विकास की योजना समग्र ही बने

May 1997

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समाज में विषमताजन्य विसंगतियों का जब तक अस्तित्व रहेगा, तब तक विकसित होने का अस्तित्व रहेगा, एक प्रकार से विडम्बना ही कहलाएगी। शिक्षित-अशिक्षित, गरीब -अमीर की असमानताएँ ऐसी है, जिन्हें हटा-मिटा कर ही वास्तविक अर्थों में विकसित बना जा सकता है। उससे कम में नहीं।

आश्चर्य तब होता है, जब इन विद्रुपताओं में डूबे समाज और राष्ट्र भी स्वयं को उन्नत मानने लगते हैं और यह विश्वास करने लगते हैं कि उन्होंने प्रगति की अन्तिम सीमा का स्पर्श कर लिया। यदि प्रगति यही है, तो फिर यही कहना पड़ेगा कि इसकी परिभाषा ही गलत है। धनवान बनना-यह उत्कर्ष का एक पहलू हो सकता है, सम्पूर्ण और पूरी की जा सकती है, पर जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति नहीं। आज मान्यताएँ उलटी हो गई है और सर्वोपरि लक्ष्य भौतिक समृद्धि को ही मान लिया गया है एवं इसी के द्वारा विपन्नता को मिटाने का प्रयास किया जा रहा है। सच्चाई तो यह है कि इस प्रक्रिया द्वारा खाई को पाटने का जितना प्रयास किया जाता है, उतनी ही वह और चौड़ी होती जाती है।

उजाले से अंधेरे को मिटाने का सिद्धान्त सर्वत्र लागू नहीं होता। अर्थशास्त्रियों का यह कथन भी उपयुक्त नहीं कि वैभव की विपुलता द्वारा निर्धनता को मिटाया जा सकता है। वास्तविक समाधान तो तभी हो सकेगा, जब मानवी आस्थाओं और मान्यताओं में घुसी तत्सम्बन्धी विकृतियों का अन्यथा इसके अभाव में कोई भी प्रयास एकाँगी और अधूरा ही कहलाएगा। मान्यताएँ यदि दीन-हीन बनी रहीं और वैभव-विलास की लिप्सा उस पर सन्निपात की तरह सवार रही, तो सम्पदा जन्य विषमता को मिटाने की लाख कोशिश भी कोई परिणाम प्रस्तुत न कर सकेगी।

उदाहरण के लिए , अमेरिका को लिया जा सकता है। इसका न्यूयार्क शहर वहाँ का सबसे ऐश्वर्यवान शहर है, फिर भी वहाँ कंगालों की उपस्थिति लोगों को आश्चर्यचकित करती है। न्यूयार्क की कुल जनसंख्या 73 लाख है। इसका पाँचवाँ हिस्सा अत्यन्त ही दरिद्र जीवन बिता रहा है। इसी से इस आशंका को बल मिलता है कि धन निर्धनता को मिटाने का कोई कारगर उपाय किया नहीं गया, इससे सम्पत्ति के केन्द्रीकरण को बढ़ावा मिला है, जिसके फलस्वरूप धनपति-धनाध्यक्ष बनते चले गए और निर्धन कंगाल।

न्यूयार्क के इन कंगालों को ‘मोल पीपुल’ के नाम से पुकारा जाता है। घरविहीन ये दरिद्र, न्यूयार्क के चारों ओर फैली भूमिगत रेल मार्गों की अंधेरी सुरंगों में रहने के लिए विवश है। इसलिए इनका यह विशेष नामकरण किया गया है। ‘मोल पीपुल’ अर्थात् छछूँदर की तरह बिलों में रहने वाले। खाने के लिए बिलों में रहने वाले। खाने के लिए ये लोग समय-समय पर उसमें समा जाते हैं। होटलों और रेस्तराँओं से फेंकी गई जूठन से इनका उदर-पोषण होता है। इसके अतिरिक्त कुछ लोग खाली कनस्तरों को बेचकर किसी प्रकार अपनी जीवन-नौका खेते हैं।

विलासपूर्ण जीवन बिताने वाले शहर के निवासियों को भले ही इन तहखानों में रह रहें भाग्यहीन लोगों के बारे में पता न हो, पर इनकी विद्यमानता समृद्ध लोगों में हो रहे विकास का एक विकृत पहलू उजागर करती है।

न्यूयार्क के मेनहटन शहर में आय सम्बन्धी विषमताएँ तो पहले से ही मौजूद थीं, पर वर्तमान दशक में वह और भी उग्र हो गई है। आयगत विषमताओं की दृष्टि से अस्सी के दशक में जहाँ इसका स्थान ग्यारहवाँ था, वहीं नब्बे की दशाब्दी में वह पाँचवें स्थान पर आ गया है। इसी से अन्दाज लगाया जा सकता है कि तथाकथित विकास और समृद्धि के नाम पर शहरों की आर्थिक विसंगतियों कितना बढ़-चढ़ कर सामने आ रही है।

यों तो इन बेघर लोगों के पुनर्वास के लिए ‘कोएलिशन फॉर दि होमलेस’ नामक एक संगठन कार्य कर रहा है। पर इन्हें अन्यत्र बसाने और इनका जीवन स्तर सुधारने सम्बन्धी प्रयास में सफलता नगण्य जितनी ही मिली है। गोबर के कीड़े को स्वर्ग-सुख का आनन्द भला और कहाँ मिल सकता है। ऐसी ही स्थिति इन लोगों की है। इतने वर्षों से उस अंधेरी दुनिया में रहते हुए वे उस अंधेरी दुनिया में रहते हुए वे उसके इतने आदी और अभ्यस्त हो गये है कि वहाँ से अन्यत्र किसी खुले मकान में रहने के लिए अब तैयार नहीं। इसके लिए दोषी वे नहीं, वह समाज -व्यवस्था है, जिसने ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कीं।

भौतिक विकास बुरी बात नहीं है, पर इसके साथ-साथ हमारी आस्थाओं और मान्यताओं का परिमार्जन भी होना चाहिए। यदि ऐसा न हो सका, तो जीवन और समाज में संतुलन-समीकरण उत्पन्न करने वाले उस समग्र विकास से हम वंचित रह जाएंगे , जिसके न बन पड़ने पर कितनी ही विसंगतियाँ उठ खड़ी होती हैं? हमारी सोच में यदि आध्यात्मिकता आ सकती, तो इस एक ही अवलम्बन के सहारे हम अपनी भौतिक और आत्मिक दोनों ही प्रकार की प्रगति को साधते हुए उस विकास को उपलब्ध कर सकते हैं, जिसे सर्वोपरि कहा गया है। इससे कम में उस असमानता को दूर कर पाना सम्भव नहीं, जो शिक्षित-अशिक्षित , गरीब-अमीर जैसी कितनी ही विकृतियों के रूप में इन दिनों दिखाई पड़ रहीं है।


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