गंगा की गोद-हिमालय की छाया

August 1997

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आत्मोत्कर्ष की साधनाओं के लिए मात्र या-कृत्य या कर्मकाण्ड ही सबकुछ नहीं होते। उसके लिए उपयुक्त वातावरण भी चाहिए। बीज कितना ही उत्तम क्यों न हो, पर उसे विकसित- पल्लवित करने का अवसर तभी मिलता है जब भूमि उपजाऊ हो। खाद-पानी की व्यवस्था हो और देख-रेख करने वाले व्यक्ति का संरक्षण मिले। विशेष क्षेत्र में विशेष प्रकार के फल, शाक, अन्न, पुष्प, वृक्ष-वनस्पति जीव-जन्तु आदि जन्मते हैं। हर जगह हर वस्तु का उत्पादन एवं विकास नहीं होता। मैसूर के चन्दन, बलसाड़ के चीकू, भुसावल के केले, नागपुर के संतरे अपनी विशेषताएँ लिये होते हैं। उन पौधों को अन्यत्र उगाकर उस स्तर का विशिष्ट उत्पादन नहीं पाया जा सकता। राजहंस मानसरोवर में ही पाये जाते हैं। वातावरण की अपनी महत्ता है। सेनेटोरियमों में भर्ती होकर रोगी इसलिए जल्दी लाभ प्राप्त करता है कि वहाँ मात्र औषधियों का ही नहीं, आरोग्यवर्द्धक वातावरण का अतिरिक्त लाभ मिलता है। अध्यात्म-साधनाओं के संदर्भ

में भी यही तथ्य लागू होता है। कुसंस्कारों कुकर्मों से भरे वातावरण में रहकर किसी की साधना तपश्चर्या सफल नहीं हो सकती।

स्थान विशेष के साथ जुड़ा इतिहास और वातावरण का महत्व एक सार्वभौम सत्य है। यरुशेलम जैसा ईसाइयों का अन्य धर्मकेन्द्र नहीं बन सकता। संसार भर के बौद्ध भारत में भगवान बुद्ध के लीला-केन्द्रों में अपनी श्रद्धाञ्जलियाँ अर्पित करके ही संतोष की साँस लेते हैं। जैन और सिक्ख तीर्थों के मौलिक स्थानों के सम्बन्ध में भी यही बात हैं। इमारतों और पुरोहितों का प्रबंध अन्यत्र कर लेने पर भी वैसा समाधान हो सकना कठिन है।

स्थानों की, वातावरण की अपनी विशेषता और महत्ता न केवल आध्यात्मिक दृष्टि से वरन् भौतिक दृष्टि से भी है। धरती के कुछ स्थान ऐसे हैं जिनकी अपनी विशेषता है। वह विशेषता कृत्रिम रूप से अन्यत्र पैदा नहीं की जा सकती। दक्षिण अफ्रीका में विश्व का अधिकाँश सोना पैदा होता है। डेड-सी मृतसागर में अत्यन्त एवं खारा पानी है। बरमूडा त्रिकोण का संपर्क अंतरिक्ष के ब्लैक “होल्स” से माना जाता है। उसके आकर्षण क्षेत्र में आने वाले जलयान और वायुयान प्रायः लुप्त होते रहते हैं। आज भी वैज्ञानिकों के लिए यह क्षेत्र रहस्यमय बना हुआ है।

खगोलविद्या की आवश्यक जानकारी के आधार पर एक विशेष क्षेत्र में भू-चुम्बकीय धाराओं व अन्तरिक्षीय प्रवाहों के आधार पर पिरामिड बने हैं। कोणार्क का सूर्यमन्दिर ऐसे ही स्थान पर बना है जहाँ से सूर्यग्रहण का अनुसन्धान करने के लिए विश्वभर के वैज्ञानिक वहाँ आते हैं। न्यूट्रोन्स कणों के वैज्ञानिक अनुसन्धान की आवश्यकता जब पड़ती है तो वे कोलार की खानों में ही पाए जाते हैं। हिमालय के तिब्बत वाले भाग में चहुँओर बर्फीली घाटियों के बीच स्थित शग्रीला पहाड़ी जैसे क्षेत्र हजारों वर्षों से योगियों की तपस्थली बने हुए हैं। वहाँ का वातावरण ही ऐसा है जिसमें भौतिक काया को सदियों तक सुरक्षित रखा जा सकता है। वातावरण का ही प्रभाव है कि महान् तपश्चर्याओं का इतिहास हिमालय क्षेत्र के साथ जुड़ा हुआ है। तीर्थस्थानों में जिनके साथ दिव्य-आत्माओं के पुरातन इतिहास जुड़े हुए हैं वहाँ लोग इसलिए जाते हैं कि उनसे जुड़ी हुई प्राण ऊर्जा अपनी प्रबल प्रेरणाओं की भाव-संवेदनाओं को उछाल देती है। गंगा स्नान से जो पवित्रता अनुभव होती है, वह उसी पानी को कुएँ या कुलावे से निकाल कर नहा लेने से पूरी नहीं हो सकती। स्थान और वातावरण का अपना महत्व है। उनमें मानवी चिन्तन-चेतना को मोड़ने-मरोड़ने की अद्भुत क्षमता होती है।

इस संदर्भ में जार्ज वाशिंगटन युनिवर्सिटी के मूर्धन्य मनोचिकित्सा विज्ञानी स्टेनली ग्रीनस्वान ने अपनी कृति “द ग्रोथ आफ दि माइण्ड” में लिखा है कि प्राणवान वातावरण अपने सशक्त प्रभाव से न केवल व्यक्ति के आचरण एवं व्यवहार को बदल सकता है, वरन् मस्तिष्क की भौतिक संरचना तक को प्रभावित-परिवर्तित कर सकता है। इन दिनों इस सम्बन्ध में विभिन्न देशों के चिकित्सा-विज्ञानी एवं मनोवेत्ता अपने-अपने ढंग से अनुसन्धानरत हैं कि किस प्रकार वातावरण के प्रभाव से मनुष्य को ऊर्ध्वगामी बनाया जाये।

अध्यात्म क्षेत्र में प्रगति करने के लिए आत्मवेत्ताओं ने ऐसे ही वातावरण को प्रमुखता दी है, जहाँ दिव्य ऊर्जा विद्यमान हो, जहाँ उत्कृष्टता उभारने वाला कोई उच्चस्तरीय प्रेरणा स्त्रोत विद्यमान हो। अध्यात्म विभूतियों की उपलब्धि जितनी सहजता से जीवन्त तीर्थों, गंगा जैसी पवित्र नदियों एवं हिमालय जैसे दिव्य सौन्दर्य, वैभव एवं वातावरण में होती है, उतनी अन्यत्र नहीं। गंगा को पवित्रता और हिमालय की प्रखरता का समन्वय होने से यह क्षेत्र देवात्मा हिमालय कहलाता है। अगणित ऐसी विशेषताएँ इस प्रदेश में इस सुयोग-संयोग से ही उत्पन्न हुई, जिनसे प्रभावित होकर देवताओं और ऋषियों को यह भूमि अपने-अपने क्रिया-कलापों के लिए चुननी पड़ी ।

आदिकाल से ही देवात्मा हिमालय ऋषि-मुनियों योगियों, तपस्वियों की तप स्थली रहा है। वेदव्यास ने समस्त वेद शास्त्रों को चार संहिताओं में विभक्त करने से लेकर शिव-पुराण महाभारत तक की रचना इसी की पावन गोद में बैठ कर की थी। आचार्य शंकर ने अपनी साधना यहीं की, एवं प्रख्यात प्रस्थानत्रयी यहीं लिखा था। गौतम बुद्ध, महावीर, ज्ञानानन्द, अशोक, कालीदास, गुरुनानक, कबीर, आदि महापुरुषों ने कभी हिमालय में ज्ञान साधना की थी। सम्राट चन्द्रगुप्त ने राष्ट्रोद्धार का चिन्तन यहाँ के एकान्त एवं शान्त वातावरण में आकर किया था। समर्थ गुरु रामदास को राष्ट्र को संगठित करने एवं एकता के सूत्र में बाँधने की प्रेरणा-शक्ति इसी आद्य स्थान में रामदूत हनुमान से मिली थी। स्वामी विवेकानन्द एवं स्वामी रामतीर्थ ने सनातन धर्म को विश्व व्यापी बनाने की विचारणा तपोभूमि हिमालय की गोद में बैठ कर की थी।

हिमालय की पर्वत-श्रृंखलाओं में कुछ दिनों बैठ कर कवीन्द्र रवीन्द्र ने अपनी जगत विख्यात कविताएँ लिखी थीं। सुभाष चन्द्र बोस संन्यास भावना से प्रेरित होकर बचपन में उत्तराखण्ड के इस पवित्र क्षेत्र का भ्रमण कर मातृभूमि की आजादी के लिए अदृश्य प्रेरणा प्राप्त कर चुके थे। महात्मा गाँधी जी त्रिशूल शृंग के सामने कौसानी पर्वत की चोटी पर बैठकर गीता के अनासक्ति योग के कई परिच्छेद पूरे किये थे। इसके अतिरिक्त श्री ज्ञानदीप शंकर, दयानन्द, राजाराम मोहनराय, महर्षि देवेन्द्र, देशबन्धु चितरंजन दास आदि महापुरुषों ने इस तुषारमण्डित हिमक्षेत्र में कहीं न कहीं अपना आसन जमाया था। भगवान राम, कृष्ण से लेकर भगीरथ तक की कठिन तपस्याओं एवं पाण्डवों के स्वर्गारोहण की कहानी कहता हिमालय आज भी ज्यों का त्यों अपनी उसी भव्यता में विद्यमान है।

यों तो हिमालय अत्यधिक सुविस्तृत भू-भाग पर फैला हुआ है। वह पाकिस्तान से लेकर बर्मा तक चला गया है और यह सारा क्षेत्र ही अनुपम सुन्दरता, अपार सम्पदा एवं दिव्य वातावरण से भरा हुआ है, पर यहाँ उस क्षेत्र की चर्चा की जा रही है जो उत्तराखण्ड का अन्त और दक्षिण खण्ड का मध्यान्तर है, इसे हरिद्वार कहा जाता है। हरिद्वार से आरम्भ होकर देवात्मा क्षेत्र यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ, गोमुख, तपोवन, नन्दनवन वाले उत्तराखण्ड से आरम्भ होकर कैलाश-मानसरोवर तक चला गया है।

हरिद्वार तक ही भागीरथी बहती है, इसके बाद वह गंगा बन जाती है। यह क्षेत्र अभी भी अध्यात्म विभूतियों का केन्द्र है। दृश्य और अदृश्य सिद्ध पुरुष अभी भी इस क्षेत्र में पाये जाते हैं। हरिद्वार से नीचे दक्षिण खण्ड है, जिसमें देश भर के अन्य सभी तीर्थों की गणना होती है। दोनों के मध्य बसी हुई यह भगवान शंकर की परमप्रिय नगरी है। उन्हें दो बार जीवनसंगिनी यहीं से प्राप्त हुई। एक बार दक्ष-कन्या के रूप में सती और दूसरी बार हिमालय पुत्री उमा। सती दाह से शोकाकुल होकर जब शिव ताण्डव करने लगें, तब भगवान विष्णु ने शव का उच्छेदन किया और उसके टुकड़े बिखेर कर देश भर में शक्तिपीठों की स्थापना की। इस दृष्टि से हरिद्वार का महत्व है। इस बार भी उसी की पुनरावृत्ति हुई है, और उसका केन्द्र बना है-इक्कीसवीं सदी की गंगोत्री शान्तिकुञ्ज । इस बार यहाँ से २४ नहीं, २४००० शक्तिपीठों के निर्माण का संकल्प उभरा और शिवसंकल्प का ताण्डव नृत्य दूसरे ढंग से सम्पन्न हुआ।

प्राचीनकाल में जहाँ कहीं तीर्थों की स्थापना की जाती थी, उस स्थापना में प्राकृतिक सौन्दर्य, शान्त वातावरण एवं ऐतिहासिक प्रेरणाओं का महत्व तो था ही, प्रमुख विशेषता वहाँ के तपस्वियों की थी जो उसे एकान्त में जन-कल्याण के लिए अध्यात्म क्षेत्र के अनेकों आविष्कार करने में मूर्धन्य वैज्ञानिकों की तरह लगे रहते थे। साथ ही लोक-शिक्षण की वैयक्तिक एवं सामूहिक योजनाओं का भी सूत्र-संचालन करते थे। उन दिनों तपश्चर्या का अर्थ आत्मपरिष्कार और लोककल्याण की योजनाएँ पूरी करने में उदार साहसिकता का परिचय देना भर होता था, आज की तरह शरीर या मन को अकारण उत्पीड़न देना नहीं, तीर्थ किसी अन्धश्रद्धा, मूढ़मान्यताओं के कारण नहीं अपनी योग्यता एवं सेवा-साधना के कारण प्रख्यात हुए। तपस्वी ही वहाँ ऐसा वातावरण बनाते थे, जिसमें कुछ समय निवास करने वाले अपने में उत्साहवर्द्धक परिवर्तन का अनुभव करते कर सकें। सेनेटोरियम स्वास्थ्य सुधारते हैं। पर तीर्थों में आन्तरिक परिशोधन- परिष्कार की कायाकल्प जैसी जैसी सुविधा हर श्रद्धालु को मिलती थी। शान्तिकुञ्ज-गायत्री तीर्थ को उसी पूर्व परम्परा की अनुकृति बनाने का सूत्र-संचालक सत्ता द्वारा प्रयत्न किया गया है। यहाँ इस बात का अनवरत प्रयास किया गया है। यहाँ वैसा वातावरण बन सके जिसमें प्रवेश या निवास करने वाले किसी गरम भट्टी के समीप पहुँचने जैसी प्राणऊर्जा का अनुभव कर सके और हिमालय के हिमाच्छादित दिव्यक्षेत्र में प्रवेश करने पर मिलने वाली वैसी ही शान्ति व शीतलता पा सकें।

शान्तिकुञ्ज की स्थापना की बात सोचते समय स्थान का चयन भी इसी दृष्टि से किया गया था कि इसकी गणना प्राणवान दिव्यतीर्थों की श्रेणी में की जा सके। सप्तसरोवर के इस क्षेत्र में सप्त-ऋषियों ने यहाँ एक साथ तपश्चर्या की थी। उनकी मानरक्षा के लिए भागीरथी ने स्वयं ही अपनी धारा को सात भागों में विभक्त कर लिया था। गंगा की गोद, हिमालय की छाया, सप्तऋषियों की तपोभूमि होने के कारण गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज के स्थान की विशेषता को आध्यात्मिक त्रिवेणी संगम कहा जा सकता है। स्थापना के अवसर पर चौबीस लाख के चौबीस महापुरश्चरणों का यहाँ आयोजन किया गया। सन् १९२६ से निरन्तर जलने वाली अखण्ड-ज्योति की यहाँ अनुपम स्थापना है। अखण्ड अग्नि पर नौकुण्डीय यज्ञशाला में अनुष्ठानी साधकों द्वारा नित्य हजारों आहुतियों का यज्ञ होता है। नियमित पुरश्चरण क्रम, नवरात्रियों में सामूहिक महापुरश्चरण के अतिरिक्त स्थानीय निवासी तथा बाहर के आगन्तुक सभी अपनी साधना बड़ी मात्रा में करते हैं, जो प्रतिदिन कितने ही लक्षमंत्र जप के समकक्ष हो जाती है।

गायत्री के २४ अक्षरों को चौबीस देव प्रतिमाएँ, अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय करने वाला अभूतपूर्व शोध-अनुसन्धान युग-साहित्य का सृजन, जीवन-साधना का व्यावहारिक सत्र शिक्षण, जड़ी-बूटी उद्यान, अन्तर्ग्रही सूत्र-सम्बन्ध जोड़ने वाली वेधशाला जैसी अनेकों गतिविधियाँ यहाँ चलती हैं जिनके प्रभाव से गायत्री तीर्थ के वातावरण में प्राचीनकाल के तीर्थों जैसी विभूतिवान् विशेषताएँ विद्यमान हैं-वह प्रत्यक्ष है। परोक्ष वह है जिसमें हिमालय की देवात्मा सप्तऋषियों का प्रतीक-पूजन अदृश्य सत्ताओं को आकर्षित करता रहता है। संस्थापक ऋषियुग्म की सूक्ष्म सत्ता की तपश्चर्या अपना विशेष संरक्षण व प्रभाव उत्पन्न करती है। यही कारण है कि यहाँ के सत्रों में सम्मिलित होने वाले वापस लौटने पर अपने में असाधारण परिवर्तन हुआ अनुभव करते हैं। चिन्तन, चरित्र एवं व्यवहार में ऐसी उथल-पुथल हुई देखते हैं, जिसे कायाकल्प के समतुल्य कहा जा सके। ऐसे ही लोगों से यह आशा की जा सकती है कि वे अपने परिवर्तन का प्रभाव दूसरों पर छोड़ेंगे और जलते दीपक की तरह अपने संपर्क क्षेत्र में नवचेतना का आलोक वितरण करेंगे।


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