अपनों से अपनी बात- - श्रद्धा-समर्पण को कसौटी पर कसने का समय है यह

May 1997

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बर्बर-आसुरी शक्तियां जब हारने लगती है ,तब उन्हें मायाचार सूझता है। ऋषियों एवं देवों के तप-तेज के सामने अपनी विध्वंसक प्रवृत्तियों को फीका पड़ते देखकर वे छल-छद्म, कपट, कुटिलता का सहारा लेती हैं जिस किसी तरह से नवनिर्माण की पक्षधर देवसेना में फूट पड़ जाए, दैवी शक्तियाँ भ्रमित होकर आपस में ही लड़ने-झगड़ने लग जाएँ ऐसे किसी भी हथकण्डों को अपनाने से ये बाज नहीं आती। भले ही उनकी ये चालें कितनी ही ओछी, शर्मनाक ओर घटिया क्यों न हों। इन कुटिल चालों में फँसकर अपने ही साथियों पर दोषारोपण करने वाले, अपनों से ही वैर भाव रखने वाले भूलवश या अनजानों में ही सही असुरता के पक्षधर बन जाते हैं वही असुरता जिसके खिलाफ उन्होंने संघर्ष करने का संकल्प किया था। जिसके समूल नाश के लिए उन्होंने अपने सर्वस्व की आहुति दे डालने का साहस जुटाया था। जब उन्हें अपनी भूल समझ में आती है, तब पता चलता है कि उन्होंने अपने ही नवसृजन अधीयान का कितना नुकसान कर डाला। अपने कृत्यों से उन्होंने अपने ही सेनानायक को अनगिनत घाव दे डाले।

असुरता का यह मायाचार नया नहीं है। जब-जब देवी व आसुरी शक्तियों में संघर्ष हुआ है, पलायन के क्षणों में असुर यही रीति-नीति अपनाते रहे है वैदिक एवं पौराणिक साहित्य इसके रोचक व रोमांचक विवरणों से भरा हुआ है। रामायण एवं महाभारत में इसके अनगिनत प्रसंग देखे और पढ़े जा सकते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में इन प्रसंगों को बहुत रुचिकर ढंग से सँजोया है। हारते हुए रावण की सोच को बताते हुए वह लिखते है-

रावन हृदय विचारा , भा निसिचर संहार। मैं अकल कपि भालु बहु, माया करौं अपार॥

अर्थात् -रावण ने हृदय में सोचा कि राक्षसी सेना का नाश हो गया है। मैं अकेला हूँ और वानर-भालू बहुत हैं, इसलिए मैं अब अपार माया रचूँ।

माया का अर्थ है-भ्रान्ति-भ्रम या भुलावा। यह मन में प्रकट होती है और उलटे-सीधे काम करवाकर व्यक्ति को लक्ष्य विमुख करती हैं माया के भुलावे में फँसा आदमी खुद के दिमागी फितूर के कारण अपना और अपनों का भारी नुकसान कर डालता है। माया के रंग अनेक है और रूप बहुत। कभी यह स्वार्थ की विभिन्न प्रवृत्तियों के रूप में प्रकट होती है, तो कभी महत्वाकांक्षा के अनेक रंगों की सम्मोहक छटा का जादू बिखेरती है। स्वयं को अध्यात्मवादी कहने और बतलाने वाले भी चित्र-विचित्र अनुभूतियों एवं कल्पित प्रेरणाओं के मायावी पास में बँधे बिना नहीं रहते। कौन किस रूप-जाल में फंसेगा ? इसे जानने में और उसी के अनुरूप भ्रम पैदा करने में असुरता बहुत प्रवीण है। यह असुरता नव-निमार्ण के पक्षधर सेनानियों को अपनी चतुर चालों में सा रही हैं

देव-परिवार के सदस्यों के लिए आत्मावलोकन , आत्म चिंतन एवं आत्म मंथन का समय हैं नवसृजन के ये जुझारू सैनिक चाहे वे गायत्री तपोभूमि , शांतिकुंज एवं ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के कार्यकर्त्ताओं के रूप में अग्रिम पंक्ति में खड़े हो। अथवा फिर अपने-अपने क्षेत्रों में नवनिर्माण के लिए जुड़ रहे कर्मठ सेनानी हों। अपने युग के इस अलौकिक महाभारत में सभी की भूमिका एक से बढ़कर एक है। कोई किसी से कम नहीं। मनुष्यता की इंच-इंच भूमि पर लड़े जा रहे इस युद्ध में यूँ तो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में सभी किसी न किसी तरह से फँसे हुए है। लेकिन अपने परिजनों को, गायत्री परिवार के सदस्यों को यह लड़ाई अग्रिम पंक्ति में खड़े होकर लड़नी पड़ रही है। यही कारण है कि असुरता के कुचक्रों , कुटिल चालों, विनाशक आघातों का सबसे पलता निशाना वही बनते हैं।

यह सच है कि उन्हें स्वयं महेश्वर भगवान महाकाल का संरक्षण प्राप्त है। किंतु यह समर्थ शक्ति हमारे अन्दर सिर्फ श्रद्धा ओर समर्पण के द्वारों से प्रवेश करती है। जिनकी अंतर्चेतना श्रद्धा एवं समर्पण के भावों से ओत-प्रोत है वे ही महाकाल की प्रचण्ड ऊर्जा को धारण कर सकते हैं। जिन्हें यह सौभाग्य प्राप्त है, ऐसे अनुभवी परिजन जानते हैं कि किस तरह वे इन दिनों जीवन व्यवस्था की छिन्न-भिन्न करने वाले विध्वंसक आसुरी आघातों के समक्ष अछेद्य एवं अभेद्य बने रहते हैं। किसी भी परिस्थिति के सामने वे अडिग चट्टान की तरह खड़े रहते हैं। हर आसुरी आघात की भयंकरता उनसे टकराकर चकनाचूर हो जाती है। पर यह होता तभी है जब वे युग देवता के प्रति श्रद्धा एवं समर्पण के भावों का दिव्य कवच पहने हों।

असुरता कितनी ही भयंकर और खतरनाक क्यों न हो, लेकिन उसे अपनी सीमाएँ मालूम है। उसे पता है कि वह दिव्य कवच के सामने कितनी लाचार एवं असहाय है। इसीलिए वह ऐसे भ्रम रचती है, ऐसी भ्रांतियां पैदा करी है कि हम देवसेना के महानायक से विमुख हो जाएँ। विमुख न भी हों तो भी उनके प्रति श्रद्धा-विश्वास एवं समर्पण के भावों में कमी आ जाए। क्योंकि जितने अंशों में ये भावनाएँ हमारे अन्तःकरण में कम होंगी, उतने ही अंशों में आसुरी शक्तियाँ हमें नुकसान पहुँचा सकेंगी। इन भावों में कमी मायाचार फैलाते हैं।

माया का आकर्षण एवं सम्मोहन बहुत ज्यादा है। सारा सद्ज्ञान एवं विवेक धरा का धरा रह जाता है। कहते हैं, महाज्ञानी नारद भी इससे बच नहीं सकें, स्वयं भगवान के वाहन , उनके अति समीप रहने वाले पक्षिराज गरुड़ जी भी इसकी चपेट में आ गए थे। क्योंकि ज्ञानियों के लिए यह ज्ञान का दम्भ बनकर प्रकट होती है। “मुझे तो सब मालूम है।” यह भाव भी अन्तःकरण की विनम्रता, पवित्रता एवं पात्रता को नष्ट कर देता है अज्ञानियों में इसका प्रकटीकरण अहं की प्रतिष्ठा बनकर होता है मैं भला क्यों झुकूँ ? मैं सबसे श्रेष्ठ, सबसे अधिक वरिष्ठ , ये भाव हमारे और आराध्य के बीच विभाजन की दीवार बना देती है। हम उनकी शक्तियों से वंचित रह जाते हैं। प्रभु के सामीप्य का अभिमान भी हमें उनसे कोसों दूर ले जाता है तभी तो ईसामसीह ने कहा था-

ञ्जद्धशस्रह् ख्द्धश ड्डह्द्ग द्यड्डह्यह्ल द्यद्बठ्ठद्ग . ञ्जद्भद्गब् ख्द्बद्यद्य द्गठ्ठह्लद्गह् द्धद्बह्ह्यह्ल द्बठ्ठ द्मद्बठ्ठद्दस्रशद्व शद्ध त्रशस्र.

अर्थात् जो पंक्ति में सबसे पीछे खड़े है, वे प्रभु के राज्य में पहले प्रवेश पाएँगे।

माया के जादू से हमारा अभिमान कभी तो कुछ साधन एवं सम्मान बटोर कर शीर्ष पर जा पहुँचाता है और कभी आहत होकर क्रुद्ध नाग की तरह फुंसकार उठता है। गुस्से में उबलते हुए हम हने लगते हैं , आखिर क्या मिला हमारी दीर्घकालीन सेवाओं के बदले में? क्या पाया हमने अपने भारी-भरकम त्याग और बलिदान का पुरस्कार ? कहते हुए भूल जाते हैं कि सच्चा त्यागी ओर बलिदानी पुरस्कार की माँग से बहुत ऊपर उठ जाता है लेकिन अमुक को तो ढेर सारा सम्मान मिला और अनगिनत साधन-सुविधाएँ, मेरी योग्यता क्या किसी से कम है ? क्या मेरा समर्पण उनसे थोड़ा भी कम है। इन सवालों को उठाते हुए क्या हम अपने ही समर्पण का मजाक नहीं उड़ा देते ?

हम कुछ भी , कहीं भी और कोई भी क्यों न हो ? अपने चिन्तन और कृत्य पर एक नजर डालकर देखें-कहीं हम असुरता के पक्षधर तो नहीं हो गए ? कहीं हम अपनी हठधर्मी में अपने ही नव-सृजन अभियान को नुकसान तो नहीं पहुँचा रहे ? जिसे हम बरसों से अपने रक्त-प्रवाह , प्राण−प्रवाह से सींचते आए हैं संगठन अपने प्रभु का विराट शरीर है, पारस्परिक सहयोग एवं सहकार ही उनकी इस विराट मूर्ति की अर्चना-आराधना हैं तनिक आत्मावलोकन करके देखें कि कहीं हमीं अपने कृत्यों से अपने प्रभु के शरीर पर आघात तो नहीं कर रहे ।

ध्यान रहे मायावी अँधेरा चाहे कितना भी सघन क्यों न हो, परन्तु श्रद्धा एवं समर्पण के झरोखे से आने वाला ईश्वरीय प्रकाश उसे पलक झपकते मिटा देता है भक्त हमेशा मायाचार से मुक्त रहते हैं। तभी महात्मा तुलसी कहते है-

अस विचारि पंडित मोहि भजहीं। पायहुँ ज्ञान भगति नहीं तजहीं॥

यानि कि इस विचार को ध्यान में रखकर ज्ञानी जन भी प्रभु भक्ति का अवलम्बन लेते हैं ज्ञान प्राप्ति के बावजूद वे श्रद्धा-समर्पण के भावों को नहीं छोड़ते । इन दिनों जबकि आसुरी शक्तियों की कुचक्र रचना पूरे जोर-शोर से है, इनकी आवश्यकता और भी अधिक बढ़ जाती है।

हम श्रद्धावान है, नवसृजन अभियान के प्रति समर्पित है, इसकी कसौटी एक ही है कि हम मिशन के गतिशील अभियान के लिए कितने सक्रिय है ? हमारा पारस्परिक सहयोग-सहकार एवं सौहार्द कितना सघन हैं पूज्यवर की अपने शाखा-संगठनों से एक ही अपेक्षा थी कि वे आनंद और अशोक की भूमिका सम्पादित करने में लग जाएँ। गौतम बुद्ध को जिस बोधि वट-वृक्ष के नीचे आत्म-ज्ञान हुआ था, उसकी डालियाँ-शाखाएँ काटकर बुद्धि के शिष्य आनन्द और अशोक के नेतृत्व में एशिया के प्रायः समस्त देशों में ले गए थे और वहाँ उनका रोपण किया था। फलतः उन शाखाओं से उन देशों में भी विशाल बोधि वट-वृक्ष उग पड़े। जिनसे असंख्यों में श्रद्धा का संचार हुआ।

अपने देव परिवार की हर शाखा अपने को बोधि वट-वृक्ष की शाखा माने और यह सोचकर चले कि उसे स्वतन्त्र रूप से विशाल वटवृक्ष के रूप में परिणत होना है। स्थापना को शिथिल करके अपने को, अपने संस्थापक को उपहासास्पद नहीं बनाना है। मिशन में वे सभी तत्व मौजूद है, जिनके कारण मनुष्यों के प्रत्येक वर्ग में, समाज के प्रत्येक पक्ष में उसका स्वागत किया जाए। अपने मार्ग दर्शक द्वारा सौंपे गए आदर्शों एवं सिद्धान्तों के अस्त्र-शस्त्रों से असुरता की हर मुहिम को नाकाम करना कोई मुश्किल नहीं। बशर्ते हम उन्हें प्रयोग में लाएँ। समय की माँग पूरी करने, उलझी हुई समग्र समस्याओं को हल करने तथा मानव जाति का भविष्य उज्ज्वल बनाने की समस्त सम्भावनाएँ इस योजना में निहित है। यह सम्भव है कि कोई स्वल्प-साधनों से इतना बड़ा काम हो सकने में कठिनाई व्यक्त करे। लेकिन अपने नवसृजन अभियान के किसी पक्ष से असहमति या विरोध नहीं कर सकता है। इसे जिन दूरदर्शी युग चिंतन के आधार पर विनिर्मित किया गया हैं , उसे जो कोई गम्भीरतापूर्वक समझने की चेष्टा करेगा,उसे आसुरी तत्वों एवं शक्तियों की पराजय के साथ मानव जाति के सर्वांग सुन्दर एवं उज्ज्वल भविष्य कर झलक स्पष्ट दिखाई पड़ेंगीं।

प्रश्न यह नहीं है कि हम अपने उद्देश्य में सफल होंगे या नहीं-उसमें किसी तरह की कमी की, दैवी शक्तियों की विजय की भवितव्यता में किसी तरह की कोई आशंका नहीं। सन्देह का कारण केवल हम में आपसी तालमेल के अभाव से उपजी शिथिलता है। जिसके कारण हो सकता है, हम जुड़कर भी बिछुड़ जाएँ। हमारी अपनी शाखा का अंकुर प्यासा रहकर सूख जाए। गुरुदेव का संदेश शाखाओं के लिए यह था कि जहाँ भी शाखाओं की स्थापना हुई है, वहाँ उसे कार्यकर्ता अपने स्वेद बिन्दुओं से सींचते रहे। उसे मरने न दें। मरी हुई शाखा उन्हें उतनी कष्टकर होगी जितनी किसी पिता को अपनी प्यारी और छोटी संतान की मृत्यु कष्टकर हो सकती है। यदि अपने श्रम स्वेद एवं डलकते भाव बिंदु से इसे सींचते रहा जाए तो कोई शाखा कभी भी, किसी भी स्थिति में न तो मुरझाने पाएगी और न उनके ऊपर उदासी छाएगी।

जो लोग एक दूसरे की शिकायतें करते हैं, परस्पर दोषारोपण करते हैं, उनके बारे में यही कहना पड़ेगा कि वे शायद असुरता के मायाचार में फँस गए है अन्यथा जिसे अगले ही जीन कदमों बाद विजय वाली है, वह भला कहीं ऐसे उलझाता है, मनुष्य जिस कार्य को महत्व देता है, उसे सबसे पहले स्थान पर रखता है। अहं की प्रतिष्ठा- स्वार्थ का नजरिया इससे श्रद्धा एवं समर्पण से कोई वास्ता नहीं। नवनिर्माण अभियान को यदि निरर्थक नहीं समझा गया है। उसके प्रति सच्ची श्रद्धा है- तो फिर आपसी उलझनों के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं। जिन्दगी की घोर कठिनाइयों के बीच भी अपनी शाखाओं, शक्तिपीठों को सींचते रहना शक्य होगा। शाखा सदस्य इस कसौटी पर खरे ही उतरेंगे ऐसी विश्वासपूर्वक आशा की गई हैं।

इस वर्ष कुछ अधिक ही काम किया जाना चाहिए गर्मी के दिनों में अध्यापक, किसान, विद्यार्थी प्रायः सभी अपेक्षाकृत कुछ फुरसत में रहते हैं। इस फुरसत को मिशन का कार्यक्षेत्र और प्रभावक्षेत्र बढ़ाने में लगाया जाना चाहिए पत्रिकाएँ जहाँ भी जाती है, उन्हें कम से कम दस व्यक्ति अवश्य पढ़े या सुनें तभी उसकी सार्थकता समझी जानी चाहिएं आन्दोलन का मार्गदर्शन , एवं प्रसार ‘प्रज्ञा-अभियान पाक्षिक’ पत्रिका के द्वारा होता है, उसे अधिक लोग मँगाएँ , पढ़े इस पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।

चल पुस्तकालय हर शाखा की सजीवता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। बड़े रूप में यह चलपुस्तकालय शाखाओं की समर्थता के अनुरूप मोटर गाड़ी में सुन्दर एवं सुसज्जित रूप ले सकता है, लेकिन जैसे भी हो हर शाखा को अपने यहाँ समर्थ या दुर्बल चल पुस्तकालय खड़े कर ही लेने चाहिए। दो कर्मठ कार्यकर्ता अपने अवकाश के समय उसे अपने गाँव नगर में घुमाने , जन-संपर्क बनाने, मिशन का प्रयोजन समझाने का क्रम चलाने लगे तो समझना चाहिए, अपने कार्यक्षेत्र में उज्ज्वल भविष्य का उजाला फैलने लगा।

जहाँ अपनी विचारधारा का विस्तार सम्मान तो बहुत हैं संगठन नहीं बना है, वहाँ यह प्रयत्न किया जाना चाहिए कि सम्बद्ध व्यक्ति शाखा सूत्र में आबद्ध हो संगठित हो जाएँ। कहना न होगा कि यह संगठन का युग है। इसमें संघ-शक्ति ही सबसे बड़ी शक्ति हैं युगपरिवर्तन के लिए इस चेतना को विकसित करना अनिवार्य रूप से आवश्यक है।

‘बोलती दीवारें’ आन्दोलन हर जगह बहुत प्रभावशाली सिद्ध हुआ है। उससे सहज ही अनेक व्यक्तियों को प्रेरणा व दिशा मिलती है। अवकाश के दिनों में प्रेरणाप्रद वाक्य दीवारों पर लिखने के लिए लग जाना चाहिए। इस संदर्भ में एक नया प्रयोग यह भी किया जा सकता है कि दुरंगे-तिरंगे-छोटे-पोस्टर छपवाकर दीवारों-खम्भों पर चिपकाए जा सकते हैं। यह उपक्रम दीवारों पर लिखने के समान ही आकर्षक एवं प्रभावशाली है।

शाखा सदस्यों को समयदान एवं अंशदान की शर्त अनिवार्य रूप में पालन करनी चाहिए। समयदान के क्रम में सुशिक्षित व्यक्ति आगामी ग्रीष्मावकाश में युग-निर्माण पाठशालाएँ चला सकते हैं। यदि ऐसी महिलाएँ भी परिवार में हो तो वे अपने समय को दोपहर में महिलाओं की पाठशाला चलाने में लगा सकती है। इन पाठशालाओं में क्रान्तिधर्मी सेट में सम्मिलित पुस्तकों में निहित विचारों के प्रकाश में आगंतुक जनों को वर्तमान समय के महत्व एवं उपयोगिता को समझाया जा सकता है। यह प्रशिक्षण क्रम प्रायः हर शाखा में चलाया जाना चाहिए।

पिछली बार वसन्तपर्व जिस श्रद्धा और तत्परता के साथ देश-विदेश में मनाया गया, उसे अपने परिवार के जीवनकाल में बहुत सफल प्रयोग कहा जा सकता है। इन आयोजनों में प्रायः दो करोड़ जनता ने मिशन की विचारधारा से निकट संपर्क बनाया और उसमें सहयोग देने की उत्सुकता प्रकट की। इन आयोजनों का क्रम आगे भी रखा जाना चाहिए। चुने हुए पर्वों को सामूहिक समारोह के रूप में उसी प्रकार प्रेरणाप्रद पद्धति से मनाया जाना चाहिए। यदि इन पर्वों को वसन्त पर्व जैसी तैयारी के साथ मनाया जाता रहे तो जन जागरण का महान प्रयोजन सहज ही सर्वत्र पूरा होने लगेगा। इससे अपने क्षेत्र में ही ऐसे वक्ता ओर गायक उत्पन्न किए जा सकेंगे, जो समय-समय पर युग परिवर्तन सम्बन्धी विचारधारा को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त कर सकें। भविष्य में सर्वतोमुखी परिवर्तन लाने के लिए व्यापक रूप से जन आन्दोलन खड़े करने पड़ेंगे। उनके लिए पर्व मनाने की प्रक्रिया एक पूर्व तैयारी और अनुभव एकत्रित करने की पाठशाला सिद्ध होगी।

अगला पर्व, गायत्री जयन्ती गंगा दशहरा का ज्येष्ठ सुदी तदनुसार 15 जून रविवार को आ रहा है। रविवार होने के कारण सार्वजनिक अवकाश भी है। उसे मनाने की अभी से तैयारी करनी चाहिए। परमपूज्य गुरुदेव का महाप्रयाण इस तिथि में होने से इसका महत्व और अधिक बढ़ जाता है। कुछ सप्ताह ही शेष है। इतने दिनों में यदि उत्साहपूर्वक तैयारी की जाय, तो उसे वसन्त पर्व से घट कर नहीं वरन् बढ़कर ही मनाया जा सकता है प्रभात फेरी , सामूहिक जप, हवन , कीर्तन, दीपयज्ञ की प्रक्रिया सामान्य हो। युगशक्ति माँ गायत्री के पूजन की प्रक्रिया से परिजन परिचित है। इसमें प्रयोग में लाए जाने वाले कर्मकाण्ड का अनुभव सभी को है।

बात केवल संगीत-प्रवचन की रह जाती है, सो उसके लिए भी स्थानीय क्षेत्र में इसको ढूंढ़-तलाश की जानी चाहिए। प्रवचनकर्त्ता युगसन्धि के इन महत्वपूर्ण क्षणों में निभाए जाने वाले दायित्वों का उपस्थित जनसमुदाय को बोध कराएँ। मंच-मंडप, फर्श , लाउडस्पीकर आदि की

व्यवस्था शाखाएँ आसानी से कर सकती है। टोली बनाकर घर-घर आमन्त्रण देने तथा बुलाने लिए कार्यकर्त्ता निकल पड़े तो उस आह्वान पर जनता की उपस्थिति भी आशाजनक हो सकती है। इस प्रकार जहाँ अभी से ध्यान दिया जाएगा और प्रयत्न किया जाएगा, वहाँ गायत्री जयन्ती पर्व भी बहुत शान से सम्पन्न होगा। आशा की जानी चाहिए कि वसन्त पर्व की अपेक्षा कहीं अधिक जनता उस आयोजन से लाभान्वित होगी।

गायत्री जयन्ती गंगा एवं गायत्री अर्थात् श्रद्धा एवं समर्पण के अवतरण का पर्व है। अपने अन्तः करण में इन तत्वों को धरण करके ही हम युगांतरीय चेतना के माध्यम बन सकते हैं। हमारे अन्तःकरण श्रद्धा एवं समर्पण के तत्वों से भरपूर हैं , इसकी कसौटी यही है कि हम अपनी संघबद्धता को और अधिक सशक्त करेंगे। आसुरी शक्तियों के मायावी जाल से बचेंगे। परस्पर दोषारोपण के स्थान पर पारस्परिक सहयोग-सौहार्द हमारी जीवन-नीति बनेगी। अहं की प्रतिष्ठा के स्थान पर अहं का विसर्जन-विलय हमारा जीवन-सिद्धान्त होगा। महत्वाकाँक्षा का स्थान समर्पित भावनाएँ लेंगी स्वार्थपरता सेवा-भावना में बदलेगी।

असुरता के किसी कुचक्र एवं छद्म नीति के समक्ष न स्वयं घुटने टेकेंगे और न ही दूसरों को ऐसा करने देंगे। परम पूज्य गुरुदेव की सूक्ष्मसत्ता ने गायत्री परिवार के प्रत्येक सदस्य से, प्रत्येक शाखा संगठन से यही आशा रखी है। समस्त शाखा संगठन अपनी संघबद्ध प्रखरता बनाए रखेंगे और उत्साह में कार्यक्रमों में किसी प्रकार की शिथिलता न आने देंगे।


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