सेवा से मिलती है खुदा की जागीर

May 1997

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“या खुदा, अब तो आगे का रास्ता भी नहीं है।” सवार घोड़े से कूद पड़ा। प्यास के मारे गला सूख रहा था। गौर मुख भी अरुण हो गया था। पसीने की बूँदें नहीं थीं, प्रवाह था। उसके जरी के रेशमी वस्त्र गीले हो गए थे। ज्येष्ठ की प्रचण्ड दोपहरी में जरी एवं आभूषणों की चमक आँखों में चकाचौंध उत्पन्न कर रही थी। वे ऊष्ण हो गए थे और कष्ट दे रही थी। वे ऊष्ण हो गए थे और कष्ट दे रहे थे। भाला उसने पेड़ से टिकाया, तरकश एवं म्यान खोल दी। कवच जलने लगा था और उसे उतार देना जरूरी हो गया। केवल कुर्ता रहने दिया उसने शरीर परं मुकुट भी काफी तप चुका था।

“पानी कहाँ मिलेगा ? “ व्याकुल होकर वह इधर-उधर देखने लगा। वन सघन हो गया था। घोड़े पर चढ़कर आगे जाने का मार्ग था नहीं। कहीं भी पानी के लक्षण दिखाई नहीं पड़ हो थे। यहाँ बैठने को तो ठिकाने की छाया भी नहीं। वह खैर के वन में भटक चुका था। काँटों से भरी डालियाँ भूमि तक झुकी हुई थी। सूखकर गिरी टहनियों ने जमीन को बैठने योग्य भी नहीं रखा था। वहाँ फल या जल की चर्चा ही बेकार थी।

“एक पेड़ तो दिखाई पड़ा।”‘ कुछ दूरी पर अर्जुन के विशाल वृक्ष को देखकर उसने लम्बी साँस खींची। किसी प्रकार तलवार से टहनियाँ काटता वह उसकी ओर बढ़ चला। जिधर से आया था, लौट सकता था। पर अब यह सम्भव नहीं था। एक हिरन के पीछे वह बेतहाशा भागा आया था। पगडण्डी भी उसे भूल चुकी थी। सही रास्ते लौट सकना अब मुश्किल था। फिर काफी दूर भी निकल आया था। अब उतनी दूर लौटने की कोई सम्भावना नहीं नजर आ रहीं बड़ी तेजी से प्यास लग रही थी। घोड़ा भी पसीने -पसीने हो गया है। जोर से हाँफ रहा है और मुँह से फेन निकाल रहा है। जहाँ तक याद पड़ता है, मार्ग में कोई बस्ती भी तो नहीं पड़ी। न एक झोपड़ी और न नन्हा गड्ढा ही।

वृक्ष के समीप पहुँच कर बड़ा निराश हुआ। कँटीली झाड़ियों ने तने तक उसे घेर रखा था। पता नहीं कौन सा अपराध किया है कि बैठने की छाया तक नसीब नहीं । मार्ग की झाड़ियों को छाँटने में छाले पड़ गये थे हाथ में। उसका सुकुमार शरीर सूचित कर रहा था कि उसे कभी कोई परिश्रम नहीं करना पड़ा।

अब क्या हो द्य निराश हो गया वह जीवन से ही। हो सकता है, आस-पास कोई तालाब या झरना हो। उसने वृक्ष की ओर देखा। कवच, धनुष , भाला, ढाल, तरकश, मुकुट तथा आभूषण वह पहले ही छोड़ आया था । तलवार भूमि पर रख दी। जरी के कामदार जूत उतार दिए और पेड़ पर चढ़ने लगा। दूर जहाँ तक चढ़ना सम्भव था, चढ़ गया वह।

कही कोई झरना नहीं। चारों ओर बड़े गौर से देख रहा था वह । हो भी तो इन कंटीली झाड़ियों के भीतर कहीं छिपा होगा। पानी का कहीं नामोनिशान नहीं मिल रहा था। हार-परेशान कर बड़ा-दुःख हो गया।

‘वहाँ क्या है ‘ थोड़ी दूर पर अधिक सघन कुछ ऊँचा हरा झुरमुट दिखाई पड़ा। उसे एक आशा से वह उसी ओर देखने लगा। वह खैर का कुँज नहीं हो सकता। नीम, आम, शीशम या ऐसा ही कुछ । कई पेड़ है और वह बीच में सूखा-सूखा क्या झलक रहा है ? किसी झोपड़ी का छप्पर तो नहीं ?

कुछ भी निश्चय न कर सका। दूरी के कारण कुछ स्पष्ट नहीं हो रहा था। पेड़ वहाँ सघन थे। अन्ततः उतर आया वह-यदि झोपड़ी हुई तो मनुष्य होगा। मनुष्य हुआ तो जल भी होगा ही। कुछ न हुआ तो ? मर तो रहा ही हूँ पानी बिना। यहाँ न सही वहाँ। उतर आया वह वृक्ष से नीचे। जूते पैर में डाले, तलवार उठाई, घोड़े की बाग पकड़ी और झाड़ियों छाँटकर मार्ग बनाने में लग गया। धीरे-धीरे ही सही, वह एक-एक कदम उस ओर आगे बढ़ने लगा। यदा-कदा झाड़ियों के काँटे उसके कुर्ते में फँस जाते , जिन्हें हटाते हुए वह सोचने लगा वह अपनी इस शिकार की योजना के बारे में , सब लोग आज अलग-अलग शिकार करेंगे, वह अपने पूरे दल-बल के साथ बघेलखण्ड की सीमा पर डेरा डाले हुए था। बंगाल के विद्रोह का दमन करके लौटते समय प्रयाग से वे सब जंगल की ओर मुड़ गए थे। शिकार का बड़ा शौक जो था उनको। शाही खेमे के चारों ओर फौजी खेमे खड़े हो गए। हाथी और घोड़ों की कतारें लग गयी। तंदूर जलने लगे। उस दिन सबेरे शिकार के लिए निकलने पर घोड़े पर बैठे शाहजादे ने अपने साथी सेनापतियों को आदेश दिया।

यहाँ चीते और तेंदुओं की भरमार है। सेनापति बहराम खाँ ने बताया, “बड़े भयंकर रीछ और बाघ भी है। शाहजादे न होगा। “

“मैं डरपोक नहीं हूँ। “ उसने सेनापति की बातों से अपना अपमान अनुभव किया। उसकी त्योरियाँ चढ़ आयी-”मैं दिखा दूँगा कि मैं किसी से भी अच्छा शिकारी हूँ।” घोड़े को थाप दी उसने । सधा जानवर खुशी से हिनहिना उठा।

“ मेरा मतलब ऐसा हरगिज नहीं था।” बहराम क्षाँ ने सिर झुकाकर गुजारिश की, “ मैं शाहजादे की बहादुरी में यकीन करता है और उनकी शान के खिलाफ एक लफ़्ज़ भी जबान से निकालने की हिम्मत नहीं कर सकता। मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि इधर का जंगल बीहड़ है। दोनों तरकशों के तीरों से ज्यादा तीर भी जरूरी हो सकते हैं और हुजूर जंगल के रास्तों से वाकिफ भी नहीं है। महज खादिम को साथ रहने की इजाजत........।” कोई जरूरत नहीं। शाहजादा तो शाहजादा ही ठहरा। प्रधान सेनापति से यों भी चिढ़ता था वह बार-बार उसका मुँह लगना वह गवारा नहीं कर सकता। “ मेरे पास खूब बजनी भाला है और तलवार भी। मैं महज तीरों पर मुनसहर नहीं करता। कोई बच्चा नहीं हूँ कि रास्ता भूल जाऊँगा। अगर भूल भी गया, तो ढूंढ़ लूँगा। इतना बड़ा खेमा कोई सुई तो नहीं खो जाएगा।”

बहराम खाँ आखिरकार सिपहसालार थे। शाहाजादे के द्वारा उनका यह पहला अपमान था। चुपचाप सह लिया। उन्हें उसकी मूर्खता पर क्रोध के बदले तरस आया,’ फिर भी उन्होंने अधिक आग्रह करने में कोई लाभ नहीं देखा।

दोपहर में जानवर पानी पीने जरूर निकलते हैं। शाहजादा अपना ज्ञान प्रकट करना चाहता था। जो पानी किनारे रहेंगे, वे ज्यादा फायदे में रहेंगे। मैं तो आज उन्हें ढूँढ़ कर उनके घर में ही शिकार करूंगा। उसकी चिढ़ उसे आवश्यकता से अधिक उत्तेजित कर चुकी थी।

“तब मैं शाम को यहीं आपसे मिलूँगा। “ बहराम खाँ इस झल्लाहट से छुटकारा पाना चाहते थे। उन्होंने घोड़े की लगाम उठाई और आदेश की प्रतीक्षा करने लगे।

“शाम को नहीं अधिक से अधिक तीसरे पहर ते।” शाहजादा आज जैसे सेनापति की प्रत्येक बात का प्रतिकार करने में तुल गया था।”सबको तीसरे पहर तक लौट आना चाहिए। शिकार मिले या न मिले। यदि कोई जंगल में भटक जाय तो उसे ढूंढ़ने का अवकाश रहना चाहिए। यदि आप तब तक न लौटे तो मैं आपको ढूँढ़ने निकल पडूँगा। “ व्यंग्य किया उसने।

यदि वह अन्तिम व्यंग्य न करता तो अवश्य सेनापति उनकी बुद्धिमत्ता की प्रशंसा करते।” आपको कष्ट न करना पड़ेगा।” सेनापति ने अबकी बार घोड़ा बढ़ा दिया और अधिक अपमान सहना उनके वश में न था।

“अच्छा। हम लोग भी अलग-अलग रास्ता ले।” शाहजादे ने सबको आदेश दे दिया और किसी को सलाम का उत्तर देने की उसने कोई चेष्टा नहीं की। उसका घोड़ा तीर की भाँति छूटा और और एक ओर दूर जंगल में विलीन हो गया। भटकते-भटकते अब वह इस हाल में था। अपने थके पाँवों से चलता हुआ, वह नीम के पेड़ के नीचे बनी इस झोपड़ी तक आ पहुँचा।

यह झोपड़ी एक भील की थी। वह एकाकी थी। कन्द-मूल, फल तथा वच्य पशु उसके आहार थे। मृग-चर्म, लकड़ी वनौषधि या चार जैसे जंगली फल लेकर वह सप्ताह में एक नि पास के दस मील-दूर वाले कस्बे में बाजार लगने पर जाता था और वहाँ से नमक मसाला, तेल या कपड़ा खरीद लाता। उस कस्बे के अतिरिक्त उसने कोई बाजार या नगर नहीं देखा था। उसे जरूरत भी नहीं थी। बड़े जोर की गर्मी थी। लू चलने लगी थी, वह अपनी झोपड़ी का दरवाजा बन्द ही करने उठा था टटिया लगाकर । तभी सामने नीम के नीचे हाथ में घोड़े की लगाम थामे एक घुड़सवार उसे खड़ा दिखा। वह शेर और चीतों से खेलने वाला जंगली भील काँप उठा। पता नहीं कौन-सी विपत्ति आने वाली है। रेशमी वस्त्र, कानों में झिलमिलाते मणिकुण्डल, हाथ में नंगी तलवार। उसने सवार को बाँधव नरेश का कोई बड़ा अधिकारी समझा ।

भाग जाता वह, यदि उसे तनिक भी अवकाश मिलता। बीहड़ जंगल में उसे कोई ढूंढ़ न पाता । कुटिया में छिपे रहने का भी अवकाश न था। सवार ने उसे देख लिया था। कमर को पूरी झुकाकर माथे को लगभग भूमि के समीप तक पहुँचाकर दोनों हाथों से काँपते-काँपते जुहार की उसने। इतना गोरा तेजस्वी वेशधारी पुरुष उसने पहले कभी नहीं देखा था। पता नहीं बान्धव पति का मन्त्री है या सेनापति? युवराज तो लगता नहीं, क्योंकि मुकुट नहीं लगाए है। वह सोच रहा था।

“पानी मिलेगा भाई।” सवार को झोपड़ी देखकर अपार हर्ष हुआ था। भील उसे जीवनदाता के समान ही दिखाई पड़ रहा था। गला सूख गया था। शब्द निकल नहीं रहे थे स्पष्ट। “ बहुत प्यासा हूँ।”

“हुजूर विराज जावें।” भील झोपड़ी में गया। अन्दर से एक बड़ा-सा झोपड़ी में गया। अन्दर से एक बड़ा-सा बाघाम्बर उसने नीम बूतरे पर शीतल छाया में बिछा दिया। घोड़े की रास पकड़ ली स्वयं उसने। बहुत चलकर आए दिखते हैं। पसीने से शरीर डूब रहा है। तनिक सुस्ता लें। अभी पीने से पानी लग जाएगा। इसे चूसें, प्यास की तेजी मर जाएगी। कई उजली-उजली जड़ उसने एक चौड़े सागौन के हरे पत्ते पर रख दीं।

श्रानत-क्लान्त सवार उसी चर्म पर धम्म से बैठ गया। बैठते ही लेट गया। तलवार से टुकड़ा बनाकर एक टुकड़ा जड़ लेटे-लेटे ही मुख में जाते ही उसने मुँह को पानी से भर दिया। सवार को ऐसा लगा कि जीवन में ऐसा स्वादिष्ट पदार्थ उसने कभी नहीं खाया है।

“आप तनिक विश्राम कर लें।” भील कोई बात कहने से पूर्व झुककर सलाम करता था-”मैं झरने से ठण्डा पानी लाता हूँ। पास ही है। इसे भी पानी पिलाकर नहला दूँगा।” यह कहते हुए झोंपड़ी में से घड़ा ले आया। घोड़े की जीन खोलकर सवार के समीप चबूतरे पर रख दी और घोड़े को लेकर चल पड़ा।

“पता नहीं उसका झरना कितनी दूर है।” सवार की प्यास जड़ी ने कुछ कम अवश्य की दी थी, किन्तु उसे असह्य प्रतीत हुई। उठकर झरना ढूँढ़ने जाने का उसमें साहस नहीं रहा था। बहुत थका था। वायु ने अब तक पसीना सुखा दिया था।

कन्धे पर बायें हाथ से उसने घड़ा पकड़ रखा था और दाहिने में घोड़े की लगाम थी। घोड़ा हिनहिनाता हुआ आ रहा था। पानी पीकर उसने प्यास बुझा ली थी ओर भील ने उसे स्नान करा दिया था। ताजा हो गया था। आते ही उसने घोड़े को छोड़ दिया। वह हरी-हरी घास चरने में लग गया।

“भागकर जाएगा भी कहाँ ?” नीम के चबूतरे पर घड़ा रखते हुए उसने कहा-” भागा भी तो मैं पकड़ लाऊँगा।” कुटिया में से एक भद्दा -सा लोटा पीतल का और एक किसी फल की कड़ी खाली खोखली । लोटे को खूब रगड़ कर माँज दिया था उसने। पानी भरकर सवार के समीप रख दिया । आप हाथ पैर धोवें यह कहना नहीं पड़ा। सवार लोटा भरने से पहिले ही बैठ गया। उसने कुल्ला किया, मुख धोया और भली प्रकार हाथ-पैर भी। पायजामे को यथासम्भव ऊपर सरका दिया था उसने। आज उसने पहली बार अनुभव किया था कि शीतल जल से हाथ-पैर धोने में कितना आनन्द होता है।

“गरीब आदमी हुजूर की क्या सेवा करेगा ?” एक बड़े पत्ते पर कुछ कन्द-फल और कई मोटे-मोटे उज्ज्वल दल वाले फूल रखे थे। भील ने झोपड़ी में से लाकर सवार के सम्मुख उन्हें रख दिया। पत्ता खूब बड़ा था और सवार ने देखा कि उसमें उसके दैनिक भोजन से चौगुना सामान भरा है। पानी पी लिया था उसने जीभर है। पानी पी लिया था उसने जीभर कर। अब उसे बड़े जोर की भूख लगी थी। भूख तो पहले भी लगी होगी, किन्तु प्यास की तीव्रता ने उसे दबा दिया था। प्यास का कष्ट मिटते ही पता लगा कि पेट में चूहे छलाँग भर रहे है। चुपचाप पत्ता सामने खिसका लिया उसने।

एक से एक स्वादिष्ट कोई खूब मीठा, कोई खटमिट्ठा , कोई मन्द एवं सुश्रचिपूर्ण मधुर। कन्द-फूल और फलों में से एक को भी नहीं पहचानता था वह। केवल कमल के हरे बीज भर उसकी पहचान के थे। आगरे में भला क्यों तो ‘चार’ मिली होगी और क्यों कभी तुन्दू खाया होगा उसने। भील उसे प्रत्येक फल या कन्द खाने की विधि बतलाता जाता था। खाने के बाद वहीं एक ओर वह आराम से सो गया। शाम की ठण्डी ब्यार ने उसकी सारी थकान मिटा दी थी।

इधर खेमे पर दोपहर होते-होते सबसे पहले सेनापति लौट आए थे। इनके घोड़े की पीठ पर एक पूरा छह फीट का बाघ लदा था। आते ही उन्होंने अपने निजी सेवकों को जंगल का पता -ठिकाना बताकर भेज दिया। पूरे आधे दर्जन पशु मारे थे इन्होंने । बाघ तो भाले से मारा गया था और उसे वे खुद ले आए थे। एक चीता, एक तेंदुआ, एक रीछ और दो चीतल ये भी उनके तीरों के शिकार बने थे। सेवकों ने खच्चर खोले और वे सब जानवर भोज्य पदार्थ बनने अन्दर आ गए।

अब तक कई शिकारी लौट चुके थे। प्रायः सबको कुछ न कुछ मिला था। कुछ आलसियों ने खरगोश या मयूर पाकर ही सन्तोष कर लिया था। चीते, तेंदुए और रीछ भी कई थे। सबसे अधिक संख्या थी चीतल और हिरणों की। बाघ तो सारे किसी को मिल नहीं सका था।

दोपहर बीतते-बीतते तक सभी आ गए थे। एक बुड्ढे मियाँ जी को कुछ नहीं मिला तो वे दो वनमुर्गियाँ ही कहीं से मार लाए थे। सेनापति ने अपने राजपूत सहायक रामसिंह के काले चीते की प्रशंसा की”बड़ा धूर्त पशु होता है।” उन्होंने बताया।

किन्तु अब तक शाहजादे का कोई अता-पता न था। सब लोग आस-पास के जंगलों में उन्हें ढूँढ़ आए थे। अब तक तीसरा पहर भी बीत चुका था। सिपहसालार बहराम खाँ काफी परेशान थे। उनकी परेशानी जायज थी। उन्हें सूझ नहीं रहा था कि शहंशाह अकबर को क्या जवाब देंगे। शाहजादे ही नहीं हिन्दुस्तान की मुगलिया सल्तनत के वली अहद भी है।

चारों ओर ढूँढ़ -खोज हो रही थी, परन्तु कोई नतीजा नहीं निकल रहा था। तभी सेनापति के राजपूत सहायक रामसिंह ने खबर दी-पास के जंगल में एक पहुँचे हुए फकीर रहते हैं। कहते हैं इनके पास रूहानी ताकतें है। भूत, भविष्य वर्तमान का हाल बता देना इनके लिए कोई मुश्किल नहीं।

मरता क्या न करता। बहराम खाँ ने उसकी बात मान ली। कुछ घुड़सवारों के साथ वह रामसिंह के बताए हुए रास्ते पर चल दिए। पास के जंगल में पीपल के पेड़ के नीचे एक झोपड़ी दिखाई दी। झोपड़ी के बाहर चबूतरे पर एक बुजुर्गवार बैठे दिखाई दिए। उनके बारे में यह मशहूर था कि वह स्वयं हिन्दू, मुसलमान कहने के बजाय खुदा का बन्दा ईश्वर का सेवक कहने में ज्यादा यकीन रखते हैं। मुसलमान उनको पीरबाबा कहते हैं, तो हिन्दू लोग स्वामीजी कहकर पुकारते हैं। बस यही उनका सामान्य-सा परिचय है।

बहराम खाँ के घोड़े उतरते हुए वह मुस्कुराकर कहने लगे-”तो तुम लोग-”तो तुम लोग शाहजादे को ढूँढ़ते हुए यहाँ आए हो। घबराओ नहीं वह आराम से है। मिल जाएगा।”

एक ही साँस में उनके मुँह से इतनी सारी बातें सुनकर सिपहसालार की जान में जान आयी। उसे अचरज था कि फकीर ने उनके मन की बात बिना बताए कैसे जान ली। इस चमत्कार से प्रभावित होकर उसने ओर उसके साथियों ने भक्तिपूर्वक प्रणाम किया।

शाम हो रही थी। इधर के जंगलों के रास्ते से सभी अनजान थे। बहराम खाँ ने हिचकिचाते हुए बुजुर्ग फकीर से कहा-”पीरबाबा, लेकिन हम उन्हें ढूँढ़ेंगे कैसे ?” “चिन्ता न करो, अभी हम उन्हें इधर ही बुला देते हैं।” फकीर ने बड़े आश्वस्त भाव से कहा।

और सचमुच उन्हें थोड़ी ही देर में जंगल के झुरमुट से घोड़े की टापों की क्षीण-सी आवाज और एक मशाल की-सी मद्धिम रोशनी दिखाई दी। बढ़ते पलों के साथ आवाज एवं रोशनी दोनों ही तेज होने लगी। कुछ ही समय में घुड़सवार एवं उसका साथी पास आ गए।

“ओह ! बहराम खाँ ।” आने वाले सवार ने अपने सिपहसालार को पहचान लिया था। “शाहजादा हुजूर आप।” बुजुर्ग फकीर के पास बैठे अन्य घुड़सवारों ने अपने अहद को झुककर सलाम किया। सेनापति ने अपने शिकार की कहानी और उन्हें ढूँढ़ने के प्रयास एवं इन बुजुर्ग फकीर की चमत्कारी सामर्थ्य के बारे में संक्षेप में कह सुनाया।

साथ में आने वाला भील तो पहले से ही स्वामीजी की दैवी शक्तियों से परिचित था। उसके लिए तो वे साक्षात् भगवान थे। अब उसे समझ में आया कि किस अदृश्य आकर्षक शक्ति की बदौलत वह खेमे की ओर जाने के बजाय इस ओर चला आया। इस बीच शाहजादे ने भी अपनी राम कहानी कह सुनायी।

परस्पर की बात-चीत से उबरते हुए शाहजादे ने सेनापति से माँग कर एक टुकड़ा भोजपत्र लिया और एक रंगीन शलाका। कुछ लिखने लगा। बहराम खाँ ने देख लिया कि वह बान्ध्णव पति के नाम युवराज का पत्र है। इस भील को आस-पास का पूरा जंगल जागीर में दे देने का आदेश है उसमें । पत्र सेनापति को थमाते हुए शाहजादे ने बुजुर्ग फकीर की ओर श्रद्धा से देखते हुए पूछा -”मुआफी के साथ जानना चाहता हूँ, आपको ये रूहानी ताकते कैसे हासिल हुई ?”

बुजुर्ग फकीर ने हँसते हुए कहा- सेवा से। जिस तरह आपने इस गँवार भील की थोड़ी-सी सेवा से खुश होकर इइतनी बड़ी जागीर बख्श दी,उसी तरह इस नचीजा बन्दे की सेवा से खुश होकर खुदा ने अपनी रूहानी मिलकियत की छोटी-सी जागीर हमें भी बख्शी है।”

“सेवा का बड़ा महत्व है वली-अहद जिसकी भी सेवा की जाती है, वह अपनी हैसियत के मुताबिक दिए बिना नहीं रहता। यही सोचकर विवेकवान लोग दोनों जहाँ के मालिक और उसके बन्दों की निष्काम सेवा दिल लगा कर करते हैं। “


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