सौन्दर्य का दर्प

August 1997

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प्रातः होते ही सूर्य की किरणें बाग में सोना बिखेर देती। सूर्य की स्वर्णिम रश्मियों का स्पर्श पाकर बाग के कण-कण में नवीन चेतना भर जाती। ढेर सारे रंग-बिरंगे फूल खिलखिला कर हँस पड़ते । फूलों की यह खिलखिलाहट समूची प्रकृति को अपनी ओर आकर्षित कर लेती। पक्षियों का कलरव फूलों की मादक सुगंध के संदेश को दूर-दूर तक पहुँचा देता। इस संदेश को सुनकर अनगिनत तितलियाँ वहाँ अपने आप पहुँच जाती। इन्हीं के साथ ढेर सारी मधुमक्खियाँ भी आ जाती। भंवरों को फूलों का आकर्षण कम न था। वह भी खिंचे चले आते। पूरा बाग सवेरा होते ही इनके स्वर से गुँजायमान हो जाता।

भंवरों का रंग काला था और मधुमक्खियाँ तो बेचारी मटमैले रंग की थीं। तितलियों के ठाट निराले थे। अपने रंग-बिरंगे पंखों में फूलों पर बैठी वे बड़ी सुन्दर लगती थीं। अपनी सुन्दरता पर उन्हें बड़ा घमंड भी था। वे इठला-इतरा कर कभी इस फूल पर, कभी उस फूल पर बैठा करतीं। सोचती हमारे पंख तो फूलों की पंखुड़ियों से भी ज्यादा सुन्दर हैं। हमार कारण ही तो फूलों की शोभा है। हमीं तो बगीचे का आकर्षण हैं। हम न हों तो भला यहाँ कौन आना पसंद करेगा ?

किंतु मधुमक्खियों के पंख तितलियों जैसे सुंदर न थे। वे बेचारी चुपके से आती और फूलों का रस लेकर वापस चली जातीं। उन्हें अपने काम से तनिक भी फुर्सत न थी। सारा दिन फूलों से पराग को इकट्ठा करने और उसे शहद में बदलने में लग जाता। श्रम ही जैसे उनके जीवन का मूलमंत्र था। भंवरे बेचारे तो सारा समय गुनगुनाने में ही पूरा करते। स्वयं प्रसन्न रहकर अपने संगीत से समूचे वातावरण में अपने संगीत-गुँजन का मधुर रस घोलते रहना उनका अनकहा संकल्प था। उनका यह गुँजन फूलों को अतिशय प्यारा लगता। इसे सुनकर वे सब खुशी से झूम उठते।

तितलियों के पास कोई काम न था। वे बेकार ही सारे दिन पूरे बाग में इधर-उधर मंडराया करती थीं। उनका फालतू इधर-उधर मंडराना फूलों को कतई अच्छा नहीं लगता था। वे जानते थे कि तितलियों को अपने सुंदर पंखों पर बड़ा घमंड है और वे किसी को अपने सामने नहीं गिनती। अपने घमंड में फूली-फूली फिरती रहने वाली इन तितलियों को सामान्य शिष्टाचार एवं शालीनता की भी समझ नहीं है।

जहाँ सारी प्रकृति सूर्योदय होते ही समूची सृष्टि में जीवन-संचार करने वाले भगवान सूर्य का नमन करने लगती, वहीं ये तितलियाँ अपनी अकड़ में मारी-मारी फिरतीं। यही नहीं जब-तब ये दूसरों की निन्दा करने से बाज न आती।

एक दिन यही तितलियाँ फूलों से कहने लगीं-” ये मधुमक्खियाँ और भंवरे कितने गन्दे लगते हैं। पता नहीं तुम लोग इनकी गन्दगी और बदसूरती पर क्यों ध्यान नहीं देते हो। ये मधुमक्खियाँ कितनी चिपचिपी और मटमैली, भद्दी हैं। हमारा तो इन्हें छूने का भी मन नहीं करता और भंवरे जरा देखो तो इनकी ओर कितने काले-कलूटे हैं। पता नहीं अपने को क्या समझते हैं, सारा दिन इधर-उधर भिनभिनाते फिरते रहते हैं। इन बदसूरत लोगों से तो हम बात तक करना नहीं पसंद करतीं।

ये जब कभी तुम्हारी पंखुड़ियों पर बैठते हैं, तो कतई अच्छे नहीं लगते। बल्कि एक धब्बे की तरह दिखाई देते हैं। फिर पता नहीं क्यों तुम लोग इन्हें अपने पास आने देते हो। यही नहीं इन्हें अपने ऊपर बैठने देते हो ? जबकि हम तितलियाँ कितनी सुंदर हैं। हमारे पंख भी तुम्हारी पंखुड़ियों की तरह रंग-बिरंगे कोमल और सजीले हैं। हमारे बैठने से तो बाग की शोभा और अधिक बढ़ जाती है। ऐसा लगने लगता है जैसे कोई एक और नई कली बाग में खिल गयी हो।”

तितलियों की बात सुनकर फूल खिलखिलाकर हँस पड़ और कहने लगें “तुम ठीक कहती हो, ये भंवरे काले हैं, जो तुम्हें देखने में सुन्दर नहीं लगते। मधुमक्खियाँ मटमैली हैं, जिन्हें तुमको छूने का मन नहीं करता। परन्तु सुन्दरता उतनी ही नहीं जितनी दिखाई देती हैं। वास्तविक सुन्दरता तो क्रिया एवं भावना में है। शायद इसे देखने-परखने की तुम्हारे पास समझ नहीं हैं।

हम फूलों को भी तुम हमारे रंग-बिरंगे होने के कारण ही सुन्दर कहती हो पर हमारी सुन्दरता सिर्फ हमारे रंग-बिरंगेपन में नहीं, बल्कि पराग और सुगन्ध में है। यही हमारे पुष्प जीवन का सार है। यही हमारा सद्गुण है।

ऐसे ही बहुत सारे गुण इन भंवरों और मधुमक्खियों में भी हैं। भंवरे काले ही सही, परन्तु कितना मीठा राग सुनाते हैं। इनके गुँजन से पूरी बगिया गुंजायित हो जाती है। इनका यह मधुर राग हम सब में रस का संचार करता है और ये मधुमक्खियाँ भले ही मटमैली हैं, किंतु इनकी श्रमशीलता, लोकोपकार की भावना देखते ही बनती है।

ये सारे दिन इस फूल से उस फूल तक घूम-घूमकर पराग एकत्रित करती हैं। इस पराग को अपने अनवरत श्रम से शहद में बदलती हैं। उनका यह मधुर शहद मानव सहित अन्य प्राणियों के लिए पुष्टिवर्धक रसायन है। यह न केवल स्वादिष्ट है बल्कि औषधि के काम में भी आता है।

और तुम तितलियाँ”“‘। तुम क्या देती हो लोगों को ? बेकार में ही अपनी सुन्दरता पर इठलाया करती हो। सुन्दरता के दर्प ने ही तुम्हें नकारा एवं अकर्मण्य बना दिया है।” तितलियाँ फूलों के इस कथन पर अचम्भित थीं। फूल अपनी परिचित मुस्कान के साथ कहे जा रहे थे- “दर्प और दम्भ अच्छा नहीं होता। सभी में कोई न कोई गुण होता है। भले ही वे देखने में सुन्दर न हों, परन्तु उनके सद्गुण उन्हें सुन्दर और उपयोगी बना देते हैं। तुम भी अपने गुणों का विकास करो और सही मायने में सुन्दर बनो


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