स्वतन्त्रता स्वर्णजयंती लेखमाला-३ - श्री अरविन्द के स्वप्नों का भारत

August 1997

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१५ अगस्त, १९४७ को राष्ट्रीय स्वाधीनता के रूप में महायोगी श्री अरविन्द का स्वप्न मूर्त हुआ। उन्होंने इसके लिए वर्षों यातनाएँ सही थी। लोकमान्य तिलक सदृश महावीरों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर स्वाधीनता का संग्राम लड़ा था। बाद के दिनों में अलीपुर जेल में मिले भगवान के आदेश को स्वीकार कर पाण्डिचेरी में आकर व इसके लिए तप-साधना में प्रवृत्त हुए और आज से ठीक अर्द्धशताब्दी पूर्व उन्हें अपनी साधना का सुफल राश्ट्र की स्वतन्त्रता के रूप में मिला। कृतज्ञ राश्ट्र ने उनसे इस अवसर पर विशेष सन्देश देने का अनुरोध किया।

उन्होंने इसे स्वीकारते हुए कहा- १५ अगस्त स्वाधीन भारत का जन्मदिन है। यह मेरा अपना भी जन्मदिन भी है। एक गुह्यवेत्ता के रूप में, मैं अपने जन्मदिन को भारतीय स्वाधीनता दिवस के साथ इस प्रकार एक हो जाने कोई दैवयोग या आकस्मिक संयोग नहीं मानता, बल्कि यह मानता हूँ कि जिस कार्य को लेकर मैंने अपना जीवन आरम्भ किया था, उसे मेरा पथ-प्रदर्शन करने वाली भागवत शक्ति ने अपनी अनुभूति दे दी है और उस पर अपनी मुहर भी लगा दी है। इस महान अवसर पर मुझसे संदेश देने की प्रार्थना की कई है, पर शायद मैं सन्देश देने की स्थिति में नहीं हूँ। मैं बस इतना ही कर सकता हूँ कि उन लक्ष्यों और आदर्शों की घोषणा कर दूँ, जिन्हें मैं अपनी बाल्यावस्था और यौवन से पोसता आया हूँ। क्योंकि वे भारत की स्वाधीनता से सम्बद्ध हैं और उस कार्य के अंग हैं, जिसे मैं भारत का भावी कार्य मानता हूँ और जिसमें वह प्रमुख स्थान लिए बिना नहीं रह सकता।

महर्षि की दृष्टि में यह महत्वपूर्ण एवं महान् कार्य है, भारत में वेदकालीन गौरव का नवोन्मेष । भारत के सामाजिक-साँस्कृतिक जागरण के साथ आध्यात्मिक नवजागरण। वह कहते हैं, भारत केवल अपने भौतिक हितों की सिद्धि के लिए विस्तार, महानता, शक्ति और समृद्धि पाने के लिए नहीं उठ रहा, यद्यपि इनकी भी उपेक्षा नहीं करनी होगी और निश्चय ही वह दूसरों की तरह अन्य देशों पर आधिपत्य जमाने के लिए भी नहीं उठ रहा, बल्कि वह उठ रहा है, सारी मनुष्य जाति के सहायक और नेता के रूप में, जगत के हित के लिए।”

भारत की महत्वपूर्ण विशेषता है, उसकी महान् जीवनीशक्ति, अकृत प्राणशक्ति तथा अकल्पनीय उर्वर रचनात्मकता। वह हजारों वर्षों से लगातार अविराम प्रचुरता के साथ अनेक दिशाओं में शाश्वत सृजन करता आया है। गणतन्त्र, राज्य, साम्राज्य दर्शन, सृष्टि शास्त्र, भौतिक विज्ञान, कलाओं, काव्यों, समाज, संस्कृति एवं धार्मिक विधि-विधानों की रचना यहीं हुई है। आध्यात्मिकता यद्यपि शुरुआत से ही भारतीय जीवन की कुँजी रही है, परन्तु यहाँ भौतिक विकास एवं समृद्धि को कभी उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा गया। भारत वेदकाल से ही भौतिक विधानों एवं शक्तियों की महानता से परिचित रहा है। भौतिक विज्ञानों के महत्व के लिए उसके पास तीव्र दृष्टि रही है।

वह जीवन की कलाओं को संगठित करना जानता, लेकिन उसने देखा कि अतिभौतिक के साथ उचित सम्बन्ध के बिना भौतिक को अपना पूरा अर्थ प्राप्त नहीं होता। सम्भवतः इसीलिए भारत के विकास में तीन तत्व सदैव उपस्थित रहे, आत्मा की शोध से ज्योतिर्मय अध्यात्म, विज्ञान की शोध तथा इन दोनों की समन्वित शक्ति के समुचित सदुपयोग के लिए शास्त्र की रचना। इनमें से कोई भी एकत्रित न था। भारत ने महानतम से लेकर लघुतम या तात्कालिक महत्ता रखने वाले अर्थात् सभी तरह के विशय में उसने सर्वग्राही सूक्ष्म और पूर्ण बुद्धिमत्ता के साथ कार्य किया।

भारत महादेश एक भूखण्ड मात्र नहीं है, वाक् विलास नहीं है और न कोरी मन की कल्पना है। यह महाशक्ति है, जो राष्ट्रनिर्माण करने वाली कोटि-कोटि जनता की व्यष्टि शक्तियों का समाविष्ट रूप है। जैसे-पुञ्जीभूत होने पर एक शक्तिशाली भवानी महिषमर्दिनी का उद्भव हुआ था, वैसे ही कोटि-कोटि जनता की व्यष्टि शक्तियों की जीवन्त समष्टि भारत को भवानी भारती भी कहा जा सकता है। इसकी शक्ति इसकी सन्तानों का विकास करती हैं और इसकी सन्तानें अपनी शक्ति का अर्घ्य चढ़ाकर इसके गौरव को समृद्ध करती हैं। हम यदि अपनी भारत माता के मस्तक को गौरवान्वित करना चाहते हैं, तो इसके लिए हमें अपने स्वभावों को बदलना होगा। स्वतन्त्रता मिलने के बाद देश को ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता है, जिनमें शक्ति का अधिकतम सीमा तक विकास किया जा सके और जा अपनी इस शक्ति की बूँद-बूँद को निचोड़ कर अपनी भारतभूमि को उर्वर बना सकें। भवानी भारती की ज्वाला को अपने अन्तःकरणों और मस्तिष्कों में धारण कर ये लोग जब निकल पड़ेंगे, तो अपनी भूमि के हर कोने और कन्दरा में वे उस ज्योति को ले जाएँगे ।

वैदिक सभ्यता के नवोन्मेष एवं भारती राष्ट्रवाद की सफलता के लिए राष्ट्र की समूची शक्ति की जाग्रति और उसके संगठन की दृढ़ता जरूरी है। इसके लिए यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि पिछड़े हुए वर्गों को जाग्रत किया जाय और उन्हें राष्ट्रीय जीवन-धारा से जोड़ा जाय। सभी को विकसित करके ही राष्ट्रवाद विकसित हो सकता है। राष्ट्रवाद की पहली और सब चीजों से बढ़कर माँग है, जीवन और अधिक जीवन। स्वतन्त्र भारत के नागरिकों से उसका आह्वान है, आओ, पहले हर तरह से स्वयं को मौत के साये से छुड़ाओ, जिसने तुम्हें दीर्घकाल से अवरुद्ध कर रखा है। स्वयं की अकर्मण्यता, निश्चलता और निष्क्रियता की केंचुल को उतार फेंको। क्योंकि यही लम्बे समय से हमारे राष्ट्रीय जीवन के लिए अभिशाप रही है। यह हमारे राष्ट्रीय जीवन की पहली और अनिवार्य आवश्यकता है।

भारतमाता हमसे हमारे हृदय, हमारे जीवन चाहती है, न उससे कम, न उससे ज्यादा। उसने हमसे आत्मोत्सर्ग की माँग की है। वह हमसे पूछ रही है, कितने लोग हमारे लिए जिएँगे? कितने हमारे लिए मरेंगे। स्वतन्त्र भारत के अभ्युत्थान के लिए ऐसे समर्पित सेवकों की जरूरत है, जो कोई पुरस्कार नहीं माँगते, जिन्हें किसी सुविधा ये ऐसी किसी अनावश्यक चीज की जरूरत न हो, जीवनयापन करके राश्ट्र-निर्माण कर सकें। अगर ऐसे लोग संख्या में कम हैं, तो कोई परवाह नहीं। सबसे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि वे जिस पदार्थ से बने है, वह शुद्ध हों। भारत माता की आवश्यकता है, अपनी तलवार के लिए कठोर शुद्ध इस्पात की, अपने किले कि लिए अति विशाल ग्रेनाइट की। ऐसी लकड़ी की जो उनके धनुष में टूट न जाए। जो उनके रथ की धुरी के लिए सच्चा और मजबूत तत्व हो, क्योंकि स्वाधीनता के साथ ही मानवीय महायुद्ध शुरू हो चुका है और उसकी शंखध्वनि सुनाई देने लगी है।

राष्ट्र-निर्माण में युवाओं पर विशेष दायित्व है। क्योंकि एक युवा और नवीन देश इस समय विकसित होने की प्रक्रिया में है और उसे युवाओं को ही सृजित करना है। इस महान् कार्य में कायर, स्वार्थी और वाचाल लोगों के लिए कोई स्थान नहीं है। दिलेर, स्पष्टवादी, स्वच्छ हृदय, साहसी और दृढ़प्रतिज्ञ नवयुवा ही वह नींव है, जिस पर भावी राश्ट्र की इमारत खड़ी होगी। इसके लिए ब्रह्मतेजस् सम्पन्न युवाओं की आवश्यकता है। यह ब्रह्मतेजस् संसार का संचालन करने वाली महाशक्ति का हमारे अन्तर में निहित शक्ति के समागम, स्वयं का उसके प्रति समर्पण से उत्पन्न विचार और कर्म का बल और ऊर्जा है। ईश्वर के उपकरण के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करने वाले ऐसे कुछ ही व्यक्तियों को योगदान राश्ट्र को समर्थ एवं सम्पन्न बना सकता है। ऐसे ही लोग देश को ऊपर उठाएँगे।

श्री अरविन्द कहते हैं, “हमारी पुकार युवा भारत के नाम है। युवकों को ही नवीन भारत का निर्माता होना चाहिए। ऐसे युवक जो मन और हृदय में पूर्णतः सत्य को स्वीकार करने के लिए स्वतन्त्र हैं और महत्तर आदर्श के लिए परिश्रम करने को तैयार हैं। उन्हें अपने जीवन का उत्सर्ग और अपने निम्नतर अहं लाँघ सकने का पुरुषार्थ राष्ट्रहित में करना चाहिए। राश्ट्र और मानवहित के लिए अथक परिश्रम और पूरे मन से अपना उत्सर्ग स्वतन्त्र भारत को स्वर्णिम बनाने में करना चाहिए। वास्तविक जनक्रांति तो स्वतन्त्रता के बाद ही होनी है। इसके लिए हर युवक को अपनी अभीप्सा में महान् और अपनी आहुति में अनन्त होना चाहिए। स्वतन्त्र भारत के नवनिर्माण के महायज्ञ में अपनी बलि के लिए हमें अपनी जीवन, अपनी सम्पत्ति, अपनी आशाओं एवं अपनी महत्त्वाकाँक्षाओं को आहुति देने हेतु अग्रसर होना चाहिए।”

युवाओं को सम्बोधित करते हुए उनके शब्द हैं,”युवाओं ! तुम भौतिक दृष्टि से ही नहीं, वरन् आध्यात्मिक दृष्टि से भी सब कुछ हो। एक भारतीय युवा ही ऐसा है, जो सब चीजों पर विश्वास कर सकता है, सबका सामना कर सकते हैं। इसलिए पहले भारतीय बना। आर्यों के विचार, आर्यअनुशासन, आर्यचरित्र, आर्यजीवन फिर से अपनाओ। वेद, योग और गीता को फिर से उपलब्ध करो। उन्हें केवल अपनी बुद्धि एवं भावना में ही नहीं अपने जीवन में फिर से व्यवहार लाओ। स्वयं अपने अन्दर की सारी शक्ति के स्त्रोत को पुनः प्राप्त कर लो, फिर अपने आप सभी कुछ तुमसे जुड़ जाएगा। सामाजिक पुष्टता, वैदिक युगीन उत्कर्ष और राश्ट्र का नेतृत्व सभी तुम्हारे कर्तृत्व बनने लगेंगे

महर्षि अरविन्द के अनुसार, उनके स्वप्नों के भारत को चरितार्थ करने में जितनी भूमिका युवाओं की है, उससे कहीं अधिक नारियों की। उनकी दृष्टि में नारी वीरता, सहनशीलता और शक्ति का प्रतीक है। आपस में मिलाना, निराश व्यक्तियों को साहस और प्रेम देना, गिरे हुओं को उठाना, रोगियों की सेवा-सुश्रूषा अपने अन्दर तथा अपने साथ एक आशा, एक विश्वास और अखण्ड उत्साह नारी का परिचय है। नारी का सौन्दर्य है, पूर्ण समस्वरता, नमनीयता, और शक्ति−सामर्थ्य, श्री और शक्ति, कोमलता, सहनशीलता, सर्वोपरि उदात्त भावनाएँ जो अविकारी हैं, जा उनकी परमात्मा पर अटल श्रद्धा का परिणाम होती है

सिद्धान्ततः नारी कार्यकारिणी शक्ति है। नारी के अन्दर वह शक्ति है, जा समस्त संगठन शक्ति के साथ सभी व्योरों में जा सकती है। भारत की नारियाँ अबला नहीं, उनकी ऊर्जा सहनशक्ति पुरुषों से कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी है। जिस संपत्ति का शासन नारी के हाथ में रहता है, वह समृद्ध होती जाती है। इनके सहयोग से ही देश अधिक विकास कर सकता है। स्वाधीन भारत के नवनिर्माण में स्त्रियों की भूमिका निस्वार्थता की प्रवृत्ति और अधिक मानवीय समाधान लाएगी। भावी भारत की नियति समग्र विश्व का नेतृत्व करने के लिए है। निश्चित ही उसमें नारी की भूमिका वरेण्य होगी।

राश्ट्र-निर्माण में अग्रसर हममें से प्रत्येक को यह गौरव-बोध होना चाहिए कि हमें विधाता ने महान् देश के नागरिक होने का अवसर दिया है। हमारी सभ्यता उतनी ही प्राचीन है, जितनी प्राचीन हमारी नदियाँ। हमारे पीछे उनसे भी कई गुनी महानता का वह इतिहास है, जिससे बढ़कर इतिहास किसी भी देश की सभ्यता का नहीं है। हम उनके वंशज हैं, जिन्होंने तपस्या की थी, चेतना जगत में गहन अनुसंधान के लिए अश्रु तप किये थे। जिन्होंने स्वेच्छा से मानव को सम्भव सभी कष्टों को हँसते हुए स्वीकार किया। हम ऐसे लोग है, जो पीड़ा का स्वागत करते हैं और जिनके हृदय में आध्यात्मिक शक्ति है, जो किसी भी भौतिकबल से अधिक बड़ी हैं।

हम भारतीय हैं, जिनके बीच भगवान ने हमारे इतिहास के अनेक महत्वपूर्ण क्षणों में दूसरी किसी भी जाति की अपेक्षा अधिक प्रकट किया है। हम भारतवासी हैं, आर्यों के वंशधर । यह आर्य भाव ही है हमारा कुलधर्म और राष्ट्रधर्म । वेदों में आर्य वे लोग हैं, जिन्होंने एक विशेष प्रकार के आन्तरिक और वाह्य व्यवहार को अपना लिया था। जिन्होंने बिना किसी से डरे, बाधा अथवा पराजय से बिना रुके एक अद्भुत संस्कृति व सभ्यता का निर्माण किया, वे देवत्व की पहाड़ी पर एक स्तर से दूसरे स्तर तक उत्तरोत्तर चढ़ते ही गये।

उनके द्वारा रचित संस्कृति एवं सभ्यता के सूत्र शाश्वत हैं, वर्तमान में भी समीचीन हैं। भविष्य में भी अपने महान् देश के भव्य समाज की नव्य रचना इन्हीं के द्वारा होनी है। श्री अरविन्द के अनुसार, इन सूत्रों के आधार पर वर्तमान एवं भविष्य की परिस्थितियों के अनुरूप हमें जिस समाज की रचना करनी है, वह अतिमानसिक समाज होगा, जिसमें प्रत्येक सदस्य स्वयं को औरों की भावनाओं से जुड़ा हुआ महसूस करेगा। आध्यात्मिक साम्यवाद ही इस नए समाज का दार्शनिक सिद्धान्त होगा।

यह साम्यवाद मार्क्स द्वारा प्रतिपादित साम्यवाद से पूर्णतया भिन्न होगा। श्री अरविन्द के अनुसार-इस आध्यात्मिक साम्यवाद की पृथ्वी पर स्थापना की शुरुआत भारत देश से होगी। यह आत्मा के मातृत्व एवं अहंकार की मृत्यु की नींव पर पनपेगा। बलात् लिए गए सहयोग या मशीनी ढंग से साथीपने का अन्त विश्वव्यापी पूर्ण असफलता में होगा। जीवन में उपलब्ध वेदान्त ही सच्चे साम्यवादी समाज के लिए एकमात्र व्यावहारिक आधार है। यही वह साधूनां साम्राज्य है, जिसका स्वप्न ईसाई, मुस्लिम एवं पौराणिक हिन्दू धर्म में देखा था। प्राचीन भारत में सामाजिक जीवन के तीन गढ़ थे-ग्राम्य समाज, विशालतर सम्मिलित परिवार और परिव्राजक सम्प्रदाय। भविष्यत् भारत के समाज को इसी विशालता एवं दिव्यतर समाजवाद की ओर अग्रसर होना है।

इसके निर्माण में हमारी सहायक बनेगी ज्ञान की वह महान् विरासत जो हमारे पूर्व पुरुषों ने हमें सौंपी है। नयी पीढ़ी का व्यक्तित्व निर्माण इसके आधार पर हो सके, इसके लिए एक नयी राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था के सृजन की आवश्यकता है। यह कार्य वर्तमान विश्वविद्यालयों की व्यवस्था के विस्तार से सम्भव नहीं। शिक्षा की वर्तमान प्रणालियाँ बुनियादी रूप से मिथ्या, निष्क्रिय एवं निस्तेज हैं। भारतीय ज्ञान सम्पदा को लोकहित एवं देशहित में विस्तारित, प्रकाशित करने का काम तो केवल एक नयी चेतना और एक ऐसी नयी संस्था ही सृजित कर सकती है, जिसका जन्म राश्ट्र के हृदय से हुआ हो। जा पुनर्जीवन एवं आशा से भरपूर हो।

राश्ट्र के निमार्ण में सहायक राष्ट्रीय शिक्षा ऐसी शिक्षा है, जो अतीत से प्रारम्भ होती है और वर्तमान का पूरा उपयोग करते हुए एक महान् राश्ट्र का निमार्ण करती है। हमें भारत के लिए वह सारा ज्ञान, चरित्र और उत्कृष्ट विचार जो उसने अपने अविस्मरणीय अतीत से जमा कर रखे हैं, बचाना है, उसे प्रकाशित करना है। अब तक मानवता ने शिक्षा की उत्तम से उत्तम प्रणालियाँ जो विकसित की हैं, चाहे आधुनिक हों अथवा पुरातन, हमें सभी को समाविष्ट करना चाहिए। इन सभी को समन्वित करके हमें एक ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए, जो आत्मावलम्बन की भावना से गर्भित हो, जिसके द्वारा मनुष्यों का निर्माण हो, मशीनों का न हो। ऐसी शिक्षा ही स्वाधीन भारत के भविष्य को स्वर्णिम बना सकती है।

भारत महादेश को अपने नवनिर्माण काल में अनेकों कठिनाइयों, विपदाओं से गुजरना है। इस दौर में भारतमाता विदेशियों से ही नहीं बल्कि अपनी ही सन्तानों द्वारा छली जाएगी। लेकिन ध्यान रखना चाहिए कि विश्व के इतिहास में ऐसे युग आते हैं, जब उसकी नियति का नियन्त्रण करने वाली अलक्ष्य सत्ता परिवर्तन के विनाशकारी आवेग और पुरातन के प्रति उत्कट अधीरता से भरी जैसी प्रतीत होती है। महामाया आद्यशक्ति ने राष्ट्रों को अपने हाथ में लेकर उन्हें नया रूप देने का संकल्प लिया है। तोपों की आवाज और फौजों के कदमों के धमाके, बड़े-बड़े अधःपतनों के चकनाचूर होने और तेज हिंसात्मक क्रान्तियों के शोरगुल से भरे ये युग तीव्र विनाश और सशक्त सृजन के युग हैं। पूरी दुनिया को गलाने वाली कढ़ाई में डाल दिया गया है। वह नया रूप नया आकार लेकर निकलेगी। वह ऐसा युग है, जब बुद्धिमानों की बुद्धिमानी चकरा जाएगी और प्राज्ञों की प्रज्ञा हास्यास्पद दिखने लगेगी।

अपनी नियति की इस गम्भीर संक्रान्ति में हम लोग अपना धैर्य न खोएँ और न ही हतबुद्धि हो जाएँ। निराशा से अपनी आत्माओं को हतोत्साह न होने दें। स्वतन्त्र भारत के नवनिर्माण के लिए जो लड़ाई हमें लड़नी है, वह प्राचीन युद्धों जैसी नहीं हैं, जिसमें राजा अथवा नेतृत्व करने वाला गिर गया, तो सेना भाग खड़ी हुई। नवनिर्माण के इस महासागर में हमें जिसका अनुसरण करना है, वह हमारी अपनी मातृभूमि है, पवित्र और अविनाशी ।

इस मार्ग में पीड़ाएँ गहरी है और साथ देने वाला भी हमारे अपने अन्तर्यामी परमेश्वर के सिवा और कोई नहीं। ऐसे में हृदय मूर्छित न होने पाए और न ही उदासी छाए तथा कोई अदूरदर्शी उत्तेजना भी न हो, न अंधघाती पागलपन। हमारी भयंकर परिचय का समय प्रारम्भ हो रहा है। मार्ग सरल नहीं होने का, भारत को विश्व-नेतृत्व का मुकुट सस्ते में नहीं मिल जाएगा। भारत मौत के साये की घाटी में, अंधकार और यंत्रणाओं के घोर संग्राम से गुजरेगा। हमें समझ लेना चाहिए कि अभी जो हम कष्ट उठा रहे हैं, वह उस यंत्रणा का एक छोटा सा हिस्सा है, जो हमें भुगतनी है और यही समझकर दृढ़ता एवं समर्थता के साथ नवनिर्माण अभियान में जुट रहें। वर्तमान क्षण में पहली अपेक्षा साहस की है, ऐसे साहस की जो पीछे हटना अथवा सिकुड़ना जानता ही न हो।

हाँ हमारे कार्यों की, हमारे उत्सर्ग की परिणीत सुनिश्चित है। भारत के उज्ज्वल भविष्य का सूर्य उदित होगा और समस्त भारत को अपनी ज्योति से भर देगा। केवल भारत ही नहीं एशिया और समस्त जगत इससे प्लावित होगा। भारत फिर से युवा बनेगा। ऊर्जा के धाराप्रवाह, तरंगित स्त्रोत उसमें प्रवाहित होंगे। उसकी आत्मा फिर से वैसी ही बनेगी, जैसे वह पुरातनकाल में थी। लहरों जैसी विशाल, शक्तिशाली, इच्छानुसार शान्त अथवा विक्षुब्ध, कर्म तथा बल का महासागर। भारत की आध्यात्मिकता भारत की साधना तपस्या, श्रम व शक्ति ही हमारे स्वतन्त्र भारत को महान् बनाएगी। अपने नवनिर्माण के अवसर पर भारतमाता तपस्वियों, संन्यासियों को ही नहीं बल्कि समस्त शक्तिसम्पन्न लोगों की आत्माओं का आह्वान कर रही है।

भारतीय स्वाधीनता की अर्द्ध-शताब्दी इसी १५ अगस्त, १९९७ को पूर्ण हुई। स्वतन्त्रता संग्राम के महानायक एवं दिव्यदर्शी श्री अरविन्द का कथन इस अवसर पर अधिक ज्योतिर्मय हो उठा है। उनका आह्वान यथावत है और पुकार अधिक तीव्र साथ ही मार्गदर्शन स्पष्टतर । जिनमें भी देशभक्ति की जरा-सी भी चिनगारी है, वे इन पंक्तियों को पढ़कर आह्लादित, उद्वेलित एवं अग्रसर हुए बिना न रहेंगे। राश्ट्र के सपूत माँ भारती की दुहिताएँ राश्ट्र नायक की पुकार अनसुनी भी कैसे कर सकते हैं ? हम सभी के हृदय स्वाधीनता की स्वर्णजयंती की पूर्णता पर प्रार्थना के समवेत स्वर उभरें। हे माँ ! हे भारत की आत्मशक्ति । हे जननी ! आज, इस महान घड़ी में जबकि हम जग पड़े हैं और तेरी स्वतन्त्रता के इस उषाकाल में तेरे मुखमण्डल पर ज्योति पड़ रही है, हम तुझे नमस्कार करते हैं। हमें पथ दिखा जिसमें हम सर्वदा महान् आदर्शों के पक्ष में ही खड़े हों और अध्यात्म मार्ग के साधक के रूप में तथा सभी के मित्र एवं सहायक के रूप में तेरा सच्चा स्वरूप मनुष्य जाति को, विश्ववसुधा को दिखा सकें।


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