अरण्य संस्कृति की विविधता जिन्दा रहे

May 1997

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सहयोग -सहकार सृष्टि का मौलिक सूत्र है इसी धागे में हम सब पिरोये है। मानव की अहंवृत्ति से उपजा एकाकीपन और आत्मनिर्भरता का दम्भ विशालकाय दीखने पर भी खोखला और झूठा है। जिन्दगी का हर कदम इस सत्य का अहसास करा देता है कि पारस्परिक निर्भरता के बिना अपने अस्तित्व को बरकरार नहीं रखा जा सकता। मानव समुदाय ही नहीं, सृष्टि सृजन के हर घटक को विधाता ने अपनी आत्मीय भावना के सूत्र में बाँधा है विविधता ने अपनी विविधता का अर्थ अलगाव नहीं, सृजेता के कलात्मक सौंदर्य की अनेक रूपों में अभिव्यक्ति है।

जैविक सर्वेक्षण के अनुसार दुनिया में तीन लाख जातियों की वनस्पतियाँ पायी जाती है। अकेले अपने देश में में लगभग 75,000 तरह की जीव प्रजातियाँ, 45,000 किस्म के पेड़-पौधे ज्ञात है। इस देश की भौगोलिक स्थिति कुछ ऐसी है कि सभी प्रकार के प्राणी वनस्पति यहाँ मिल-जुलकर रह सकते हैं। उत्तर में विशालकाय हिमालय उसके तराई वाले- ऊँचे-ऊँचे स्थान है और दक्षिण में नम व दलदली भूमि में पाए जाने वाले वन है। वन प्रदेशों और मरुस्थल से आच्छादित यह देश संसार की समस्त जैव जातियों में से 40 प्रतिशत से भरा हुआ है। यह विविधता पूरी धरती में अफ्रीका के बाद यहीं पर है।

आदिकाल से धरती पर जितनी जीव प्रजातियाँ यहाँ पायी जाती थीं, आज मुश्किल से उसका सौवाँ भाग ही शेष रह गयी है। जितनी वनस्पतियाँ उपलब्ध हैं, जितनी वनस्पतियाँ उपलब्ध हैं, उसमें से 50 हजार खाने योग्य है। हालाँकि 150 से 200 जातियों को ही भोजन के रूप में उपयोग किया जाता है। मनुष्य की हिंस्रवृत्ति एवं एकाधिकार की भावना ने पर्यावरण को बेहद खतरा पहुँचाया है। आज स्थिति काफी असन्तुलित है। एफ.ए.ओ. के काफी असन्तुलित है। एफ.ए.ओ. के मुताबिक पिछले सौ सालों में कृषक फसलों की 75 प्रतिशत जातियाँ और उसमें निहित आनुवंशिक विविधता सदा के लिए नष्ट हो गयी है। असन्तुलित पर्यावरण की वजह से लगभग 100 प्रजातियाँ हर रोज कृषि कार्यों, शहरों और औद्योगिक विकास वैविध्य बाँधों के निर्माण, प्रदूषण और भूमि कटाव के कारण विनष्ट हो जाती है। 100 करोड़ हेक्टेयर में फैले जैव वैविध्य वाले क्षेत्र ज्यादातर ऊष्ण कटिबंधीय गरीब देशों में है। हार्वर्ड के जीवविज्ञानी ठ. ओ. विल्सन के मतानुसार वनों की कटाई से प्रतिवर्ष करीब 50,000 यानि कि लगभग 140 अकशेरुकी जीवों की प्रजातियाँ लुप्त हो रही है।

जीवों को इतनी ज्यादा प्रजातियाँ भले ही प्रत्यक्ष रूप से हमसे सम्बन्धित न दिखाई दें, लेकिन पर्यावरण से इनका काफी गहरा सम्बन्ध है। प्रकृति की विनाशलीला या वन कटाव इसे खासतौर पर प्रभावित करता है। सन् 1980 से 900 के बीच ऊष्ण कटिबन्धीय देशों में हर साल 154 लाख हेक्टेयर की र से जंगल काटे गए। एशिया और प्रशान्त क्षेत्र में प्रतिवर्ष 20 लाख हेक्टेयर वनों की कटाई होती है। एक अनुमान के अनुसार हर साल 2 करोड़ हेक्टेयर वन काटे जाते हैं। उनमें 80 फीसदी वन-भूमि को खेती योग्य भूमि में परिवर्तन किया जाता है। चौंकाने वाली रिर्पोट है। कि पति सेकेण्ड एक एकड़ ऊष्ण कटिबन्धीय वनों को नष्ट कर दिया जाता है। वनों की कटाई यदि इसी रफ्तार से होती रही तो बीसवीं सदी समाप्त होते-होते 2250 लाख हेक्टेयर वन समाप्त हो जायेंगे।

इसकी परिणति होगी 10 से 20 प्रतिशत वनस्पतियों एवं जंतुओं की हमेशा-हमेशा के लिए समाप्ति । वैसे भी बीसवीं सदी की शुरुआत से अभी तक फसलों की 75 प्रतिशत आनुवाँशिक विविधता नष्ट हो चुकी है। कतिपय दुर्लभ जातियों के वंश का अब नाम ही याद रह गया है। यह संकट जीव जंतुओं पर भी मँडरा रहा है। विकासशील देशों में पालतू पशुओं की तकरीबन 20 फीसदी नस्लें नष्ट हो गयी हैं। यही विनाशलीला मत्स्य उद्योग , पशुपालन तथा अन्य जीव-जगत पर भी अपना कहर बरपाए है। इनसान यदि इस आनुवंशिक विविधता की महिमा न समझ सका तो उसे क्षति उठानी पड़ेगी। इन्हें पुनः प्राप्त कर सकना असम्भव कार्य होगा। फसलों के लिए इससे अनगिनत समस्याएँ उठ खड़ी होगी।

विज्ञजनों का अनुमान है कि खेती की प्रक्रिया ईसा से कोई दस हजार साल पहले प्रारम्भ हो चुकी थी। उस समय भारत के कतिपय क्षेत्रों में जौ ओर गेहूँ की खेती प्रारम्भ हुई। बाद में 6000 वर्ष पूर्व ईराक एवं चीन में भी धान एवं मोटे अनाज की पैदावार शुरू हुई । आज के अत्याधुनिक तकनीकी विकास के अभाव में भी उस समय की खेती उन्नत एवं विकसित थी। मौजूदा दुनिया की खाद्य सुरक्षा पौधों की केवल 15 प्रमुख जातियों पर ही निर्भर है, जबकि उत्तर अमेरिकी इंडियनों ने अपनी खाद्य सुरक्षा के लिए 120 कुलों तथा 444 वेशों यानि कि 1112 प्रजातियों को विकसित किया था।

जैव विविधताओं को संरक्षित करने का मतलब है- अपने सृष्टि कुटुम्ब का विस्तार-प्रसार और आपस में हेल-मेल । विज्ञानवेत्ताओं ने इसके लिए तीन बातें सुझाई हैं इको सिस्टम या परितंत्र के अंतर्गत पर्वतीय परितन्त्र, मरुस्थलीय और तटीय परितन्त्र आता है। अभी तक जैविक विदों को 15 लाख प्रजातियों की ही पहचान हो पायी है। सारे संसार में पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं की लगभग 500 से 800 लाख प्रजातियाँ होने की सम्भावना हैं सूक्ष्म जीव और अकशेरुकी प्राणियों के स्तर पर अभी भी असंख्य किस्मों की खोज किया जाना बाकी है। अतएव पूरे परिस्थितिकी तंत्र का अनुमान लगाना कठिन कार्य है। इस तंत्र में सूक्ष्म कीट-पतंग, अकशेरुकी से लेकर पादप वृक्ष और प्राणियों में से प्रत्येक का बड़ा ही महत्वपूर्ण योगदान हैं

जैव विविधता की एक और खासियत है। इसे प्रजाति के भीतर ही पहचाना जाता है फिलीपीन्स के अंतर्राष्ट्रीय धान अनुसंधान के जीन बैंक में धान के लगभग 90 हजार विभेद संग्रहित है। इनका प्रयोग विश्वभर में किया जाता है। किसी भी प्रजाति का अध्ययन उसके मूल उद्गम स्थल पर किया जाता है। अतः इसकी वृद्धि के लिए परिवेश वातावरण तथा उस प्रजाति के विशिष्ट गुणों को जानना जरूरी है। इसका अगर समुचित अध्ययन हो सका तो उत्पादन में भारी वृद्धि की जा सकती है।

रूस के प्रसिद्ध वनस्पति वैज्ञानिक डॉ. पाविलोव ने सबसे पहले संसार भर में भ्रमण करके पौधे के मूल स्थानों का पता लगाया। इनके इस सर्वेक्षण के निष्कर्ष बताते हैं कि जौ, नरम व कठिया गेहूँ, राई, मसूर, अलसी गाजर आदि फसलों का मूल उद्गम उत्तर पश्च्मि भरत व दक्षिण पूर्व अफगानिस्तान है। डॉ. पाविलोव का यह प्रयास, पुरुषार्थ अनेकों वनस्पति वेत्ताओं का प्रेरणा स्रोत बना है। जैव विविधता के अध्ययन अन्वेषण के लिए अब तो काफी प्रयास जा रहा है। इसी को आधार मान कर सन् 1964 में अंतर्राष्ट्रीय जैविकी कार्यक्रम की शुरुआत हुई।

इसी क्रम में एक नयी तकनीक बायेटेक्नोलाँजी विकसित हुई। इसके लिए संकल्पित ‘सेण्टर फार इलिट ट्रीज ‘ ने इस दिशा में काफी नाम कमाया है। इनकी कोशिश है कि सूखे मरुस्थल एवं बंजर धरती को हरियाली से भर दिया जाय। वातावरण की प्रतिकूलता के बावजूद भिन्न-भिन्न स्थानों पर सी. ई. टी. ने काजू , नीम, इमली, आम की विभिन्न प्रजातियों को विकसित कर लेने में सफलता पायी हैं। इसी सिलसिले में ‘सेण्टर फार प्रोसेस्ड फूड’ अर्थात् सी. पी. एफ. ने भी कई वृक्ष-वनस्पतियों का अन्वेषण किया है।

आज के औद्योगिक समाज में जैव विविधता का अर्थ उसके उत्पादन एवं उत्पाद तक सीमित है। अन्न भोजन के रूप में प्रयुक्त होता है, इसे उत्पादन माना जाता है। यदि इसी उत्पादन को बतौर तीज के सुरक्षित रख लिया जाय तो उत्पादन की श्रेणी में गिना जाता है। यानि कि बीज उत्पादन है एवं अन्न उत्पादन। बायो टेक्नोलॉजी के जरिए विकासशील देशों ने विभिन्न वनस्पतियों की अनेकों किस्मों की खोज की है। लेकिन इनके प्रसार में मानव की अहंवृत्ति फिर आड़े आ गयी । एकाधिकार की भूख की वजह से कतिपय देश इन्हें विश्वभर में फैलाने के लिए राजी नहीं है। इस विषय में माइकेल डी. लेमोनिक का टाइम पत्रिका के 25 सितम्बर , 1995 के अंक में एक लेख प्रकाशित हुआ था। इसके अनुसार यह मानवता एवं समाज के लिए आत्मघाती कदम है।

विज्ञानवेत्ताओं के नवीनतम अनुसंधान से पता चला है कि प्रकृति चाहती है कि सभी संतानें उसी गोद में सुख पाएँ। यही वजह है कि मोनो कल्चर यानि कि एक ही फसल बार-बार उसी जमीन पर उगाते रहना ठीक नहीं माना जाता। ऐसा करने से कृमि एवं रोग के बढ़ने की सम्भावना ज्यादा हो जाती है। 1970-71 में अमेरिका में कार्न ब्राइट महामारी से पूरे देश की लगभग 15 फीसदी फसल चौपट हो गयी। 1970 में एक ही प्रकार के 80 फीसदी संकल मक्के की पैदावार की गयी। फसल तो लहलहायी, परन्तु इसमें उपस्थित टी. साइटोप्लाज्म ने एच. मेउम नाम के फंगस का ऐसा बढ़ावा दिया कि सारी फसल महामारी से तबाह हो गयी।

मोनो कल्चर कृषि में ही नहीं वरन् वृक्षारोपण , मत्स्य उद्योग पशुपालन में काफी घातक साबित हुई है। आज हम अपने देश में फसलों की मात्र दह जातियों, उपजातियों पर निर्भर होते चले जा रहे है। इसी वजह से समय-समय पर काफी हानि उठानी पड़ती है। और अकाल की विनाशकारी चपेट में हम घिर जाते हैं।

इसी तथ्य को ध्यान में रखकर फिलीपीन्सवासी शकरकन्द की 280 किस्में उगाने लगे है। अमेजन में कसावा की 100 किस्में उगाने लगे है। जैव विविधता का महत्व सिर्फ उत्पादन एवं उपज तक सीमित नहीं है। पर्यावरण एवं जीवन के अस्तित्व के लिए इसका मूल्य कहीं अधिक है। इसी बात को समझाने के लिए एफ. ए. ओ’ 1993 में प्राकृतिक विविधता वर्ष मनाया तथा इसके प्रसार के लिए विश्वव्यापी अभियान छेड़ा। इसकी अनिवार्यता न केवल पेड़-पौधों , वृक्ष-वनस्पतियों के लिए है। बल्कि पशुओं जीव-जन्तुओं पर भी यही सत्य लागू होता है। इसे बताते हुए ‘फ्राम कैबेज टू किंग ‘ में पैट मुनी ने स्पष्ट किया है कि प्रकृति एवं पर्यावरण पर व्यापारिक दृष्टिकोण से देखना उचित नहीं है।

जंगलों का पर्यावरण एवं जैव-विविधता के पोषण का संरक्षण व विकास में महत्वपूर्ण स्थान है। किसी भी जाति के मूल लेग यहीं उपजे एवं बाद में समस्त संसार में फैल गए। भारतीय संस्कृति भी अरण्यववासिनी रही हैं जंगल अर्थात् आरण्यक की गरिमा यहाँ किसी तीर्थ से कम नहीं आँकी गयी है। बर्गन यूनिवर्सिटी के मतानुसार संसार में 500 प्रकार की विभिन्न सांस्कृतिक विभिन्नता मध्य दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका, दक्षिण पूर्व एशिया व न्यू गुएना के जंगली क्षेत्रों में अधिक है। भारत तो साँस्कृतिक विविधता का जनक है ही।

प्रजातियाँ चाहे मनुष्य की हो या फिर जीव-जन्तुओं या वृक्ष-वनस्पतियों की, इनमें से प्रत्येक की अपनी मौलिकता है सभी का अपने-अपने स्थान पर महत्व है। किसी को हटा देना या फिर समूल नष्ट कर देना परिस्थितिकी पर विपरीत असर डालता है। ऐसे में हम यदि किसी प्रजाति को पूरी तरह से बुरा समझते हैं, तो इसका मतलब यही है कि हम सिर्फ उसके दोषों से वाकिफ है, गुणों से नहीं। पूरी तरह से सद्गुण सम्पन्न तो सृष्टि का मुकुटमणि कहा जाने वाला इनसान भी नहीं है, फिर पेड़-पौधों जीव-जन्तु कैसे होने लगें ?

हाँ, इनकी गुणवत्ता से परिचित होने की आवश्यकता जरूर है। विभिन्न प्रजातियों की गुणवत्ता से संवाद स्थापित करके हम उनकी प्राकृतिक विभूतियों से लाभान्वित होते रह सकते हैं, पर ऐसा तभी सम्भव है जब हम जैव-विविधता के प्रति जागरुक हों। उसकी जरूरत समण्। इस सत्य से परिचित हों कि हम सब एक दूसरे पर निर्भर है। पारस्परिक हों कि हम सब एक दूसरे पर निर्भर है। पारस्परिक निर्भरता से ही सहयोग-सहकार एवं सद्भाव-सदाशयता पनपती हैं यदि हम अपने सहयोगियों का ही विनाश करने में जुट गए तो न केवल हम निराश्रित हो जाएंगे, बल्कि अस्तित्वहीन भी होना पड़ सकता है। अच्छा है-समय रहने चेतें, स्वयं समृद्ध हों तथा प्रकृति की सभी संतानों को समृद्ध करें। ऐसा करके हम पर्यावरण के बारे में कहे गए वैदिक सत्य को अनुभव कर सकेंगे-

“मधुवाताः ऋतामते मधुरन्ति सिंधवाः”


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