ज्ञान-दान की महिमा

August 1997

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सोते-सोते वह चौंक कर उठ बैठा। सपने की बात सोचकर उसे कँपकँपी हो रही थी। स्वप्न में उसने देखा कि भगवान शिव और माता गौरी आकाश मार्ग से गुजर रहें हैं। अचानक गौरी माँ ने उसके विशाल भवन को देखकर भगवान आशुतोष से पूछा-भगवन् इतना बड़ा भवन निर्जन क्यों दिख रहा है ? उत्तर में महादेव ने उसके ज्ञानी और महा अहंकारी होने की सारी कथा कह सुनाई। रुष्ट होकर जगज्जननी बोलीं-देव इस ब्राह्मण को ज्ञान का इतना अहंकार, मैं इसे ब्रह्मराक्षस होने का श्राप देती हूँ। जब तक यह दूसरों को ज्ञान वितरित नहीं करेगा, इसकी मुक्ति नहीं हो सकेगी।

बड़ा अद्भुत स्वप्न था। स्वप्न में माता पार्वती का श्राप सुनते ही वह भयभीत हो गया था। रह-रह कर उसे अपना सारा अतीत याद आ रहा था। गोपुर नामक इस गाँव में वह ज्ञानसागर के नाम से प्रसिद्ध था। उच्चकोटि का विद्वान होते हुए भी उसने कभी अपने ज्ञान का लाभ औरों को नहीं होने दिया।

हाँ, उसने धन अर्जित कर अपने लिए सर्व सुविधा युक्त विशाल भवन का निर्माण अवश्य कराया। इस भवन की दहलीज पर न जाने कितने जिज्ञासु, ज्ञानप्रार्थी उससे अनुनय-विनय करने आयें। परन्तु उसने निष्ठुरता पूर्वक सभी को ठुकरा दिया। अपने विशाल भवन में रहते हुए उसने अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया और अनगिनत पाण्डुलिपियाँ तैयार की। जिन्हें बेचकर उसने भारी धन कमाया और अपनी सुविधाओं में बेतहाशा वृद्धि की। लोगों को उसके रंग-ढंग पर आश्चर्य तो हुआ परन्तु बाद में वे उदासीन हो गये।

किन्तु आज के स्वप्न ने तो उसे हतप्रभ कर दिया था। जैसे-जैसे रात कटी। सुबह जगने पर उसे सुनाई दिया, दो राहगीर आपस में बातें करते चले जा रहे थे। पहले ने पूछा-क्या यहाँ सचमुच राक्षस रहता है ? दूसरे ने जवाब दिया- हाँ भाई जल्दी बढ़ चलो। यहाँ ब्रह्म राक्षस रहता है। अभी दिन है तो आ-जा सकते हैं। रात को इस मार्ग पर कोई चलता भी नहीं। उस खिड़की के प्रकाश में कोई परछाई आती-जाती रहती है। इन बातों को सुनकर वह हैरान हो गया। उसे लगने लगा कि स्वप्न की बात सचमुच सच है-आस-पास के लोग उसे इंसान नहीं राक्षस मानने लगे हैं।

उसके मन में आया कि वह बाहर निकल कर लोगों से मिले, उन्हें बताए कि वह राक्षस नहीं इन्हीं की तरह एक इंसान है। अपने विचार को निश्चय में बदल कर उसने अपने भवन का द्वार खोला। बहुत दिनों से बन्द द्वार बड़ी मुश्किल से खुला, लेकिन जैसे ही उसने द्वार से बाहर पाँव रखे कि लोगों में भगदड़ मच गयी। ब्रह्मराक्षस निकला- ब्रह्मराक्षस निकला कहते हुए लोग इधर-उधर दौड़ने-भागने लगे। उसकी सारी चेष्टाएँ बेकार गयीं। अब वह ज्ञान देना चाहता था, लेकिन कोई लेने के लिए तैयार नहीं था। भला ब्रह्मराक्षस के पास कौन अपने बालक को पढ़ने भेजता। उसका मन हाहाकार करने लगा। वह मुक्ति चाहता था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे ?

धीरे-धीरे समय बीतने लगा। गोपुर ने बड़े नगर का रूप ले लिया। सुभागा नामक एक स्त्री जो गुणनिधि नामक पुत्र की माँ थी, अपने बालक को लेकर गुरुकुल गयी। वह बालक के पिता का नाम नहीं बता पाने के कारण अपमानित और दुःखी होकर उस मार्ग से जा रही थी। उस निर्जन भवन को देखकर बालक गुणनिधि ने अपनी माँ से पूछ लिया, माँ यहाँ राक्षस रहता है, ऐसा सब लोग क्यों कहते हैं ? सुभागा ने उत्तर दिया, वह राक्षस था नहीं बेटा! ज्ञान के अहंकार ने उसे राक्षस बनाया है अन्यथा उसके समान विद्वान व्यक्ति इस राज्य में कोई नहीं है। कहकर सुभागा ने रास्ते में चलते हुए अपने पुत्र को ज्ञान सागर की कथा सुनाई।

दूसरे दिन बालक गुणनिधि ने आकर उस जंग लगे विशाल द्वार के पास आकर आवाज लगाई- द्वार खोलो, मैं भीतर आना चाहता हूँ। ज्ञानसागर ने खिड़की से झाँककर देखा, कोई बालक द्वार के पास खड. आवाजें लगा रहा था। उसने पूछा- तुम भीतर क्यों आना चाहते हो? बालक ने हाथ जोड़कर प्रणाम कर कहा- मैं आपसे ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ। द्वार खोल दीजिए। ज्ञान सागर ने आश्चर्य से पूछा- क्या तुमने मेरे बारे में लोगों से सुना नहीं ? मुझे देखकर तुम्हें डर नहीं लग रहा है ? गुरु से डर कैसा ? मैं अपनी माता की इच्छा पूरी करना चाहता हूँ। मुझे ज्ञान दीजिए, द्वार खोल दीजिए।

अनेक वर्षों बाद वह लौह द्वार आवाज करता हुआ खुला। गुणनिधि भीतर चला गया। लौह द्वार फिर बन्द हो गया।

वर्षों तक ज्ञानसागर गुणनिधि को अध्यापन द्वारा उसके ज्ञान की प्यास को तृप्ति देने लगा। किन्तु द्वार पहले की ही तरह बन्द रहते। वह शिष्य के साथ ज्ञान चर्चा करके सुखी होता। गुणनिधि हमेशा उसके साथ रहता। गुणनिधि अपने गुरु के प्रति आश्वस्त और निर्भय था। वह मन लगाकर ज्ञानार्जन करता।

एक शाम गुरु ने अपने शिष्य को अपने पास बुलाकर कहा-पुत्र गुणनिधि आज तुम्हारी शिक्षा समाप्त हो गयी। कल सुबह तुम्हारी माता तुम्हें लेने आएँगी । मैंने अपने भीतर के ज्ञान की एक-एक बूँद तुम्हें दे दी है। इसका उपयोग समाज हित में करना और कभी ज्ञान का अहंकार न करना। सुनकर शिष्य ने गुरु के चरणस्पर्श कर ऐसा ही करने की प्रतिज्ञा की।

दूसरी सुबह सुभागा ने अपने पुत्र को दरवाजे के बाहर खड. होकर आवाज देकर बुलाया। द्वार खुलने पर उसने देखा एक सुदर्शन युवक माथे पर ज्ञान की गरिमा लिए उनके चरणों में झुक रहा है। सुभागा ने उसे सीने से लगाकर माथा चूमते हुए कहा-चलो पुत्र घर चलें। गुणनिधि ने माँ का हाथ पकड़ कर कहा हाँ, माँ, पर पहले मैं अपने गुरु से अनुमति ले लूँ। आओ गुरुदेव से मिलने उस वृक्ष के पास चलें। वापस जाकर माता-पुत्र ने देखा-गुरु वृक्ष के नीचे समाधिस्थ बैठें हैं। उनके प्राण ईश्वर में विलीन हो चुके हैं।

सुभागा ने अपने रोते हुए पुत्र के साथ गुरु का अंतिम संस्कार वहीं भवन के आँगन में किया। दोनों कुछ देर तक मौन खड. रहें। फिर मौन तोड़ते हुए सुभागा अपने पुत्र से कहने लगी-पुत्र गुणनिधि! ज्ञानी होने का अहंकार करने वाला, अपने ज्ञान का व्यापार करने वाला, ब्रह्मराक्षस हो जाता है, और लोकहित में अपने ज्ञान को बाँटने वाला ईश तुल्य होकर ईश्वर में विलीन हो जाता है, जैसे तुम्हारे गुरु हो चुके हैं। मौन गुणनिधि ज्ञान-दान की महिमा को आत्मसात् कर रहा था।


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