क्या चिन्तन विज्ञान की गुलामी करेगा ?

August 1997

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संसार में बिखरी सम्पदाओं का उपयोग कितना और कैसे किया जाय- यह पूर्णतः चेतना पर निर्भर है। सीमित में संतोष और असीम की आकांक्षा- यह भी उसी की परिणति है ; पर यहाँ एक बात निश्चित है कि सीमा का उल्लंघन हर प्रकार से पीड़ादायी है। चेतना पर यदि भोगवादी हविश सवार होने लगे, तो इसे अशुभ का आगमन ही समझना चाहिए। गधा धोबी पर चढ़कर चले और साइकिल को सिर पर लादकर चलना पड़े, तो यह असमंजस की बात है। असामान्य स्थिति की बात और है , सामान्य व्यवहार में तो इसे असहनीय और अशोभनीय ही मानना पड़ेगा ।

वस्तु सत्ता जब मानवी चेतना पर अधिकार करती है, उसे जब पूरी तरह सम्मोहित और नियंत्रित करती है, तो इस प्रक्रिया में चेतना का पराभव महसूस किया जाता है। तत्त्ववेत्ताओं ने व्यक्तित्व दोष के रूप में इसके दो कारण गिनाये हैं-लोभ और मोह। यह वास्तव में मानवी मर्यादा का अतिक्रमण है, इसलिए इसकी निन्दा की गयी है। वस्तु की उचित आवश्यकता की पूर्ति के लिए नीतियुक्त उपायों से साधन उपार्जित किये जायें और उनका सीमित उपयोग निर्वाह के लिए करने के उपरान्त जो बचे, उसे लोकोपकारी प्रयोजनों में खर्च कर दिया जाये। यही वस्तुओं के, पदार्थों के, धन वैभव के उपार्जन एवं उपयोग की मर्यादाएँ हैं। उतने में निन्दा की कोई बात नहीं। लिप्सा की भर्त्सना इस कारण की गयी है कि उसके कारण अति उपयोग और संग्रह की ललक उत्पन्न होती है। यह लालसा जब बढ़-चढ़ कर सामने आती है, तो नीति-नियम जैसे बन्धन शिथिल पड़ जाते हैं और व्यक्ति वह सब कुछ कर गुजरने में भी संकोच अनुभव नहीं करता, जिसे आचारशास्त्र के हिसाब से पाप और नीतिशास्त्र के अनुसार अपराध माना गया है। इसे न तो व्यक्ति के लिए हितकर कहा जा सकता है, न समाज के लिए उचित। असंतोष और अराजकता दोनों इससे बढ़ते हैं।

व्यामोह को अनुचित इस कारण से ठहराया गया है कि घोर आसक्ति में पड़कर कहीं ऐसा और इतना कुछ न होने लगे कि मर्यादाओं और वर्जनाओं का अन्तर ही समाप्त हो जाये। मित्रता बुरी नहीं ; पर मित्रतावश जब अनुपयुक्त को वरीयता और योग्य की उपेक्षा होने लगे, तो इससे अन्याय पनपता और अनीति को बल मिलता है। जिनसे मोह होता है, उन्हें अत्यधिक महत्व मिलता है और उतनी सुविधाएँ दी जाती हैं, जो उन्हें उद्धत, अहंकारी, आलसी, अपव्ययी बनाती चलती हैं। मोह के कारण हम जिन्हें भी अनुचित उपहार देते हैं, वे तत्काल तो प्रसन्न होते हैं, पर पीछे प्रखरता नष्ट हो जाने के कारण घाटे में ही रहते हैं। मोह समवितरण और सम्बद्ध क्षेत्र में कर्तव्य-पालन कर सकने का मार्ग रोकता है। प्रेम में सद्गुणों के आधार पर मैत्री पनपती और श्रद्धा एवं घनिष्ठता के रूप में विकसित होती है, जबकि मोह के आधार पर अनुचित लाभ देकर उपकृत किये गये व्यक्ति पोषणकर्ता के लिए घातक बनते हैं।

यहाँ उद्देश्य व्यवहार दर्शन बताना नहीं, वरन् यह स्पष्ट करना है कि मनुष्य में चेतना का स्थान सर्वप्रमुख है। दुनिया की समस्त चीजें और यह काया उसी की सुविधा, प्रसन्नता के लिए है ; किंतु जब वे ही प्रमुख हो जाती हैं और चेतना गौण तो बड़ी कठिनाई पैदा होती है। इन दिनों यही हुआ है। पदार्थ सत्ता के आकर्षण में मनुष्य इस कदर पागल हुआ है कि उस कुचक्र में पड़कर आत्मचेतना अपना मूलभूत वर्चस्व ही गँवा बैठी, फलतः जिस मनुष्य को सृष्टि का स्वामी होना चाहिए, वो अब पैरों में लोटने वाले नौकर की तरह कृतदास बना हुआ है। सृष्टि का मुकुटमणि प्राणी होने के नाते जिसे सुख-शान्तिमय स्वर्गीय जीवन गुजारना चाहिए, वही नर्कतुल्य कष्ट पा रहा है। उसके लिए यह संसार स्वर्ग-सुख लुटाने वाली आनन्द-भूमि नहीं, रौरव की यातनास्थली बना हुआ है। इसका एक मात्र कारण चेतना की सत्ता को जड़-शक्तियों के द्वारा अधिकार किया जा सकता है और ऐसी स्थिति उत्पन्न की जा सकती है, जिसमें उसे अपनी स्वतंत्र चेतना के विरुद्ध किसी भी विचारधारा को मानने और अपनाने के लिए बाधित किया जा सके।

पालतू पशु मालिक के जितने आज्ञाकारी होते हैं, कदाचित वही स्थिति विज्ञान अपने निरंकुश अधिकार के बाद मनुष्य के समक्ष उत्पन्न करे और उसे वैसा ही चाहने और करने के लिए मजबूर कर दे जैसा कि सेवक का स्वामी के प्रति तथा सर्कस के शेर का उसके प्रशिक्षक के प्रति होता है। शरीर के बलपूर्वक उपयोग करने पर प्राणी की स्वतंत्र चेतना विरुद्ध न सही, असहमत तो बनी ही रहती है और भीतर ही भीतर उस स्थिति से छूटने की चेष्टा एवं इच्छा बनाए रहती है ; पर विज्ञान सम्मोहित व्यक्ति तो वैसा भी कुछ न कर सकेगा। स्वेच्छया समर्पण के लिए बाधित किया गया व्यक्ति यही समझता रहेगा कि वह निजी इच्छा से ही सबकुछ कर रहा है ; प्रस्तुत निर्णय उसके स्वयं के ही किये हुए हैं, जबकि उसकी निजी

मौलिकता, चेतना, इच्छा, प्रकृति एवं आस्था पूरी तरह मूर्च्छना की स्थिति में मृतप्राय पड़ी होगी और उसके चिन्तन को दूसरे लोग कठपुतली की तरह संचालित कर रहें होंगे।

गहन अनुसंधान के उपरान्त अँग्रेज विज्ञानी डब्ल्यू. एच. थोरपे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि शरीर में रक्त चढ़ने जैसा ही सहज कार्य तंत्रिका कोशिकाओं में इच्छानुकूल आदतों का प्रवेश करा सकना भी है। अगले दिनों इसे इतनी ही सरलता और कुशलता पूर्वक सम्पन्न किया जा सकेगा तथा मनोनुकूल इच्छाओं का आरोपण एवं प्रतिकूल मान्यताओं की धुलाई इस प्रकार की जा सकेगी, जिसे देखकर लोग न सिर्फ दंग रह जाएँगे, वरन् यह निर्णय करना भी उनके लिए कठिन साबित होगा कि उक्त आस्था उनकी निजी है या बाहर से थोपी हुई।

इस दिशा में शोध-अनुसंधान जारी है कि स्नायु संस्थान के किस भाग में किस प्रकार की क्षमता के संचालक-नियामक केन्द्र हैं ; उन पर यदि विद्युतीय आघात किये जाएँ तो सम्बन्धित अंगों पर उसकी कैसी प्रतिक्रिया होगी अथवा उन केन्द्रों की क्षमताओं पर उसका क्या असर पड़ेगा ? देखा गया है कि विद्युतीय झटकों से गहरी दबी पड़ी स्मृतियाँ स्मृतिपटल पर वैसे ही तत्काल उभर कर सामने आती हैं, जैसे वह अभी-अभी आँखों के सामने ही घटित हुईं हों। इस आधार पर डब्ल्यू. जी. पेनफील्ड जैसे स्नायु विज्ञानियों ने यह मन्तव्य प्रकट किया है कि अतीत की घटनाओं और दृश्यावलियों को वर्तमान में अनुभव कर सकना नितान्त सम्भव है।

आर. ए. डार्ट ने अपनी खोज में पाया कि चिन्तन चेतना के आधार स्तम्भ आर॰ एन॰ ए॰ नामक रसायन की मात्रा को चेतना की विभिन्न परतों के हिसाब से घटा-बढ़कर प्राणियों के चिन्तन की विधि एवं दिशा में परिवर्तन सम्भव है। अमेरिका के तंत्रिका विज्ञानी डा. रोजरहारपी सुदीर्घ काल से संचित अवांछनीय आदतों से पिण्ड छुड़ाने और उनके स्थान पर नये अभ्यासों को गहराई से अपना लेने सम्बन्धी अपनी शोध में सफल हुए हैं।

चूहे-बिल्लियों पर भी इस प्रकार के प्रयोग पूर्णतः सफल हुए हैं। प्राणी शास्त्री ई॰ ओरोवान ने चूहों पर आँशिक नियंत्रण की ऐसी विधि ढूँढ़ निकाली है, जिससे बिल्लियों के प्रति चूहों का आचरण एकदम बदल जाता है। जो चूहे बिल्ली को देखते ही अपने बिलों में दुबक जाया करते थे, वही प्रयोग के पश्चात इतने निडर बनते देखे गये जैसे वे चूहे नहीं शेर हों। अपनी पुस्तक “ए स्टडी आफ विहेवियरल कंट्रोल इन डोमेस्टिक एनिमल्स” में लिखते हैं कि जब चूहों के मेड्युला ओबलोंगाटा वाले हिस्से के अग्रभाग में तनिक गहराई पर बिजली के झटके दिये गये, तो उनका व्यवहार ऐसा हो गया, मानों वे गहरे नशे की स्थिति में हों। उनका उछलना-कूदना एकदम बन्द हो गया और एक जगह पड़े-पड़े वे इधर-उधर लुढ़कते रहे। उनका शरीर-संतुलन बिगड़ गया और पैरों के बल खड़ा हो सकना लगभग असम्भव हो गया।

अब यह पूर्णतः स्पष्ट हो गया है कि विद्युत, रेडियो और ध्वनि तरंगों के अतिरिक्त भी ऐसे कितने ही रसायन हैं, जिनसे एक हद तक इस प्रकार के कार्य बिना किसी अड़चन के सम्पन्न किये जा सकते हैं। मादक द्रव्यों का प्रभाव पहले से ही विदित है। अब रासायनिक पदार्थों से चिन्तन को मोड़ने, मरोड़ने और इच्छित प्रयोजन की दिशा में घसीट ले जाने में भी सफलता की आशा की जा सकती है। ऐसी कई दवाएँ पहले ही बना ली गयी है, जिनसे दर्द की अनुभूति को घटाया-मिटाया जा सके। यह रसायन रेटिक्यूलर एक्टिवेटिंग सिस्टम को इस कदर जकड़ लेती है कि पीड़ा की अनुभूति हो ही नहीं पाती, भले ही उस दौरान अंगों की कटाई-छँटाई ही क्यों न चल रही हो। विशेषज्ञों का कथन है कि रेटिक्यूलर तंत्र की गतिविधियों को जिस परिमाण में समझा और प्रभावित किया जा सकेगा, उतनी ही मानवी सम्वेदनाएँ नियमित-नियंत्रित हो सकेंगी। तब बिना किसी घटना के भी हर्ष और विशाद की प्रतीति कराई जा सकेगी।

ऐसे अनुसन्धानों से लाभ की सम्भावना है। निश्चय ही इनसे पीड़ितों को फायदा होगा ; पर ऐसा तभी हो सकेगा, जब इन्हें दिमागी दुर्बलता और रुग्णता को दूर करने तक ही सीमित रखा जाये। यदि स्वतन्त्र चिन्तन की दिशा में भी यह मनोवृत्ति रोड. बनकर अड़ी रही और महत्त्वाकाँक्षी अधिनायक जनसमूह का उपयोग मक्खी-मच्छरों भेड़-बकरियों की तरह करने लगें, तो मानव जाति भयंकर विभीषिका में फंस जाएगी। फिर सम्पूर्ण बौद्धिक दासता का एक निरंकुश साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। सिर्फ सत्ताधारी समर्थजन इस दासता से मुक्त होंगे और वे ही मनुष्य-जाति के सार्वभौम स्वामी होंगे, तब प्रगति की दिशाएँ भी रुद्ध और बद्ध हो जाएँगी । मानवी प्रकृति का आधार स्वतन्त्र चिन्तन ही है यों भी उसे प्रभावित करने के सभी सम्भव हथकण्डे सत्ताधारी अपनाते रहें हैं। धर्म, कला, साहित्य, भाषण एवं दृश्य-श्रव्य माध्यमों से मानवी मेधा को मोहित और मृतप्राय बनाने की चेष्टाएँ पहले से ही होती रहीं हैं। अब विज्ञान का सहारा लेकर उस कार्य को अभूतपूर्व तत्परता और शक्ति के साथ पूरा किया जा सकेगा। इस भयानक षड्यन्त्र के विरुद्ध जनमत जाग्रत किया जाना चाहिए और समझाया जाना चाहिए कि स्वतन्त्र चेतना का अपहरण मनुष्य की स्वाभाविक प्रगति के मार्ग में एक दीवार की तरह है। इससे न तो भौतिक उन्नति सम्भव है न आत्मिक, जितनी जल्दी विज्ञान के सत्ताधीशों की इन दुरभिसंधियों से बचा जा सके, उतना ही अच्छा।


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