राखी का मोल

August 1997

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राजा मानसिंह के माथे पर पसीने की बूँदें छलछला आयीं। उनके चेहरे पर चिन्ता के भाव सघन हो उठे। उन्हें सूझ ही नहीं रहा था कि ऐसे मौके पर वे क्या करें? अभी कुछ ही दिन पहले उन्होंने अपनी सेना युवराज के साथ दक्षिण में सम्राट् अकबर की सहायता के लिए भेज दी थी। इस बात की खबर जब गुजरात के सुल्तान फिरोजशाह को मिली तो उसने एक बड़ी सेना लेकर नागौर पर चढ़ाई कर दी और उस पर अधिकार कर लिया। महाराज मानसिंह अपने परिवार, धन-दौलत और नागौर में बचे-खुचे लोगों सहित राजपूताने की एक पहाड़ी पर बने किले में आ गए थे। किले में खाने-पीने के सामान की तो कोई कमी न थी, पर फिर भी किले की रक्षा करना निहायत जरूरी था। किले में उनके साथ जो योद्धा थे, वे सब वृद्ध थे। जो युवा थे उनकी संख्या बहुत ही कम थी। गुजरात के सुल्तान की सेना किले को चारों ओर से घेर कर बैठी थी। इस स्थिति ने राजा मानसिंह को बहुत ही चिन्ता और परेशानी में डाल रखा था।

जब उन्हें और बुजुर्ग योद्धाओं को कोई उपाय न समझ में आया तो उन्होंने योजना बनायी कि किले के भीतर जितने योद्धा हैं, वे सब अपनी आत्मरक्षा के लिए मर मिटे, हो सकता है इस तरह गुजराती सेना से भिड़ जाने पर बाहर से कुछ मदद मिल जाए। यदि बाहर से सहायता न मिले और हम युद्ध में न बच पाएँ तो हमारी स्त्रियाँ जौहरव्रत का पालन करेंगी। इस तरह का सलाह-मशविरा करके सभी सरदार अपने खेमों में और महाराज अपने अन्तःपुर में चले गए।

जिस समय महाराज अन्तःपुर पहुँचे उस समय उनके चेहरे पर उदासीनता और चिन्ता की लकीरें काफी गहरी हो रही थीं। उनको चिन्तामग्न देखकर सम्पूर्ण राज-परिवार चिन्ता में डूब गया। पिता को आया देख उनकी पुत्री ने पूछा-पिताजी क्या निर्णय लिया?”

राजा मानसिंह ने उत्तर दिया-यदि बाहर से सहायता नहीं मिलती है तो तुम सबको जौहर करके संसार से विदा लेने को तैयार रहना होगा।” मानसिंह की बात सुनकर उनकी वृद्धा माँ बोली-बेटा ! तुम हमारी चिन्ता न करो। हम सच्ची क्षत्राणियाँ हैं और सच्ची क्षत्राणी कभी मरने से नहीं डरती।”

राजा मानसिंह की पुत्री पन्ना उस समय सोलह साल की थी और मानसिंह उसे प्राणों से भी ज्यादा प्यार करते थे। पिता की चिन्ता से परेशान होकर वह एक खिड़की से सामने दिखने वाली पहाड़ी पर नजर गड़ाए थी। उस पहाड़ी पर भी एक किला बना हुआ था और उस किले का मालिक था एक नवयुवक राजपूत उसका नाम उम्मेदसिंह था और पहाड़ी पर बना किला अरिकन्द के नाम से प्रसिद्ध था। उम्मेदसिंह दो वर्ष पूर्व ही इधर आया था और उसी समय से अरिकन्द और नागौर में सरहद के मामले पर विवाद होने से दोनों में शत्रुता चली आ रही थी।

आज अरिकन्द के किले को देखकर पन्ना के मन में श्रावणी पर्व का उल्लास उमंग उठा। उसके भावुक हृदय में राखी के धागों में समायी पवित्रता, भाई-बहिन के रिश्तों की भावनात्मक दृढ़ता छलकने लगी। उसके मन में ये विचार आया क्यों न उम्मेदसिंह को राखी भेजकर उससे नागौर के लिए सहायता माँगी जाय। वह सोच रही थी कि कोई भी सच्चा वीर नारी की आत्मीयता को विधर्मियों-बर्बर नृशंस अत्याचारियों के हाथों लुटते नहीं देख सकता आपसी मतभेद अपनी जगह है, किन्तु बहिन का आमंत्रण, भाई से अपनी रक्षा के लिए आह्वान सभी मतभेदों से कहीं बढ़कर है।

उम्मेदसिंह वीर है, वह सुल्तान के इस हमले से भी हमारी मदद न करे यह सम्भव नहीं। यदि मैं राखी भेजूँ तो मुझे पूरा विश्वास है कि वह मेरे इस धर्म-बन्धन को ठुकराएगा नहीं। वह मेरी ओर से राखी प्राप्त करके हमारी रक्षा हेतु अपनी सेना लेकर अवश्य आएगा।

यही सोचते हुए उसने अपने पिता मानसिंह से कहा-पिताजी क्या अरिकन्द के राजकुमार ने हमारी प्रजा या आपके साथ कोई ऐसा व्यवहार किया है, जिससे उसे क्षमा न किया जा सके?”

मानसिंह ने उत्तर दिया-बेटी ! उसने ऐसा तो कोई भी व्यवहार नहीं किया बस, सरहद की कुछ बंजर भूमि उसके कब्जे में है। दक्षिण से अपनी सेना के आने पर हम युद्ध करके अवश्य प्राप्त कर लेंगे। क्योंकि वह जमीन हमारे पुरखों की है, पर बेटी, इस समय इन सब बातों से क्या मतलब है ? इस समय तो हम गुजरात के सुल्तान की सेना से घिरे हुए हैं।”

राजकुमारी पन्ना ने बहुत ही गम्भीरता से उत्तर दिया-पिताजी मैंने सुल्तान की सेना से रक्षा की एक तरकीब सोची है। यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं अरिकन्द के राजकुमार के पास राखी भेजूँ। मुझे पूरी उम्मीद है कि वह मेरी राखी प्राप्त करके हमारी मदद को अवश्य आएगा”

बेटी की बात सुनकर मानसिंह बोले-जिस व्यक्ति से हमारी शत्रुता है, उसी से हम सहायता माँगें, ये बिलकुल सम्भव नहीं हैं इसलिए तू इस बात को भूल जा।”

पिता को क्रोध में देखकर भी पन्ना बड़ी नम्रता से बोली-पिताजी संकट के समय राखी भेजकर सहायता लेने की परम्परा राजपूतों में चली आयी है। यहाँ तक कि राजपूतों द्वारा मुसलमानों तक को राखी भेजकर सहायता माँगी गयी है। महारानी कर्मवती ने मुगल शहंशाह हुमायू को राखी भेजी थी। तब अरिकन्द का राजकुमार तो हमारा स्वजातीय है। फिर राखी की मर्यादा तो स्वजातीय-विजातीय से बहुत ऊपर है। यह तो बहिन की पवित्र भावनाओं द्वारा दिया गया भाई के शौर्य एवं साहस को आमंत्रण है। शौर्य एवं साहस के खरेपन की कसौटी यही है कि वह नारी की गरिमा की रक्षा करे। नारी और पुरुष के बीच इससे अधिक पवित्र, एवं भावमय सम्बन्ध और कोई नहीं हो सकता।”

मानसिंह अपनी बेटी की बातों को ध्यान से सुन रहे थे। वह कहें जा रही थी-अरिकन्द के राजकुमार को राखी भेजने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए हमारा राष्ट्रीय धर्म भी यही सिखाता है कि बाहरी हमले के समय हम सब आपसी मतभेद भुलाकर एक-दूसरे की मदद करें। फिर भी आप मान लीजिए, यदि वह आज गोंडवान किला जीत लेंगे तो कल क्या अरिकन्द का किला जीतने का प्रयास नहीं करेंगे? इस बात को ध्यान में रखकर भी तो वह हमारी रक्षा न सही, अपने किले की सुरक्षा हेतु हमारी सहायता करने के लिए आ सकता है।

राजकुमारी पन्ना की तर्कपूर्ण बात सुनकर मानसिंह अरिकन्द के राजकुमार के पास राखी भेजने को तैयार हो गए। मानसिंह की इस स्वीकृति से राजकुमारी के हृदय में भावनाओं का समुद्र उमड़ उठा सच तो यह था कि उसने अपने सारे तर्क पिता को सन्तुष्ट करने एवं समझाने के लिए प्रयोग किए थे। उसका अंतर्मन तो उम्मेदसिंह को न जाने कब से भाई मान चुका था आज उसकी भावनाएँ पिता की इस स्वीकृति से आँखों में आँसू बनकर छलक आयीं, जिसे उसने बड़े हौले से चुनरी के किनारे से पोंछ डाला।

इसी के साथ उसने किले की अन्य लड़कियों के साथ सोने की तारों की सुन्दर मोहक राखियाँ तैयार करवायी। उन पर हीरे-मोती जड़वाए गए। फिर राजकुमारी पन्ना ने स्वयं अपने हाथों से अरिकन्द के राजकुमार को सम्बोधित करते हुए कुछ भाव-भरी पंक्तियाँ लिखी और इस सबको एक पेटी में सहेज कर रख दिया। इस राखी को उम्मेदसिंह के पास पहुँचाने के लिए किले के सबसे वफादार युवक बेनीसिंह को चुना गया।

बेनीसिंह ने इस राखी वाली छोटी सी पिटारी को साफे में छिपाया और आधी रात के समय बहुत ही सावधानी से रस्सी के सहारे से किले की दीवार पर से नीचे उतर गया। किले के चारों तरफ मुसलमान सेना थी। सन्तरी जगह-जगह पहरा दे रहे थे। उनसे बचता-बचता बेनीसिंह जब कुछ दूर निकल गया तो निश्चिन्त होकर चलने लगा, परन्तु तभी पीछे से किसी ने उसकी गरदन पकड़कर कहा-गुजरात के बादशाह के पास चलो। बेनीसिंह को कमजोर और असहाय समझकर उसने बेनीसिंह का एक हाथ छोड़ दिया। बेनीसिंह तो अवसर की तलाश में था ही, तुरन्त अपनी कमर से कटार निकालकर सैनिक के पेट में घुसेड़ दी।

अचानक किए गए इस वार से सैनिक घबराकर चिल्ला पड़ा और धरती पर गिर पड़ा। सैनिक जैसे ही धरती पर गिरा वैसे ही बेनीसिंह भागने लगा, पर तभी पीछे से उसे दो सैनिक आते हुए दिखाई दिए। सैनिकों को अपने पीछे आते देख बेनीसिंह जल्दी से पास की झाड़ियों में छुप गया, लेकिन इस भागम−भाग में उसका साफा कहीं गिर गया। इस समय उसे अपनी जान से ज्यादा साफे में बँधी राखी वाली पेटी की चिन्ता थी। वो साँस रोके झाड़ियों में छुपा बैठा था। जब उसने देखा कि सैनिक कुछ दूर जा चुके तो वह झाड़ी से बाहर निकला और साफे को खोजने लगा। साफा पास ही पड़ा मिल गया। उसमें राखी वाली पेटिका भी सुरक्षित थी। बेनीसिंह प्रसन्न होकर फिर आगे चल पड़ा, तभी एक घुड़सवार के साथ कुछ व्यक्ति आते हुए दिखाई दिए। आगे रास्ता खराब और ऊबड़-खाबड़ था, अतः वह व्यक्ति घोड़े से उतरा और घोड़े की लगाम साईस को पकड़ाकर पैदल ही अपने साथियों सहित जंगल में घुस गया।

साईस आरामतलब प्रवृत्ति का था। रात में उठकर बेवक्त आने से और भी खफा था। जैसे ही उसकी दृष्टि बेनीसिंह पर पड़ी तो वह और जोर से चिल्लाया-उधर कहाँ जा रहा है? इधर आकर घोड़े की लगाम पकड़। बेनीसिंह फिर चुपचाप उसके पास आया और बोला-मैं घोड़े की लगाम पकड़े रखूँगा-आप आराम करें। साईस के मन की मुराद पूरी हो गयी। लगाम बेनीसिंह को थमा वह पेड़ के नीचे लेट गया।

बेनीसिंह धीरे-धीरे घोड़े को सहलाने लगा। कुछ ही देर में साईस भी सो गया। उसके खर्राटों की आवाज आने लगी। साईस के खर्राटे शुरू करते ही बेनीसिंह कूदकर घोड़े पर चढ़ा और ऐड़ लगाकर अरिकन्द की ओर चल पड़ा। घोड़ा और सवार दोनों ही मजे हुए थे। घण्टों का सफर मिनटों में तय कर के बेनीसिंह सूर्योदय के समय अरिकन्द किले के फाटक पर पहुँच गया।

फाटक पर पहुँचकर बेनीसिंह घोड़े से नीचे उतरा और पहरेदार से कह-मुझे इसी समय राजकुमार उम्मेदसिंह से मिलना हैं एक बहुत ही जरूरी काम है पहरेदार ने उसे एक बार सिर से पैर तक पारखी नजरों से देखा फिर सन्तुष्ट होते हुए उसे उसी समय लेकर महल के अन्दर की ओर चल पड़ा।

जिस समय बेनीसिंह उम्मेदसिंह के पास पहुँचा, उस समय उम्मेदसिंह अपने एक मित्र विजयसिंह के साथ शिकार पर जाने की तैयारी कर रहा था। बेनीसिंह ने झुककर जुहार करते हुए साफे में से राखी की पेटिका निकालकर उम्मेदसिंह के हाथों में रख दी, उम्मेदसिंह एक बार तो नागौर से आए इस आदमी को देखकर चौंका। फिर उसने पेटिका को आहिस्ते से खोला-पेटिका खोलते ही उसे सबसे पहले भोजपत्र का एक टुकड़ा दिखा, जिस पर कुमकुम और केसर से कुछ लिखा था। वह चकित होते हुए उस इबारत को पढ़ने लगा।

प्यारे भैया !

तुम्हारी धर्म-बहिन पन्ना आज तुम्हें राखी भेज रही है। बहिन की राखी भाई के लिए उत्सव भी है और आमन्त्रण भी। बहिन के द्वारा भेजा गया राखी का धागा भाई के लिए शौर्य और साहस की परीक्षा की कसौटी होने के साथ ही आदर्शों के लिए, सनातन धर्म की मर्यादाओं के लिए समर्पित होने हेतु व्रत बंध भी है।

यह पवित्र धागा भेजकर तुम्हारी बहिन तुम्हारी वीरता और पराक्रम का आह्वान कर रही हैं तुम्हें बर्बर और नृशंस आततायियों के विरुद्ध जूझने के लिए रण-निमन्त्रण भेज रही है। नारी का अस्तित्व एवं अस्मिता आज खतरे में है। धर्म की सनातन मर्यादाएँ आज रौंदी जा रही हैं। अपनी संस्कृति को विदेशी और विधर्मी कुचलने के लिए तत्पर हैं। तुम्हें अपनी संस्कृति, अपने धर्म एवं अपनी बहिन की मर्यादा की रक्षा के लिए आगे बढ़ना है। मुझे अपने भैया पर पूरा यकीन है। विश्वास है तुम्हारे कदम आगे बढ़े बिना न रहेंगे।

तुम्हारी बहिन

पन्ना

पन्ना के लिखे शब्दों को पढ़कर उम्मेदसिंह के चेहरे पर वीरता का ओज चमकने लगा। उसने पत्र को पढ़कर भोजपत्र के उस टुकड़े को आदर भाव से माथे से लगाया। बड़ी ही श्रद्धा से उसने हीरे-मोतियों जड़ी सोने के धागे वाली राखी अपनी दाहिनी कलाई में बाँधी। फिर अपने परमविश्वसनीय मित्र विजयसिंह को सम्बोधित करते हुए कहा मित्र, मेरी धर्म-बहिन ने मेरे शौर्य को ललकारा है। उसने मुझे राखी भेजी है और राखी का मोल माँगा है।

अब मुझे शेर और चीते के शिकार पर जाने की जरूरत नहीं हैं। मुझे तो उससे भी बढ़िया शिकार मिल गया है। गुजरात के सुल्तान फिरोजशाह ने राजा मानसिंह को गोंडवान के किले में घेर रखा है और उनकी पुत्री हमारी धर्म-बहिन पन्ना ने राखी भेजकर मुझे सहायता के लिया बुलाया है। अतः मुझे तत्काल उसकी सहायता के लिए रवाना होना है।

उम्मेदसिंह की बात सुनकर विजयसिंह कहने लगा-बहिन पुकारे और भाई चुप रहे, यह कैसे संभव है। मैं भी आपके साथ चलकर शत्रुओं का शिकार करूँगा । विजयसिंह की बात सुनकर उम्मेदसिंह ने उसे गले लगाया। शीघ्र ही जाने की तैयारियाँ की जाने लगी। बेनीसिंह का खूब स्वागत-सत्कार किया गया।

उधर फिरोजशाह गुजरात से तोपों के आने का इन्तजार कर रहा था। इन्तजार की घड़ियाँ लम्बी होती देख उसने भेदिए की मदद से किले पर घुसने का प्रयास करना चाहा। आधी रात के समय जब भेदिया किले की दीवार रस्से की सहायता से चढ़ रहा था तो अचानक ही उसका सिर कटकर नीचे गिरा। इस तरह एक चौकस सन्तरी के कारण फिरोजशाह का ये प्रयास विफल रहा।

अब फिरोजशाह ने सोचा सुरंग या खाई के रास्ते ही से किले में पहुँचा जाय, पर उसे इसमें भी सफलता न मिली। दूसरे दिन किले की दीवार से बहुत ही कठिनाई से ऊपर चढ़कर बेनीसिंह किले के भीतर पहुँचा। मानसिंह के पास पहुँचकर उसने उम्मेदसिंह का दिया हुआ कीमती हार राजकुमारी पन्ना को दिया और तत्पश्चात् उम्मेदसिंह एवं विजयसिंह के सेना सहित सहायता के लिए पहुँचने का सन्देश सुनाया। इस शुभ सन्देश को सुनकर सबके चेहरे की मलीनता दूर होती दिखाई दी। राजकुमारी पन्ना की आँखें खुशी से गीली हो आयी।

उम्मेदसिंह और विजयसिंह जब अपनी फौज लेकर गोंडवान की तरफ रवाना हुए तो उन्होंने सोचा कि हमारी फौज तो कुल पाँच हजार है, जबकि फिरोजशाह की इससे तिगुनी। सामने से लड़ाई जीतने सम्भव न होगा तो क्यों न कोई ऐसा उपाय किया जाय जिससे गुजराती सेना के पास रसद ही न पहुँचे। ये विचार-विमर्श करके वे दोनों अहमदाबाद की तरफ से आने वाले रास्ते में जंगलों में छिप गए। कुछ ही समय बाद उन्हें सूचना मिली कि शत्रु की सेना तोपखाना लेकर पहुँचने वाली है। बस वे तुरन्त तोपखाना नष्ट करने के लिए तैयार होकर बैठ गए।

कुछ देर बाद तोपखाना लेकर आती बैलगाड़ियाँ दिखाई देने लगीं। बैलगाड़ियों के आगे घुड़सवार थे। जब घुड़सवार निकल गए तो उम्मेदसिंह के सैनिकों ने तोप और गोलियों से तोपखाने को नष्ट कर दिया, जिससे बहुत से वीर हताहत हुए। बचे हुए लोगों ने राजपूतों की शरण ली। बची-खुची तोपों को अपने कब्जे में कर लिया गया।

तोपखाने के नष्ट होने के समाचार से फिरोजशाह बहुत निराश हुआ। अब उसे किला जीतने की कोई आशा न रही। उसकी सेना के जवान सोचने लगे कि अब तो राजपूताने से बाहर निकलना सम्भव न होगा। इस समाचार से राजपूतों में हर्श की भारी लहर दौड़ गयी। अब आस-पास के लोग भी मदद को आने लगे।

फिरोजशाह की फौज की परेशानियाँ बढ़ती ही गयीं। रसद मिलना बन्द हो गया। तोपखाना नष्ट हो गया, अब क्या करें ? आखिर में उसने किले पर धावा बोलने का निर्णय लिया। सैनिकों ने किले के फाटक के पास सुरंग लगाकर किले की दीवार तोड़ दी और जोर-जोर से चिल्लाने लगे, पर तभी भीतर से उनके ऊपर पत्थर और तीरों से हमला कर दिया और पीछे से उम्मेदसिंह ने हमला कर दिया। फिरोजशाह किले से कुछ पीछे हटकर जैसे ही उम्मेदसिंह पर हमला करने की सोच रहा था कि विजयसिंह भी अपने सवारों सहित आ पहुँचा। इस तरह से फिरोजशाह की पूरी सेना चारों तरफ से घिर गयी। सन्ध्या के समय तक घमासान युद्ध होता रहा, फिर दोनों सेनाएँ अपने-अपने खेमों में वापिस लौट गयीं।

रात भर फिरोजशाह उम्मेदसिंह से निपटने की योजना बनाता रहा। सुबह के समय उसने अपनी सेना को तीन हिस्सों में बाँट दिया। एक हिस्से को किले के पास रख दिया और दूसरे को किले से कुछ दूर और तीसरे हिस्से को लेकर स्वयं फिरोजशाह उम्मेदसिंह से निबटने को चल पड़ा।

उम्मेदसिंह भी सतर्क था। उसने दूर से ही फिरोजशाह की सेना को आते हुए देख लिया। उसने शत्रु सेना पर सामने से हमला करने की बजाय पीछे से हमला करने का विचार किया और अपनी सेना को लेकर ऐसे स्थान पर चला गया, जहाँ से शत्रु सेना पर आसानी से हमला किया जा सके। उम्मेदसिंह ने यही किया, फिरोजशाह की सेना पर पीछे से हमला किया। सेना ने जैसे ही बचकर भागने का प्रयास किया विजयसिंह की फौज उन पर टूट पड़ी। इस अचानक हुए हमले से शत्रु सेना छिन्न-भिन्न हो गयी।

इसके बाद उम्मेदसिंह अपनी फौज को लेकर तुरन्त किले की तरफ चल पड़ा। मानसिंह किले के ऊँचे बुर्ज पर से सेना को आते हुए देख चिन्तित हो गए, पर राजपूती ध्वज को पहचानकर उन्हें तसल्ली हुई। किले के पास पहुँचकर उम्मेदसिंह के सैनिक शत्रु टूट पड़। तभी पहाड़ी पर से उतर कर कुछ सवार भी शत्रु सेना पर टूट पड़े। इस तरह अचानक और तीव्र हमले से शत्रु सेना के पास भागने के सिवाय कोई चारा ही न था।

फिरोजशाह की सेना के पाँव उखड़ गए। उसने सोचा कि कहीं इस बीच दक्षिण से भी सेना लौट आयी तो हममें से एक भी जीवित न बचेगा। ऐसा विचार कर उनसे राजपूतों के पास सन्धि का प्रस्ताव भेजा, जिसे मानसिंह ने स्वीकार कर लिया। फिरोजशाह अपना लाव-लश्कर उठाकर गुजरात की ओर रवाना हो गया। गुजरात रवाना होने से पूर्व उसने नागौर पर से अपना कब्जा छोड़ दिया।

शत्रु सेना को पराजित कर जब उम्मेदसिंह किले के भीतर पहुँचा तो उसका भव्य स्वागत किया गया। महाराज मानसिंह ने उसे गले लगाते हुए कहा- “बेटे ! तुमने मेरी धन-दौलत-प्रतिष्ठा की रक्षा की है। मैं तुम्हारा ऋणी हूँ” इस पर उम्मेदसिंह ने विनम्रता से कहा- “महाराज! मैंने तो सिर्फ अपनी धर्म-बहिन की पुकार सुनी हैं उसके आमंत्रण को स्वीकार किया है और राखी का मोल चुकाया है।”

राजकुमारी पन्ना पास में ही आरती का थाल सजाए खड़ी थी। उम्मेदसिंह की बातें सुनकर उसकी आँखें भर आयी उसने दोनों हाथों से भाव-भरे मन से उम्मेदसिंह की आरती उतारी, माथे पर कुमकुम तिलक किया और कहने लगी-भैया हिन्दुस्तान की हर बहिन को तुम्हारे जैसा भाई मिले।” पन्ना के इन शब्दों में अनगिनत नारी मन एक साथ करुण स्वर में बिलख उठे। मानों अनगिनत बहिनें अपने अस्तित्व और अस्मिता की रक्षा के लिए पुकार उठीं कि कहाँ हैं वे भाई, जो राखी का मोल चुका सकें ? राखी की मर्यादा को निभा सकें?


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