खोने का मंगलमय आनन्द

May 1997

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राजपुरोहित कश्यप के तप, त्याग एवं विद्वता की सुरभि से सारी कौशाम्बी महकती थी। सामान्य नागरिकों से लेकर महाराज जितशत्रु तक सभी उनका हृदय से सम्मान करते थे। कश्यप का सामाजिक जीवन जितना सम्मानित था, पारिवारिक जीवन उतना ही सुखी था। उनकी धर्मपत्नी यशा परिपरायण एवं परम-साध्वी थी। नवजात शिशु कपिल ने उनके दाम्पत्य जीवन की जयोत्सना को शत-सहस्रगुणित कर दिया था। दोनों बड़े प्यार’-दुलार से पुत्र का पालन-पोषण करते हुए फूले न समाते। उनका अधिकतर समय अपने पुत्र को लाड़ लड़ाने में व्यतीत होता था। आखिर उनकी सारी आशाएँ उसी पर टिकी जो थी।

बालक कपिल के बड़े होते ही राजपुरोहित को उसके अध्ययन की चिन्ता होने लगी, परन्तु मातृस्नेह अभी उस पर पढ़ाई का बोझ डालने के लिए तैयार न था। यशा हमेशा हर बार यही कह देती, “ अभी तो इसकी उम्र ही क्या है? यह कितना छोटा है। आखिर अभी से आप इसकी पढ़ाई के लिए इतने परेशान क्यों हो रहे है। ?”

इन सवालों का कोई उत्तर कश्यप के पास भले न रहा हो, परन्तु काल के प्रवाह को जानने वाले मनीषी सदा से यही कहते रहे है-”शुभस्य शीघ्रं” यानि शुभ कार्य में देरी नहीं करनी चाहिए। परिस्थितियाँ पता नहीं कब बदल जाये, सुयोग न जाने कब दुर्योग में परिवर्तित हो जाए ? इसलिए काल करे। सो आज कर की नीति का स्वीकारने, अपनाने में ही भलाई है।

कपिल के बाल्य जीवन का सुख भी स्थायी न रह सका। काल के प्रचण्ड झोंके में उसके पिता कश्यप का अवसान हो गया। माता और पुत्र दोनों ही भाग्य के थपेड़े खाने के लिए मजबूर हो गए। सुख और वैभव भरा जीवन दुःख और दारिद्रय में डूब गया। यह सब इतना अचानक हुआ कि यशा यह भी न सोच सकी कि किस तरह ओर कैसे अपने और बालक के जीवन के सार-सँभाल करें ?

महाराज जितशत्रु जो सम्मान कश्यप को देते थे, वह अब बन्द होना ही था। माँ के अतिशय लाड़-प्यार में कपिल अध्ययन नहीं कर सका। अशिक्षित रह गया, अन्यथा अपने पिता को ही तरह उसका भी राजदरबार में मान-सम्मान होता। उसकी माता यशा अपनी दुर्दशा एवं दीनता पर चुपके-चुपके कोने में बैठकर आँसू बहाया करती। वह पुत्र को कुछ कहना नहीं चाहती थी। फिर अब कहने का अर्थ भी क्या था।

एक दिन जब किशोर कपिल बाहर से धमा-चौकड़ी करके, हुड़दंग मचाकर घर वापस लौटा तो देखा उसकी माँ सुबक-सुबक कर रो रही है। माँ को रोते देखकर वह उद्विग्न हो गया। वह जैसा भी था, अपनी माँ को बहुत प्यार करता था, अपनी माँ को गहरा आघात-सा लगा। उसने माता से पूछा-” माँ तू क्यों रोती हैं ? तुझे क्या कष्ट है? “

इतना सुनते ही यशा बिलख कर रोने लगी। तनिक सांत्वना मिलने पर वह बोली, “ रोऊँ नहीं तो क्या करूं, बेटा! तेरे पिता के न रहने पर घर में कुछ भी तो नहीं रहा। कल तो सम्मान से सिर झुकाते थे, आज वही व्यंग्य करते हैं। तेरे अध्ययन में मैंने रुचि नहीं जली। तेरे पिता की चिन्ता कितनी वाजिब थी, परन्तु अपने मोहवश उसे ठीक से समझ न सकी। आज उसी के कारण ये दुर्दिन देखने पड़ रहे है।”

माँ की वेदना से मर्माहत कपिल की आत्म इस शुभ क्षण में जाग उठी। वह भावुक स्वर में बोला , “माँ तू रो मत। मैं पढूँगा। तू फिक्र छोड़ दे। ज्ञान की गरिमा को मैं समझ गया हूँ। मैं एक सच्चा ब्राह्मण बनूँगा। तू मुझे आशीष दे कि मैं अपना बनूँगा। तू मुझे आशीष दे कि पूँजी कमा सकूँ परन्तु मुझे विद्या देगा कौन ?”

“बेटा! इसका रास्ता है।“ यशा पुत्र में आश्चर्यजनक बदलाव को देखकर हतप्रभ थी। वह आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता के साथ कहने लगी,” अपने संकल्प को दृढ़ करके तू श्रावस्ती चला ता। वहाँ पर तुम्हारे पिता के परमस्नेही मित्र इन्द्रदत्त रहते हैं। आचार्य इन्द्रदत्त तुम्हारे पिता के मित्र ही नहीं प्रकाण्ड विद्वान और प्रख्यात मनीषी भी है। वे तुम्हें जरूर अध्ययन कराएंगे।”

माँ का आशीष लेकर कपिल अध्ययन के लिए चल पड़ा। वह श्रावस्ती में आचार्य इन्द्रदत्त के यहाँ पहुँचा। वह उनके गुरुकुल के वित्रमान वातावरण को देखकर अभिभूत हो गया। वहाँ हजारों विद्यार्थी अपनी ज्ञान पिपासा को तृप्त करने के लिए आते थे। जिधर नजर डाली उधर ही तप एवं ज्ञान की आंधी दमक रही थी। कपिल ने अपना परिचय देकर आचार्य इन्द्रदत्त से निवेदन किया, “मुझे आप अध्ययन की दीक्षा दें, मैं आपकी शरण में हूँ।”

आचार्य अपने प्रिय मित्र के पुत्र को देखकर विभोर हो उठे।उन्होंने सका हाथ पकड़कर अपने पास बिठाया और कहा, ‘पुत्र ! मैं तुम्हें अवश्य विद्याध्ययन कराऊँगा।”

आचार्य ब्राह्मण थे, सर्वथा अपरिग्रही ब्राह्मण । एक क्षण के लिए उनके मन में उसके भोजन के सम्बन्ध में विचार आया। कुछ पल सोच-विचार के बाद उसे वे वहाँ के नगरश्रेष्ठ शीलनिधि के पास ले गए और उन्हें निवेदन किया, “रेश्ठिवर ! यह मेरे परममित्र का पुत्र है। यहाँ अध्ययन की भावना से मेरे पास आया है, परन्तु मैं इसके भोजन प्रबन्ध के लिए चिन्तित हूँ।”

श्रेष्ठी शीलनिधि को आचार्य की प्रामाणिकता पर पूर्ण विश्वास था। उन्हें यह यकीन था कि आचार्य का आग्रह हमेशा लोकहित की कामना से होता है। वे कहने लगे-”इसमें चिंता कैसी? आपका आग्रह तो मेरे लिए आदेश है।” कपिल के कन्धे पर हाथ रखकर बोले- पुत्र कपिल आज से तुम प्रतिदिन मेरे यहाँ भोजन करना और मन लगाकर पढ़ना।”

अध्ययन प्रारम्भ हो गया। दिन-प्रतिदिन कपिल की प्रतिभा निखरती गयी। व्याकरण, साहित्य, दर्शन के मर्म को वह आत्मसात् करता गया। ज्ञान को तेज उसके हरे पर उभर आया। साथ ही यौवन की आभा भी दीप्त हो उठी। वह प्रतिभाशाली था, सुन्दर था और गुणवान भी। शीलनिधि की कन्या चन्द्रकला उसकी कंचन-सी काया और स्वप्निल नेत्रों पर मुग्ध हो गयी। उसके नेत्र बाणों से कपिल भी आहत हो गया। शनैः-शनैः वे दोनों एक दूसरे के मोहपाश में बँध गए।

अवसर पाकर जब-तब वे दोनों उद्यान में चले जाते और परस्पर कल्पनाओं के यान में बैठकर मनोमय लोक में विहार करते रहते । हर दिन मनोमय लोक की आभा भी हर दिन उनकी कल्पनाओं का यान नया होता। मनोमय लोक की आभा भी हर दिन अपेक्षाकृत अधिक लुभावनी होती। चन्द्रकला कपिल की साहित्यिक शब्दावली एवं भाँति-भाँति की उपमाओं से रससिक्त प्रशंसा से हर्षविभोर हो जाती। कपिल भी चन्द्रकला के मादक यौवन को अपने ऊपर न्यौछावर होते देख फूला न समाता।

चन्द्रकला कपिल के प्रेम में भले ही आबद्ध हो गयी हो, परन्तु पिता से पाए व्यावसायिक संस्कार उसमें पर्याप्त थे, एक दिन एकान्त में उसने कपिल को समझाते हुए कहा-”सुनो अब आन अध्ययन को त्याग कर उपार्जन करो।”

“पर आखिर क्यों? “ कपिल सर्वथा अनजान था।

“आप तो निरे बुद्धू हो, समझते क्यों नहीं ? अभी तक तुम अकेले थे। अब हम दो होंगे। विवाह के बाद, तुम्हें मेरे पिता के घर इस तरह भोजन करते हुए अच्छा लगेगा।”

“क्यों नहीं अच्छा लगेगा!” कपिल ने इधर-उधर ताकते हुए कहा। “आखिर वे हमसे इतना स्नेह करते हैं,”

“स्नेह की बात और है, मेरे स्वामी ? पर स्वाभिमान भी कुछ होता है ?’

“ओह !” उसे चन्द्रकला की बातें कुछ-कुछ समझ में आयीं। वह थोड़ा चिन्तित-सा हो गया। “ तब तो अर्थ उपार्जन करना ही पड़ेगा, परन्तु मैं अर्थ उपार्जन करना जानता कहाँ हूँ ?”

“आपको अर्थ उपार्जन करना नहीं आता, यह तो मैं जानती हूँ।” चन्द्रकला उसके भोलेपन पर मुस्कुरा रही थी, “ परन्तु आपको श्लोक रचना करती तो आती है न ?”

“हाँ ! “ कपिल ने स्वीकारा।

“तब सुनो ! श्रावस्ती के महाराजा प्रसेनजित विद्याप्रेमी है। वे सरस्वती की उपासना करते हैं। उनका नियम है कि प्रातःकाल यदि कोई मनुष्य नया एवं सुन्दर श्लोक सुनाए तो उसे वे दस स्वर्ण मुद्राएँ भेंट करते हैं। हाँ इतना जरूर है कि प्रातःकाल शीघ्र वहाँ जाना पड़ता है। बोलो कल जाओगे ?” चन्द्रकला ने कपिल से पूछा।

“हाँ! अवश्य जाऊँगा ।”

चन्द्रकला ने एक रहस्यमय मुसकान के साथ अपनी बात जारी रखी।” इसमें एक रहस्य भरी बात और है, इसे तुम चूर्नाती कह सकते हो और परीक्षा भी।”

“वह क्या ? “ कपिल इस बार थोड़ा चकित हुआ और हैरान भी। चन्द्रकला कहने लगी, “ कल गुरुवार है, विद्या के उपासकों का विशेष दिन। महाराज प्रसेनजित को अपने राजदरबार के लिए राजकवि की तलाश है। उन्होंने सोच रखा है कि कल के दिन जो भी उन्हें सर्वप्रथम श्लोक सुनाएगा, वह यदि उनके मन को भा गया तो उसे राजकवि बना दिया जाएगा।”

यह सुनकर तो कपिल की नींद गायब हो गयी। उसने सोचा कि यदि वह सुबह सर्वप्रथम न पहुँच पाया तो ? इसलिए रात्रि में ही राजमहल के पास खड़े रहना ठीक है। अपनी सोच के अनुरूप वह राजमहल के द्वार के समीप खड़ा हो गया। जब आँखों में नींद आए, तो वह वहाँ घूमने लगता। कहीं कोई दूसरा व्यक्ति श्लोक लेकर उसके पहले न आ जाए। साथ ही उसे इस बात की चिन्ता थी कि कौन-सा श्लोक सुनाया जाय, कि महाराज प्रसन्न हो जाएँ।

उसे व्यग्र चित्त घूमते हुए सन्तरी ने देख लिया। उसने सोचा जरूर यह कोई चोर है। सन्तरी ने उसे पकड़ कर कमरे में बन्द कर दिया। उसके लिए वह रात्रि कालरात्रि बन गयी। श्लोक की चिन्ता छोड़कर वह सोचने लगा कि कल जब नगर में ज्ञात होगा कि कपिल रात्रि में कारागार में था, तब आचार्य तथा शीलनिधि का हृदय कितना दुःखी होगा? अब मेरा क्या होगा ?

सुबह राजदरबार में महाराजा प्रसेनजित के सामने जब उसे खड़ा किया गया, तब उसने सब कुछ सच-सच बता दिया।

महाराजा उसके सत्य वचनों से प्रसन्न हो गए ओर बोले, “कपिल ! तुम्हारी सच्चाई से मैं प्रसन्न हूँ। तुम्हें जो चाहिए, वह तुम मुझसे माँग सकते हो।” वह तो अचंभे में पड़ गया। उसने तो सोचा था कि उसे दण्ड मिलेगा, पर यहाँ तो कुछ और ही। वह बोला-” मैं क्या माँगू, यह मैं नहीं सोच पा रहा हूँ। मुझे आप सोचने के लिए थोड़ा समय दें।”

प्रसेनजित ने उसका निवेदन स्वीकार कर लिया। वह राजोद्यान में बैठकर सोचने लगा, महाराज से क्या माँगू ? विचार आया कि एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ माँग लूँ । फिर मन में आया कि इतने से क्या होगा, आधा राज्य ही क्यों न माँग लूँ ? लेकिन आधा राज्य माँगने से इससे तो अच्छा होगा मैं उनका पूरा राज्य ही माँग लूँ।

यह विचार आते ही वह काँप उठा। अरे रे ! मैं यह क्या सोच रहा हूँ ? जो मुझे देने बैठा है उसको लूट डालने की मैं योजनाएँ बना रहा हूँ? उसकी आँखों में आँसू छलछला आए। उसकी अन्तरात्मा उसे धिक्कारने लगी । जाग्रत आत्मा उसे सचेत करने लगी, अभी तो इन्द्रिय भोगों, विषयों की कल्पना करने से तू इतना उद्विग्न है। लिप्सा के भंवर में फँसकर रात्रि तू कारागार में रहा। जब विषयों के बीच रहेगा, तब तेरा क्या हाल होगा? इन्द्रिय भोगों से कौन तृप्त हुआ हैं। जीवन का वास्तविक गौरव तो कुछ भी नहीं माँगने में है। बस फिर क्या था, बचपन से लेकर युवावस्था तक के सारे दृश्य उसके नेत्रों के सामने एक-एक कर तैर गए। उसे संसार से विरक्ति हो गयी।

उसने राजदरबार में पहुँचकर कहा-”राजन! मुझे क्षमा करें, मैं अब कुछ भी नहीं माँगना चाहता। मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। मैं आज से सम्पूर्ण त्यागी बनकर संयम में महा मंगलमय मार्ग पर जा रहा हूँ। आपका कल्याण हो।” और वह ब्राह्मणत्व के उस सत्य मार्ग पर चल पड़ा, जहाँ अपरिग्रह उसका आदर्श था, संयम उसका सम्बल। तप और विद्या ही उसकी संपत्ति थी, जिसके बल पर उसने अपने साथ अन्यों के जीवन को भी आलोकित कर दिया।


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