आत्मसाधना एवं लोकसेवा (Kahani)

August 1997

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“बुद्ध के एक शिष्य को अभिमान हो गया कि उसने सारे त्रिपिटक रट लिए हैं। दूसरे अन्य शिष्य जो आत्मसाधना और जनसेवा में लगे रहते थे, उन्हें वह अपनी तुलना में कम पढ़ा-लिखा और तुच्छ समझता और यदा-कदा उन सबको निरक्षर भट्टाचार्य कहकर चिढ़ता रहता। एक दिन तथागत ने उसे बुलाकर शील, संयम, तप और साधना के बारे में कुछ व्यावहारिक सवाल पूछे, जिनका उत्तर उस शास्त्रज्ञ शिष्य से देते न बन पड़ा। किन्तु आत्मसाधना एवं लोकसेवा में समान भाव लगे शिष्यों ने व्यवहारिक अनुभव के आधार पर सटीक उत्तर दिए, जिन्हें सुनकर अहंकारी विशय का सारा ज्ञानाभिमान गल गया। तभी महात्मा बुद्ध ने उसे समझाते हुए कहा-ज्ञान का वास्तविक स्त्रोत शास्त्र नहीं वरन् आत्मसाधना एवं लोकसेवा से पवित्र हुआ अन्तःकरण है। पवित्र अन्तःकरण में समस्त ज्ञान स्वतः स्फूर्त होता रहता है।”

॥ ॐ शान्ति ॥


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