क्यों ले रहा है आज मनुष्य ही मनुष्य की जान

May 1997

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सुबह के समाचार पत्र का पन्ना हमसे-हम सबसे एक ही सवाल अनेक तरह से पूछता है, क्या हम वाकई इनसान है ? यदि हम इनसान है तो पशु से भी अधिक बर्बर और हिंस्र कैसे हो जाते हैं ? किस तरह से हमारे कारनामों की खबरें छपती है ? आत अमुक गाँव अमुक शहर , अमुक प्रान्त, अमुक देश में इतने लोगों की हत्याएँ सामूहिक नरसंहार। हत्याएँ जिसने कीं वे भी इनसान थे, हत्याएँ जिसकी हुई वे भी इनसान थे। सभी प्राणियों में मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जो अपनी ही जाति के प्राणियों की हत्याएँ इतने व्यापक पैमाने पर करता है। इस बारे में तरह-तरह की तरकीबें सोचता है। भाँति-भाँति की योजनाएँ गढ़ता और सरंजाम जुटाता है।

अतीत का इतिहास हो या आज का वर्तमान, सिलसिला कुछ इसी तरह चल रहा है। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान टर्की सेना के 8 लाख से अधिक आरमेनियनों को क्रूरतापूर्वक मौत के घाट उतार दिया था। द्वितीय विश्वयुद्ध में हिटलर के नेतृत्व में नाजी जर्मनी ने 60 लाख से अधिक यहूदियों को निर्ममतापूर्वक यातनाएँ देते हुए तड़पा-तड़पा कर मारा। इसी तरह 1975 से 79 के बीच हुए गृहयुद्ध में कम्बोडिया के साम्यवादी खमेर रोंज ने 20 लाख से अधिक नागरिकों को तरह-तरह की यातनाएँ देकर मार दिया।

आज की दुनिया एवं समाज हिंसा के बढ़ते दौर से गुजर रहा है। भौतिक दृष्टि से सर्वाधिक समर्थ एवं सशक्त देश संयुक्त राज्य अमेरिका दुनिया के सबसे बड़े हिंसक राष्ट्र में गिना जा सकता है दुर्घटनाओं के अलावा होमीसाइड -आज अमेरिका के 15 से 24 वर्ष के किशोर युवाओं में मृत्यु का दूसरा सबसे बड़ा कारण है। 20 लाख से अधिक व्यक्ति प्रतिवर्ष पिटाई, छुरा घौपने या दूसरे हमलों के शिकार होते हैं, जिनमें तेईस हजार दम तोड़ देते हैं, स्काटलैण्ड दूसरे नम्बर पर आता है, लेकिन यहाँ पर इस तरह की वारदातें अमेरिका को एक चौथाई ही होती है।

हिंसा की घटनाएँ मनुष्य की विक्षिप्त मानसिकता की द्योतक है। शान्त एवं प्रसन्न व्यक्ति किसी को मारने उत्पीड़ित करने में विश्वास नहीं करता। ऐसी मनोदशा में इस तरह की बर्बर सोच अंकुरित ही नहीं हो सकती। मानव इतिहास के पन्नों पर नजर डालें तो यही पाएंगे कि कोई भी राष्ट्र, समाज अथवा समाज की इकाई के रूप में स्वयं व्यक्ति सर्वाधिक सृजनशीलता का परिचय तभी सका है, जब वह बर्बरता एवं हिंसा से मुक्त स्थिति में हों सुजन वृत्तियाँ , कला-कौशल , साहित्य, दर्शन, विज्ञान आदि की सोच शान्ति के क्षणों में ही उपजती है। मानवीय गरिमा अपनी चरमावस्था की अभिव्यक्ति ऐसे ही समय में कर पाती है। हिंसा एवं बर्बरता के पल तो शताब्दियों में पूरे किए गए सुजन की एक क्षण में ध्वंस में बदल देते हैं।

मानव की ध्वंयसृत्ति उसकी मनुष्यता पर अमिट दाग है। एक ऐसा प्रश्न चिन्ह है, जिससे उसकी समूची मानवीय भावनाएँ ही सन्देह के घेरे में आ जाती है। इस सवालिया निशान का समाधान किए बगैर मानवीय विकास एवं प्रगति के सारे प्रयास आँशिक एवं अधूरे है। उचित समाधान की खोज के लिए हमें इनसानी प्रकृति की गहराई में जाना होगा। ध्वंस एवं हिंसा की वृत्तियों के मूल में जाकर छान-बीन करनी होगी। यह कार्य स्वयं को मानव प्रकृति का मर्मज्ञ कहलाने वालों के समक्ष चुनौती है। चाहे वे मनोवैज्ञानिक हों या फिर अध्यात्मवेत्ता, इस पहेली को हल करना उनकी सामयिक जिम्मेदारी है।

इन्होंने इसकी महतवपूर्ण गुत्थियों को सुलझाने की समय-समय पर चेष्टा भी की है। मनोवैज्ञानिकों का एक वर्ग , ध्वंस का मूल कारण जैविक वृत्ति को बतलाते हैं। ‘आन एग्रेशन’ नामक ग्रन्थ में काँरेड लारेन्ज , अफ्रीकन जेनेसिस एवं द टेरीटोरियल इम्पेरेटिव नामक शोध अध्ययन में राबर्ट आर्डर तथा ‘द नेकेड एप’ डेस्मंड मोरिस एवं आन लव एण्ड हेट में आई. ईब्ल एवं स्फेल्ड युद्ध हिंसा, अपराध एवं लड़ाई झगड़ों तथा सभी तरह के ध्वंसात्मक कृत्यों के मूल कारण को जैविक वृत्ति या सहजात वृत्ति से जोड़ते हैं। यह वृत्ति अपनी अभिव्यक्ति चाहती है जो समय आने पर प्रकट हो जाती है। फ्रायड ने मानव की ध्वंसात्मक वृत्ति को ‘डेथ इंसटिंक्ट’ या मृत्यु वृत्ति का नाम दिया है। उनके अनुसार यह जीवन की मौलिक जरूरत भी है।

मनोवैज्ञानिक अपने इस अध्ययन में हिंसा के कारणों को खोजने का दावा भले करें, परन्तु वे इसे मूल वृत्ति या जीवन की मौलिक आवश्यकता कहकर इनसान को उसके इनसानी सद्गुणों सत्प्रवृत्तियों से अलग कर देते हैं। उनकी नजर में इनसान दो पैरों पर चलने वाला जानवर भर है।, जो थोड़ा-बहुत सोचता-विचारता भी है। चिकित्सा वैज्ञानिकों ने इसकी खोज-बीन अपने ढंग से की है। उन्होंने साइजोफ्रोनिया तथा सैनिक अवसाद जैसी व्यावहारिक गड़बड़ियों में जीन्स की भूमिका को महत्वपूर्ण पाया है। यूनिवर्सिटी ऑफ कोलेरिडों इन्स्टीट्यूट फॉर बिहेविअरल जेनेटिक्स के प्रोफेसर ग्रेगरी केरी का कहना है कि प्रत्येक व्यवहार में हम जीन्स की भूमिका देख सकते हैं, जिसके करण प्रत्येक व्यक्ति का व्यवहार विविधता लिए हुए होता है। इस तरह जीन्स हिंसक गतिविधियों में भी अपनी भूमिका निभा सकते हैं।

लेकिन इस शोध पर उस समय स्वयं प्रश्न-चिन्ह लग गया जब एक अध्ययन के दौरान एक ही तरह के कई जुड़वा बच्चों को अलग-अलग पाला गया। लेकिन पाया यह गया कि एक में हिंसक वृत्ति थी, जबकि दूसरा इस दुर्गुण से पूरी तरह से मुक्त था। एक दूसरी शोध के अनुसार जिन शिशुओं के माता−पिता हिंसक अपराध से जुड़े हुए थे, वे सामान्य नागरिकों के शिशुओं की अपेक्षा हिंसक अपराध की ओर अधिक उन्मुख हुए, परन्तु उन्हीं शिशुओं को जब अधिक अच्छे वातावरण में रखा गया, पालन-पोषण एवं शिक्षण का समुचित प्रबन्ध किया गया तो उनकी हिंस्र वृत्तियां कोमल भावनाओं में बदलने लगी।

वैज्ञानिकों को स्वयं हिंस्रवृत्तियों के जेनेटिक होने पर सन्देह हैं, क्योंकि अभी तक स्वयं वे ऐसा कोई हिंसक जीन नहीं खोज पाए है। जो लोगों को हत्या के लिए बाधित करता हो। हाँ, इतना जरूर है कि जीन व्यवहार का नियमन करने वाले रसायनों के उत्पादन के निग्रह एवं नियन्त्रण में सहायता करते हैं।

इस बारे में विज्ञानवेत्ताओं को मस्तिष्क द्वारा स्रवित सिरोटिन रसायन पर शंका है। वोमेन ग्रे स्कूल ऑफ मेडिसिन , नार्थ केरोलिना में हुए प्रयोगों से मालूम हुआ है कि अत्यधिक हिंसक बन्दरों में सिरोटिन का स्तर अधिक शान्त बन्दरों की अपेक्षा कम होता है। वे प्रायः अधिक असामाजिक भी होते हैं। ऐसे ही रासायनिक परिवर्तनों को मनुष्य में भी खोजा गया है। ‘यू. एस. नेशलन इंस्टीट्यूट आन अल्कोहल एब्यूज एण्ड एल्कोहलिज्म ‘ में किए गए इस तरह के अध्ययन में देखा गया है कि हत्यारों में सिरोटोनिन की मात्रा कम होती है। महिलाओं के चिड़चिड़े व क्रुद्ध व्यवहार पर भी कुछ शोधकर्त्ताओं को मानना है कि मासिक धर्म से पूर्व सिरोटोनिन के स्तर में कमी का एक कारण हो सकता है। यदि किसी तकनीक से सिरोटिन के स्तर को बढ़ाया जा सके तो मनुष्य को कम हिंसक बनाया जा सकता है। विशेषज्ञों के एक दूसरे वर्ग का कहना है कि मनुष्य के हिंसक व्यवहार का उसकी जैविकी से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसका सम्बन्ध वे व्यक्ति के परिवेश एवं वातावरण से जोड़ते हैं। वेथेस्टा के मेरीलैण्ड के सेण्टर फॉर स्टडी ऑफ साइकियाट्री के डॉ. पीटर वेग्रीन के अनुसार मनुष्य से जुड़ी मूल समस्याएँ उसके शरीर या मस्तिष्क के कारण नहीं है, वे परिवेश के कारण है। उनके अनोर सामाजिक समस्याओं को सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्याओं के रूप में पुनः परिभाषित करना नाजी जर्मनी द्वारा किए गए प्रयास जैसा होगा।

मानवी हिंसा के लिए पूर्णतया जैविक कारण बताना या परिवेश द्वारा इन्हें उत्पन्न मानना , दोनों मान्यताएँ एकाँगी है। आनुवांशिकी प्रभाव को समर्थक भी वातावरण के प्रभाव को नहीं नकारते। वास्तव में ये दोनों गहराई में कहीं परस्पर सम्बद्ध है। जैविक व्यवहार को प्रभावित कर सकती है। किन्तु व्यवहार एवं अनुभव जैविकी को भी प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, बन्दरों पर हुए प्रयोग के अनुसार सिरोटिन का स्तर न केवल जीन द्वारा नियन्त्रित है, बल्कि नियमित शराब पीने वालों में भी इसके स्तर में कमी आ जाती है। इसी तरह एक निर्भीक बालक को एक हिंसक एवं अस्त−व्यस्त परिवार में पालकर उसे हिंसक एवं अपराधी बनाया जा सकता है। एव्र स्वस्थ स्थिर पोषण द्वारा एक बहादुर योद्धा भी बनाया जा सकता है।

एरिक फ्राँम के अनुसार मनुष्य को ऐसे नर-वानर के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जो विकास के उस बिन्दु तक पहुँच चुका है, जहाँ जैविक निर्धारण न्यूनतम होता है एवं मस्तिष्कीय विकास अधिकतम। जैविक रूप से वह दूसरे पशुओं से सुकुमार एवं असहाय है। लेकिन विकसित मस्तिष्क द्वारा न केवल वह इस कमी को पूरा कर लेता है, बल्कि स्वयं में ऐसी क्षमताएँ विकसित कर लेता है, जिससे अन्य प्राणियों को नियन्त्रित कर सके।

मनुष्य ही एक मात्र प्राणी है, जिसके पास स्व-जागरुकता, तर्क एवं कल्पना-शक्ति है। जिसके सहारे वह दूसरे प्राणियों से भिन्न अपने स्वतन्त्र अस्तित्व के बारे में सचेत है। वह अपनी दुर्बलताओं व ब्रह्मांड में अपनी विलक्षणताओं से परिचित है। वही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो प्रकृति के साथ समस्वरता से नहीं रह सकता, जो अपने को स्वर्ग से निष्कासित अनुभव करता है , जिसकी दैवी प्रवृत्तियाँ रह-रह कर विकसित होने के लिए जोर मारती है। वही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जिसका अस्तित्व उसके लिए एक ‘समस्या है, जिसे उसे स्वयं ही हल करना है।

मनोवैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि मानव का अस्तित्वजन्य विरोधाभास एक सतत् सन्तुलन में परिणत होता है। यह असंतुलन ही अन्य पशुओं से उसे अलग करता है, जो प्रकृति से एक तारतम्य बिठाकर रहते हैं। संस्कृति सभ्यता के माध्यम से वह इस असन्तुलन का सामयिक उपचार कर लेता है। एरिक फ्राँम का अपने ग्रन्थ ‘एनाटॉमी ऑफ हामन डिस्ट्रिक्टिवनेस’ में मानना है कि मनुष्य को प्रेम, घृणा, तर्क, बुद्धि, अच्छाई, बुराई जैसे गुणों के आधार पर परिभाषित नहीं किया जा सकता। इसे मानवीय अस्तित्व में विद्यमान मूलभूत विरोधाभास के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। जो उसके विलुप्त संस्कार व जाग्रत सचेतनता के बीच जैविक विभाजन के कारण उत्पन्न होता है। मनुष्य का यह अस्तित्वजन्य द्वंद्व कुछ विशेष मानसिक आवश्यकताओं को जन्म देता है।

इन आवश्यकताओं की पूर्ति इनसान के स्वस्थ-चित्त रहने के लिए उतना ही जरूरी है , जितना कि उसे जीवित रहने के लिए भोजन, पानी और हवा। पारस्परिक प्यार एवं सद्भाव का आदान-प्रदान, उच्च कल्पनाशीलता, प्रेरणाएँ, अनन्तता से एकता आदि का उल्लेख एरिक फ्राम ने इन आवश्यकताओं के रूप में किया है। इनकी संतुष्टि के विविध तरीके , विविध मनोभावों के रूप में प्रकट होता है। जैसे भक्ति के आदर्श की आवश्यकता को मनुष्य भगवान सत्य या प्रेम के द्वारा अपने आदर्श की उपासना से पूरा करता है।

संबद्धता की आवश्यकता की पूर्ति प्रेम और दया से पूरी की जाती है। मानव प्रकृति के विशेषज्ञोँ का मत है कि यदि आवश्यकता की पूर्ति के तरीके जैविक संस्कारों के अंतर्द्वंद्व से विकृत हो जाए तो परावलम्बन, परपीड़न एवं विध्वंस द्वारा भी व्यक्त हो सकते हैं, इसी तरह एकता और मूलबद्धता की आवश्यकता पूर्ति एकात्म का, भाईचारा प्रेम, आध्यात्मिक अनुभूति द्वारा होनी चाहिए। परन्तु विकृत अवस्था में नशा-व्यसन, निर्व्यक्तीकरण द्वारा होती है। इसी भाँति उत्तेजना और रोमाँच की आवश्यकता पूर्ति प्रकृति के शोधन के अभाव में ऐंद्रियक सुखों की लोभजन्य वृत्ति द्वारा पूरी होती है।

एरिक फ्राँम ने अपने शोध अध्ययन में एक बात तो मानव मनीषा के सामने स्पष्ट कर दी कि मानव स्वभाव से पशु नहीं है, जैसा कि वे अब तक सोचते आ रहे है। हाँ उसमें पाशविक संस्कार अवश्य रह गए है, जो परिशोधन के अभाव में इतने तीव्र हो उठते हैं कि हमें उनकी स्वाभाविकता का भ्रम होने लगता है। यदि इन वृत्तियों को परिशोधित , परिमार्जित किया जा सके तो मानव का दैवी स्वभाव अपनी समग्र आभा से देदीप्यमान हो उठेगा।

एरिक फ्राँम ने अपने द्वारा बताए गए मनोभावों के समूह का चरित्र का नाम दिया है, जो जैविक आवेगों से सर्वथा भिन्न है । इसे इनसान की द्वितीय प्रकृति कह सकते हैं। इसी के माध्यम से मनुष्य स्वयं को अन्य मनुष्यों, प्राणियों एवं प्रकृति से जोड़ता है। चरित्रजनित मनोभावों को उन्होंने जीवन-संपोषक एवं जीवन-विनाशक इन दो समूहों में विभाजित किया है।

ये मनोभावों ही इनसानी जिन्दगी में उत्साह ,उमंग एवं उत्सुकता के आधार होते हैं। इनसे न केवल उसके स्वप्न जन्म लेते हैं, बल्कि जीवन को सार्थक बनाने वाले धर्म-मिथक भी इसी से उपजते हैं। ये मनोभाव मनुष्य को उसकी समस्त अपूर्णताओं के बीच जीवन में एक अर्थ की खोज के लिए प्रेरित करते हैं। इसी वजह से वह अपना निर्माता स्वयं बनना चाहता है। एक लक्ष्य पाना चाहता है, ताकि जीवन में इन मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति उच्चतर स्तर पर नहीं कर पाता, तो वह अपने लिए ध्वंस का मार्ग चुन लेता है और ऐसी दशा में यही जीवन-संपोषक भाव विध्वंसक भावों का रूप ले लेते हैं।

मनोवैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार व्यक्तित्व में परिवर्तन तभी सम्भव है, जब मनुष्य जीवन को प्रोत्साहित करने वाले मनोभावों को उच्चतर दिशा मिले, जो जीवन को पहले से अधिक जीवन्तता और समग्रता प्रदान कर सके। जब तक यह न किया जायेगा, तब तक मनुष्य का सभ्य तो बनाया जा सकता है, लेकिन उसे सुसंस्कृत नहीं बनाया जा सकता।

एरिक फ्राम के अनुसार , हालाँकि जीवन को प्रोत्साहन देने वाले मनोभाव अधिक शक्ति , आनन्द संघटन और जीवन्तता में ध्वंसात्मक आवेगों की अपेक्षा अधिक सहायक है। फिर भी ये मनुष्य-अस्तित्व की समस्या को उतने ही सार्थक रूप से उजागर करते हैं। सर्वाधिक परपीड़क एवं हिंसक व्यक्ति भी उतना ही मनुष्य है जितना कि संत। उसे एक रुग्ण या विकृत मानव कह सकते है-जो मनुष्य के रूप में जनम लेते हुए जीवन की चुनौतियों का बेहतर सामना न कर सके।

हिमलर, हिटलर, मुसोलनी जैसे ऐतिहासिक, चरित्र ऐसे ही भटके हुए मनुष्यों के उदाहरण है। हिमलर यूरोप में ‘खूनी भेड़िये’ के रूप में कुख्यात रहा। अपने सारे जीवन भर वह निर्मम रूप से परपीड़क और कायर था, जो एक दयालु वफादार एवं साहसी व्यक्ति का मुखौटा ओढ़े रहा। अपने को जर्मनी का त्राण कर्त्ता कहने वाला हिटलर अपने देश को प्राणों से अधिक प्रेम करता रहा। लेकिन वह न केवल अपने दुश्मनों का बल्कि स्वयं जर्मनी के लिए एक निरंकुश, ध्वंसक साबित हुआ। अपने देश के दयालु पिता -स्टालिन’ ने रूस को लगीग तबाह कर दिया और नैतिक रूप से विषाक्त कर दिया था। इसी तरह पाखण्ड का एक अद्वितीय उदाहरण था मुसोलिनी , जिसने आक्रामक एवं साहसी पुरुष का अभिनय किया ओर जिसने अपना जीवन-मात्र साहस के साथ जीना घोषित किया, लेकिन वैयक्तिक जीवन में वह असाधारण कायर था।

मनुष्य द्वारा जीवन के अर्थ की खोज में जीवन का ही विनाश एक ऐसा विरोधाभास है, जिसकी समझ जरूरी है। जिसके बिना इसका उपचार नहीं हो सकता। मनोवैनिक कार्ल गुस्ताव युँग अपने ग्रन्थ ‘मार्डन मैनइन सर्च ऑफ सोल ‘ इस उपचार के लिए भारतीय तत्वज्ञान को पूरी तरह से समर्थ एवं समक्ष मानते हैं। उनके अनुसार इससे मानव प्रकृति का जितना समग्र विवेचन है, उतना अन्यत्र कहीं प्राप्य नहीं।

एरिक फ्राँम इस सम्बन्ध में समूचे समाज को नए सिरे से संस्कारित करने पर बल देते हैं। उनके अनुसार रुग्ण मनुष्य अपनी सही पहचान के अभाव में उलटी-सीधी हरकतें करता रहता है। आज की दशा कुछ ऐसी ही है। हिंसा और ध्वंस की बढ़ती वारदातें इसी रुग्ण मानसिकता का परिणाम है। प्राचीन भारतीय ऋषि न केवल कुशल मनोवैज्ञानिक थे, बल्कि सामाजिक, साँस्कृतिक क्रान्ति के प्रणेता भी थे। उनका संस्कार-विज्ञान एवं आध्यात्मिक तकनीकें इसी सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए है। इसी के द्वारा ऐसी परिस्थितियों का निर्माण सम्भव है, जिसमें मानव अपनी रुग्ण प्रकृति को स्वस्थ कर सके। इस रुग्ण प्रकृति को स्वास्थ्य में बदलकर ही मानव समाज सच्ची स्वतन्त्रता को उपलब्ध कर सकता है। इस स्वतन्त्रता में इनसानियत अपनी सम्पूर्ण गरिमा में विकसित हो सकेगी। साथ ही उन हिंसक एवं ध्वंस वृत्तियों का अवसान होगा, जिनकी वजह से हम अपने मनुष्य होने की पहचान तक खोते चले जा रहे है।


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