समुद्र में डूबे खजाने की तरह ही शरीर के अन्दर का ऐश्वर्य है। दोनों इस दृष्टि से समान हैं कि उन्हें उपलब्ध करने में भारी पुरुषार्थ करना पड़ता है। समुद्री वैभव की प्राप्ति से भौतिक जीवन सम्पन्न बन सकता है ; पर मनुष्य जन्म की सफलता आत्मिक विभूतियों पर निर्भर है।
जब से मनुष्य ने व्यापार करना सीखा, धन-संग्रह की प्रवृत्ति भी तभी से आरम्भ हुई। शुरू में क्षेत्रीय स्तर पर इसका भी श्रीगणेश हुआ, जो बाद में बढ़ते-बढ़ते दूरस्थ स्थानों तक विस्तृत हो गया। व्यक्ति, परिस्थितियों और परिवेश के आधार पर जब पृथक-पृथक राष्ट्रों का गठन हुआ, तो एक देश के अभाव की पूर्ति दूसरे देशों के सहयोग से होने लगी। इसमें वस्तु-विनिमय के साथ-साथ सम्पदा का भी हस्तान्तरण प्रारम्भ हुआ। विपुल-वैभव जलमार्ग से एक देश से दूसरे देशों में आने-जाने लगा। इस क्रम से दुर्घटनाएँ होनी स्वाभाविक थीं। हुईं भी। अगणित जहाज डूबे और असंख्य लोग मरे। उनके साथ ही उस सम्पत्ति की जल-समाधि हो जाती, जिसे वे साथ ला रहे होते। जब लाने वाले नहीं रहें, तो उसका पता कौन बताए कि वह कहाँ डूबी ? फिर भी खोज जारी है और तब से लेकर अब तक इसमें कई सफलताएँ भी मिली हैं।
मनुष्य की भी आत्म सत्ता अनन्त सामर्थ्यवान है। उस समर्थता की प्रखरता को पाने की आकांक्षा तो वह संजोता है ; पर उसे झकझोर कर जगाने का कठिन परिश्रम कौन करे ? यहीं वह लाचार हो जाता है। प्रयास के बिना तो सामने रखा भोजन भी उदरस्थ कर पाना असम्भव है, फिर भी अपनी मूर्छना को मिटाए बिना आत्मसत्ता के ऐश्वर्य को हस्तगत कर पाना किस प्रकार शक्य होगा ? सागर में डूबी सम्पदा की खोज गोताखोर करते हैं, जबकि व्यष्टि चेतना के महासागर में गोता लगाकर विभूतियों को बटोर लाने का काम साधकों का है। जो इतना साहस दिखाते और कठिनाई उठाते हैं, वह जीवन में कृतकृत्य हो पाते हैं ; किंतु कार्य की दुरूहता देखकर जो भयभीत होते और कदम पीछे खीचते हैं, उनके लिए पछतावा ही शेष रहता है।
ऐसा अनुमान है कि अकेले अमेरिकी महाद्वीप के सागर जल में डूबे वैभवयुक्त जहाजों की संख्या एक हजार के लगभग है। सम्पूर्ण संसार के समुद्रों में इनकी तादाद चालीस हजार बतायी जाती है। इनमें से प्रत्येक में इतनी सम्पदा है कि यदि सबको एक जगह इकट्ठा किया जाये, तो उससे भारत जितने विशाल राष्ट्र की कितनी ही समस्याओं का समाधान हो जाये।
धन भौतिक हो अथवा आत्मिक, खोज के अभाव में वह जल में दबे कोश की तरह बेकार पड़ा रहता है। इसमें धन का अपमान है और धारण करने वाले की उपेक्षा। अपमान इस कारण कि इतनी बहुमूल्य सम्पदा की कीमत आदमी नहीं समझ पा रहा और उपेक्षा इसलिए कि वह रत्नगर्भा होकर भी दीन-हीन बना हुआ है। किसी के प्रति न अपमान उचित है, न उपेक्षा।
इसकी तुलना में यदि अन्तराल में दबी हुई दिव्य विभूतियों को जाग्रत किया जा सके, तो दरिद्र कहलाने वाले व्यक्ति की की आत्मिक स्थिति इतनी समुन्नत हो जाएगी, जिसे अनुपम ही नहीं, अद्भुत भी कहा जा सके।
समुद्रों में ऐसे कितने ही खजाने दबे पड़े हैं। उनका बहुत लम्बा इतिहास है। रोमन साम्राज्य के दिनों से लेकर अधुनातन काल तक में जितनी समुद्र दुर्घटनाएँ हुई, उनमें से दस प्रतिशत जहाज ऐसे थे, जिनमें बहुमूल्य वैभव लदा था। सोना, चाँदी, हीरे, मोती के अतिरिक्त उनमें ऐसी मूल्यवान सामग्रियाँ थीं, जो कहीं-कहीं ही बनती और बिकती थीं। यह सब आज भी सिन्धु-गर्भ में बिखरी पड़ी हैं, इनको नहीं निकाल पाने की मानवी असमर्थता के पीछे सबसे प्रमुख कारण जहाजों की डूबने सम्बन्धी जानकारी की कमी है। विशाल जल-राशि में जहाज कहाँ दुर्घटनाग्रस्त हुआ, इसका पता लगा पाना एक एक प्रकार की टेढ़ी खीर है, फिर भी कई बार प्रकाश स्तम्भों के रिकार्ड से एवं कितनी ही बार दूसरे किसी किसी जलयान की उपस्थिति के कारण घटनास्थल की जानकारी मिल जाती है। ऐसे में खोज अभियान में आसानी होती और सफलता मिलने की भी शत-प्रतिशत गुँजाइश रहती है ; किन्तु जहाँ विभीषिका सम्बन्धी कोई भी सूत्र-संकेत न हो, वहाँ इनकी गवेषणा अँधेरे में तीर छोड़ने के समान है। इस स्थिति में भाग्य के भरोसे ही अभियान चलाना पड़ता है, इसीलिए वे अक्सर असफल होते हैं। अनेक बार इसमें प्राचीन दस्तावेजों और दुर्घटनाओं की जानकारी देने वाली पुस्तकों से भी सहायता मिल जाती है ; पर ऐसा प्रायः तब होता है, जब कोष जल में नहीं, जमीन में दबा हो। कहा जाता है कि समृद्धिशाली रोमन साम्राज्य के अनेक खजानों का वर्णन तत्कालीन यूनानी कवि होमर की प्रसिद्ध कृतियों-इलियड एवं ओडिसी में उपलब्ध है। खोजी लोग इनकी मदद से कई खजाने ढूँढ़ निकालने में सफल भी हुए हैं ; पर जब विस्तृत जल क्षेत्र से इन्हें करतलगत करने का प्रश्न हो, तब ऐसे दस्तावेज लगभग निरुपयोगी सिद्ध होते हैं, कारण कि मीलों लम्बी विस्तीर्ण जल-राशि में डूबे जलयान का ठीक-ठाक स्थानोल्लेख कर पाना लेखक के लिए अत्यन्त मुश्किल होता है। स्थान क्षेत्र में यह कठिनाई नहीं होती। वहाँ वास्तविक स्थान का पता बताने वाले कितने ही चिन्ह, संरचनाएँ, यंत्र, उपकरण, स्तम्भ, मकान, दुकान ऐसे हैं, जिनसे आसानी से उन्हें खोजा जा सके।
डूबी सम्पदा को खोज निकालना वर्षों पूर्व अत्यन्त दुरूह कार्य था, क्योंकि तब आज जितने विकसित यंत्र-उपकरण नहीं थे। आजकल इसके लिए गोताखोरों और पनडुब्बियों का सहारा लिया जाता है। आज के गोताखोर ऐसे यंत्रों से सुसज्जित हैं, जिनके सहारे वे घण्टों जल के अन्दर बने रह सके। उनकी पोशाकें भी विशिष्ट होती हैं, जिनकी मदद से वे समुद्र में करीब ६० मीटर की गहराई तक उतर सकते हैं। वर्षों पूर्व ऐसी पोशाकें और साधनों के अभाव में लोग इस प्रकार के दुस्साहसिक कार्य नहीं कर पाते थे। साँस रोककर जितनी गहराई तक जाना और वापस लौटना सम्भव होता था, उतनी ही दूरी तक वे समुद्र में उतरते थे। एक सामान्य व्यक्ति अधिकतम ३-४ मिनट तक साँस रोके रख सकता है। इतनी अवधि में ज्यादा से ज्यादा ६-७ मीटर गहराई तक उतरा जा सकता है। समुद्रों की गहराई ५० मीटर से लेकर १५०० मीटर तक होती हैं। ४ मिनट की अत्यल्प अवधि में वहाँ तक पहुँच पाना असम्भव है, अतः पूर्वकाल में जल में निमज्जित सम्पत्ति को निकाल पाना असाध्य काम था।
आज आक्सीजन सिलेण्डरों की सहायता से खोजी सागर-गर्भ में प्रवेश करते और आवश्यकतानुसार थोड़ा या ज्यादा समय तक वहाँ रह सकते हैं। यह इस बात पर निर्भर है कि प्राणवायु कितनी लम्बी अवधि तक के लिए है। साँस रोकने की कठिनाई अब उन्हें नहीं उठानी पड़ती । सिन्धु की उदरदरी में प्रवेश करने का एक अत्याधुनिक माध्यम पनडुब्बी है। सम्प्रति ऐसी पनडुब्बियों का निर्माण होने लगा है, जिनका उद्देश्य सागर के पेंदे का अध्ययन करना है। वहाँ पाये जाने वाले मूँगे के पहाड़, खनिज लवण के साथ-साथ खजाने की खोज में भी सहायक होती है। यह पनडुब्बियाँ करीब १३०० मीटर तक गहरे जल में अन्वेषण कार्य कर सकती हैं।
पुराने जमाने में इस कार्य के लिए गुलाम रखे जाते थे। जल में डूबे धन को खोज निकालने की स्थिति में उन्हें आजाद कर दिया जाता था। आज स्थिति परिस्थिति वैसी नहीं रही। अब न तो गुलामी प्रथा रही, न उस जैसी मानसिकता। अतः ऐसे जोखिम भरे कार्य के लिए किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता। जो स्वयं की इच्छा और रुचि से ऐसा करने को तैयार हो, उनकी बात अलग है, अन्यथा व्यक्तिगत इच्छा के विरुद्ध कुछ करवाना अपराध माना गया है। कुछ वर्ष पूर्व तक ऐसी जलगत सम्पदाओं को ढूँढ़ने में व्यक्तिगत आकांक्षाएँ प्रबल हुआ करती थीं ; किन्तु जब से स्वामित्व सम्बन्धी नियम बदले हैं, तब से रुचियाँ इस ओर क्रमशः घटती चली गयीं। आजकल ऐसी सम्पत्तियों पर खोजने वालों का अधिकार नहीं होता। इस पर स्वामित्व उस देश की सरकार का होता है, जिसके जल क्षेत्र में डूबा वैभव पाया गया। हाँ, अन्वेषक को इसके बदले में इनाम-इकराम देने की व्यवस्था अवश्य है ; पर उसके किसी हिस्से पर उसका कोई हक न होगा। सन् १९८९ तक फ्राँस में ऐसा प्रावधान था कि जो कोई निमज्जित जलयान के धन का पता लगाएगा, उसका एक तिहाई भाग उसका होगा ; पर उसके बाद से नियम कठोर होते चले गये, अतः इधर से लोगों का मोह भंग होता चला गया।
समुद्र के उदर में समाये जलयानों के इतिहास में कई ऐसे यान भी थे, जिनमें अकूत वैभव भरा पड़ा था। सन् १५१२ में मलक्का में डूबे पुर्तगाली जहाज “ फ्लोर डे ला मार” से प्राप्त सोने, चाँदी, हीरे, जवाहरात का जब मूल्याँकन किया गया, तो वह लगभग ३५ हजार करोड़ रुपये का आँका गया। २४ जुलाई सन् १७१५ में डूबे जिस स्पेनी जलयान का खजाना १९९३ में बाँव वैलर को मिला, उसकी कुल कीमत ८ करोड़ रुपये थी। इसमें वैलर को चार सौ से भी अधिक हीरे और १५-२० सोने के बिस्कुट मिले। सन् १८८५ में ईस्ट इंडिया कम्पनी के जहाज से जो धन मिला, वह ५६ करोड़ रुपये के बराबर था। माइकल हैचर को इस जलयान में १३० सोने की छड़ और डेढ़ लाख के करीब चीन में निर्मित बहुमूल्य पोर्सनील के बर्तन मिलें। इनकी तत्काल नीलामी कर दी गयी। डेढ़ सौ बर्तनों का डिनर सेट लगभग सवा करोड़ में एक स्विट्जरलैंड निवासी ने खरीद लिया। इन्हीं दिनों एक अन्य स्पेनी जहाज “ नूसस्त्रा सेनोरा दे अटोका “ की खोज हुई। इसमें नौ सौ के आस-पास चाँदी की ईंटें, कितने ही मणि-माणिक्य व स्वर्णाभूषण थे। इनका मूल्य एक हजार करोड़ रुपये था। बेराक्रुज बेड़ा के १६ जहाजों से प्राप्त धन करीब ६ हजार करोड़ रुपये का था। यह स्पेनी बेड़ा तूफान में फंस जाने के कारण सन् १५५३ में पैड्रे द्वीप में समुद्र गर्भ में समा गया था। इसके उपरांत एक अन्य निमज्जित जलपोत “मेन्डोजा” को भी ढूँढ़ लिया गया। यह पोत सन् १६१४ में दुर्घटनाग्रस्त हुआ था। इसमें ३४ सौ करोड़ रुपये का सोना-चाँदी मिला। इसके अतिरिक्त कोस्टारिका जल क्षेत्र से प्राप्त ४ करोड़ का एक कोष भी इस शृंखला में सम्मिलित है। इसके अलावा बहुत सारे ऐसे भग्न पोत पाये गये, जिनमें मूल्यवान यंत्र, उपकरण और धातुएँ थीं।
बात चाहे समुद्र में बिखरे वैभव की करें अथवा शरीरगत सम्पदा की, दोनों ही अपनी-अपनी जगह महत्वपूर्ण हैं। धन के बिना जीवन निर्वाह नहीं हो सकता-यह सच है ; पर महानता के बिना तो मनुष्य की ही मृत्यु हो जाती है और उस कलेवर में शेष रह जाता है नर-पशु धन पाकर गरिमा को गँवाना किसे प्रिय होगा ? वैभव भी मिले और मानवी गौरव भी अक्षुण्ण रहे-दोनों का ऐसा समन्वय ही उपर्युक्त कहा जा सकता है, अन्यथा असुर और मनुष्य में कोई अन्तर न रहेगा। इन दिनों धन की कामना तो सभी करते हैं, पर उस अगाध ऐश्वर्य की उपेक्षा प्रायः हर एक करते देखे जाते हैं, जो चक्रों, उपत्यिकाओं, ग्रन्थियों, भ्रमरों, मातृकाओं और प्राणों के रूप में अपनी ही काया में विद्यमान है। यदि इनमें से प्रत्येक को खोजा और जगाया जा सके, तो जीवन इतना वैभवशाली-गौरवशाली होगा, जिसके आगे समस्त भौतिक सम्पदाएँ तुच्छ ही नहीं, तृणवतु साबित होंगी। दिव्यता के आने पर द्रव्यों की कमी नहीं रह जाती। वह उन्हें घसीट बुलाती है, अतः हमार खोज उस सम्पदा की होनी चाहिए, जिसमें प्रभुता हो। इससे कम में न तो जीवन की सफलता है, न सार्थकता।