बोले-’मैं और युवक को सान्त्वना देते हुए बोले-” मैं तुम्हारे भाई को जीवित तो नहीं कर सकता, मगर उनकी जब्त सम्पत्ति को वापस करता हूँ। तुम भी अब हमारे दरबार में रहोगे।”

मिथिला नरेश की विनम्रता और न्याय से युवक खुश हो गया। वह राजा का अनन्य सेवक बन गया। संन्यासी मुस्कुरा पड़े। राजा ने अपने प्रश्नों को पुनः दुहराया तो संन्यासी बोले-”राजनफ! आपके तीनों सवालों के जवाब तो तत्काल घटी हुई इसी घटना में निहित है। जब आप मेरे पास आए वही सबसे उत्तम समय था। यह भी समझिए कि उस वक्त सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति मैं था, क्योंकि यदि आप मेरे पास नहीं रुकते और यहाँ से चल देते तो वह युवक जरूर आपकी जाने ले लेता और सत्कार्य ही सबसे अहम् है, क्योंकि घायल की रक्षा और सहायता करके आपने पुराने शत्रु को मित्र बनाया है। “

संन्यासी के उत्तर से महाराज सूर्यभानुसिंह पुलकित हो उठे। उन्होंने उन महापुरुष के चरणस्पर्श करते हुए वापस लौटने की आज्ञा माँगी, तो उन्होंने सहर्ष अनुमति देते हुए कहा,”महाराज, हमेशा याद रखिएगा, सबने उपयुक्त समय वर्तमान होता है और सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति वही होता है, जो आपके समक्ष खड़ा होता है एवं सबसे अहम् कार्य वह सत्कार्य जो आरम्भ होकर चल रहा है।”


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