पवित्रता ही प्रभु-मिलन का द्वार

August 1997

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गहन समाधि के नीरव पलों में ईश्वरीय गान गूँजता है- याद रखो, हमेशा याद रखो, पवित्र हृदय व्यक्ति ही मेरा सान्निध्य पाते हैं। जो लोग अपनी आकांक्षाओं के कीचड़ से सने हैं, अपनी वासनाओं के अन्धेरे में घिरे हैं, वे परम चेतना का प्रकाश नहीं पा सकते। इसलिए सदा सर्वदा पवित्रता उपलब्ध करने की तीव्र इच्छा रखो। गहराई और अध्यवसायपूर्वक पवित्रता की खोज करो। केवल यही प्रयोजनीय है।

पवित्रता परम सत्य को पाने की ड्योढ़ी है। मेरा चिन्तन करने से पूर्व पवित्रता का चिंतन करो। पवित्रता वह चाभी है जिससे ध्यान रूपी द्वार खुलता है, समाधि के आगार में प्रवेश मिलता है और सर्वशक्तिमान से मिलन होता है।

मेरी शक्ति के समुद्र में स्वयं को फेंक दो। इच्छा न करो। आकांक्षाएँ न रखो। जानों कि मैं हूँ। यही ज्ञान मेरी इच्छा के प्रति पूर्ण समर्पण के साथ युक्त होकर तुम्हारा उद्धार करेगा। भयभीत न होओ। क्या तुम मुझमें नहीं हो ? क्या मैं तुममें नहीं हूँ ? यह जान लो कि साँसारिक यश- वैभव, ऐश्वर्य- ख्याति सब कुछ एक दिन चली जाती है। मृत्यु जीवन के विभिन्न प्रकारों को निगलती हुई सर्वत्र विद्यमान है। मृत्यु और परिवर्तन आत्मा को छोड़कर अन्य सभी को अपने जाल में फँसाते और बाँधते हैं। इसे जानो। पवित्रता ही इस ज्ञान प्राप्ति का उपाय है। यह आधार भित्ति है। पवित्रता के साथ निर्भयता आती है और आती है स्वतंत्रता और तुम्हारे स्वरूप की अनुभूति, जिसका सार मैं हूँ।

तूफान आने दो। किंतु जब इच्छाएँ तुम्हें जलाये, सन्तप्त तुम्हें सताए और मन चंचल हो तब मुझे पुकारों। मैं सुनूँगा। लेकिन ध्यान रखो, मुझे भावनाओं के अति सूक्ष्म स्पन्दन भी सुनाई दे जाते हैं, किंतु हृदय विहीन वाणी की उच्च पुकार भी मुझ तक नहीं पहुँच पाती। हृदय से पुकारो मैं तुम्हारी सहायता करूँगा । जो मुझे आन्तरिकता पूर्वक पुकारते हैं, मैं उनका त्याग नहीं करता। केवल आन्तरिकता नहीं, अध्यवसाय पूर्वक मुझे पुकारो।

मैं विश्व नहीं, उसमें समायी आत्मा हूँ। तभी तो मुझे विश्वात्मा कहा जाता है। विश्व कितना भी विशाल क्यों न हो, पर वह मेरे लिए पंचभौतिक देह से अधिक कुछ भी नहीं। मेरी प्रीति केवल आत्मा में है। वस्तुओं की बाहरी विशालता से भ्रमित न होओ। दिव्यता न तो रूप में है और न ही विचारों में। वह शुद्ध, मुक्त, आध्यात्मिक, आनन्दपूर्ण, रूप रहित, विचार रहित चेतना में है। जो कलुष, पाप, बन्धन या सीमा से परिचित नहीं है, परिचित हो भी नहीं सकता। हे आत्मन्! अन्दर के अन्तर में तुम वही हो। इसकी अनुभूति तुम्हें होगी। इसका होना अनिवार्य है, क्योंकि जीवात्मा के जीवन का यही लक्ष्य है। स्मरण रखो कि मैं तुम्हारे साथ हूँ। मैं सर्वशक्तिमान, काल का भी काल महेश्वर महाकाल तुम्हारे साथ हूँ। तुम्हारी समस्त दुर्बलताओं के निवारण के लिए मैं शक्ति हूँ। तुम्हारे समस्त पापों के लिए मैं क्षमा हूँ। तुम्हारी पीड़ा दूर करने के लिए मैं दया हूँ। तुम्हारे कष्टों को मिटाने के लिए मैं करुणा हूँ। मेरी खोज में मैं तुम्हारा प्रेम हूँ। विश्वास करो मैं ही तुम हूँ , तुम ही मैं हो।

आत्मा के संबंध में अन्य सभी विचारों को त्याग दो ; क्योंकि इस विचार में कि तुम्हारी आत्मा मुझसे किसी प्रकार भी भिन्न है सभी अज्ञान और दुर्बलताएँ निहित हैं। ओ ज्योति स्वरूप! उठो, जानों कि मैं ही तुम्हारी आत्मा हूँ और पवित्रता ही मेरे सान्निध्य का पथ है।


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