समग्र क्रान्ति हेतु युवाओं का आह्वान

August 1997

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“युवा”- अपरिमित उज्जस्विता, उत्साह एवं कुछ कर गुजरने की तमन्ना का नाम है। स्वभाव से ही इनमें वे सभी गुण सहज ही विद्यमान रहते हैं जो किसी भी राष्ट्र व समाज का कायाकल्प करने के लिए पर्याप्त है। इन्हें समाज की आशाओं एवं राष्ट्र के विश्वास का पर्याय

कहना अत्युक्ति न होगी। मनीषीगण किसी देश या समाज के भविष्य को इसके युवा हृदय की आकांक्षाओं एवं जीवन की दिशाधारा देखकर ही आँकते हैं।

अपने महादेश भारत के परिप्रेक्ष्य में यह आकलन करने पर हृदय पीड़ा से भर जाता है। समाज के इस सबसे बड़े महत्वपूर्ण वर्ग की स्थिति आज बहुत ही दुःखद एवं निराशाजनक है। उचित दिशा में उसकी ऊर्जा का सुनियोजन हो सकने के कारण वह सृजन की जगह विध्वंस का वाहक बन गया है। उसकी समस्याएँ दिन-प्रतिदिन बहुत उलझाव भरी एवं व्यापक होती जा रही हैं। इनके दूरगामी परिणामों की कल्पना भर से हृदय दहल जाता है। स्थिति बहुत ही गम्भीर, चिन्ताजनक और विस्फोटक नजर आ रही है।

आशाओं का प्रतीक युवक आज हताशा और निराशा के अंधेरों में खो गया है। उसकी इस दशा का बहुत कुछ दोष हमारी शिक्षा-प्रणाली को है। स्वतंत्र देश आज अपनी स्वाधीनता की स्वर्णजयंती मना रहा है। परन्तु हमारी राष्ट्रीय शिक्षापद्धति अभी भी ब्रिटिश गुलामी की पीड़ा भोग रही है। यह १५० वर्ष पूर्व मैकाले द्वारा प्रतिपादित शिक्षा-नीति की लीक पर चल रही है, जबकि यह शिक्षा-प्रणाली न तो ज्ञानार्जन में अधिक सहायक सिद्ध हो पायी और न ही जीविका उपार्जन में। उज्ज्वल भविष्य के सपने सँजोये देश के युवक इस शिक्षा पद्धति की छत्र-छाया में १५-२० वर्ष की तपश्चर्या के बाद कागज की एक डिग्री हाथ में लेकर निकलते हैं, जो उन्हें बेरोजगारी की दुनिया में सदस्यता दिलाने के लिए पर्याप्त होती है। आज देश भर में १५ करोड़ बेरोजगार हैं, जिनमें १ करोड़ बेरोजगार ऐसे हैं जो कालेज स्तर की शिक्षा ग्रहण किये हुए हैं, लाखों की संख्या में बेरोजगार डाक्टर व इंजीनियर शायद ही भारत के अतिरिक्त अन्य किसी देश में हों। उदारीकरण एवं आधुनिकीकरण की प्रक्रिया ने रोजगार अवसरों पर और दुष्प्रभाव डाला है। एक अनुमान के अनुसार भारतीय बाज़ार में विदेशी घुसपैठ के कारण अगले कुछ वर्षों में लगभग ५० लाख लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ेगा ।

आत्मविश्वासहीन, अपाहिज से हो गये युवकों की स्थिति पर “न घर के न घाट के” वाला मुहावरा एकदम सही लागू होता है। कुण्ठा, निराशा व हीनता की अदृश्य चहारदीवारी में ठोकरें खाते-खाते वह टूट जाता है। उसे जीवन व भविष्य से कोई आशा नहीं रहती। जीवन की कटु यथार्थता से हारे ऐसे ही युवक भारी मात्रा में आज नशे की दुनिया में पलायन कर रहें हैं। नशे में डूबे ऐसे बेहोश युवाओं को यदि कभी होश आया भी तो वे तब तक अपनी शारीरिक, मानसिक सामर्थ्य खो चुके होते हैं।

यदा-कदा जब आन्तरिक विक्षोभ, पीड़ा व कुण्ठा असहनीय हो जाती है तो ये युवा आत्महत्या जैसे विभत्स कृत्य द्वारा अपनी जीवनलीला समाप्त कर लेते हैं। युवकों में बढ़ती आत्महत्या की वृत्ति आज सभी के लिए चिन्ता का विषय बनी हुई है। ९० के दशक में इस शताब्दी की सबसे अधिक आत्महत्याएँ हुईं है, जिनमें सबसे अधिक संख्या किशोरों व युवकों की है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के अनुसार देश में प्रतिदिन २३० व्यक्ति आत्महत्या करते हैं। “सटरडे टाइम्स” के अनुसार देश में हर मिनट में आत्महत्या का प्रयास होता है और प्रत्येक सातवें मिनट में एक आत्महत्या हो जाती है। इनमें लगभग ५५ प्रतिशत ३० वर्ष की आयु से कम वर्ग वाले होते हैं।

बेरोजगारी के चलते पैदा निराशा युवकों के एक बड़े वर्ग को फासिस्टवादी सोच का बना रही है, जो समस्या को सुलझाने के बजाय उलझाने का शार्टकट रास्ता है। फासीवादी सोच समाज में एक हिटलर पैदा करती है, और वह हिटलर समस्याओं को सुलझाने के भ्रम को बनाये रखने के लिए एक समूह शत्रु पैदा करता है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि आज भारत में ऐ समूह शत्रु की रचना की जा रही है। समस्याओं को सुलझाने का हिटलरवादी तरीका आज गरीबी, बेरोजगारी तथा महँगाई जैसी समस्याओं को भुलाकर हिंसा का समाजशास्त्र रच रहा है। युवकों की हिंसक भीड़ द्वारा बसों को आग लगाना, रेलगाड़ी की तोड़-फोड़ करना, सार्वजनिक सम्पत्ति को तहस-नहस करना, अध्यापकों का अपमान व मार-पीट बड़ों का तिरस्कार व अवमानना, अपनी समस्याओं का हल सड़क पर उतर कर खोजना, कभी-कभी उत्तेजित होकर नृशंस हत्याएँ तक कर देना आज सामान्य बात हो गयी है। जिस गति से युवा हिंसा की ओर अग्रसर है, उसकी रफ्तार यदि यही रही तो एक दिन हमारे शिक्षालय हिंसा की पाठशालाओं का रूप ले लेंगे।

पिछले दो वर्षों में दुनिया भर में हुए अपराध के आँकड़े इस बात के गवाह हैं कि अपराधों में युवकों की भागीदारी तेजी से बढ़ी है। १९९३ में अमेरिका में २५००० हजार हत्याएँ हुईं, जिनमें ३० प्रतिशत मामलों के अभियुक्त १५-२५ वर्ष के युवा ही थे। भारत में १९९० के सरकारी आँकड़ों के अनुसार दर्ज ६१॰२० लाख अपराधों में ३२॰८७ लाख अपराधी १५ से २५ वर्ष के थे। दूषित शिक्षा-प्रणाली से उत्पन्न कुण्ठा व निराशा से उत्पन्न हिंसा वृत्ति को विकृत राजनैतिक स्वार्थ और बढ़ावा दे रहें हैं। आज विश्वविद्यालय हिंसा व राजनीति के अपराध गढ़ बनते जा रहें है। युवक प्रायः ऐसे मुद्दों में उलझे रहते हैं, जो उनके भविष्य पर विशेष प्रभाव डालने वाले नहीं हैं।

युवकों का राजनीति में हिस्सा लेना जागरूक समाज के निर्माण के लिए एक सीमा तक ही आवश्यक है। विश्व के प्रत्येक राजनीतिक चिन्तक ने एक स्वस्थ लोकतांत्रिक शासन के लिए छात्रों में राजनैतिक चेतना को न केवल अच्छा बल्कि अनिवार्य माना है। शहीद भगत सिंह अपने महत्वपूर्ण लेख “छात्र और राजनीति” में कहते हैं कि छात्रों को राजनीति में आना ही चाहिए, क्योंकि आखिर वे देश के कर्णधार होते हैं। विश्व राजनीति को एक मोड़ देने वाले लेनिन का वोल्शेविक क्रान्ति के दौरान एक महत्वपूर्ण नारा था, “छात्र चेतना राष्ट्र चेतना।”

यदि हम भारतीय उपमहाद्वीप के लोकतांत्रिक संघर्ष के इतिहास को देखें तो युवा छात्रों को अव्वल दर्जे में पायेंगे। भारत में छात्र आन्दोलनों एवं युवा नेतृत्व का इतिहास पुराना एवं प्रभावशाली रहा है। समाजशास्त्री एस. एस. गिल के अनुसार छात्र आन्दोलन की पहली

मिसाल १८८१ में मिलती है, जब युवकों ने आई. सी. एस. के लिए भारत में ही परीक्षाएँ करवाने की माँग उठाई थी। बाद में इस सदी के प्रारम्भ में बंगाल के विभाजन के मुद्दे को लेकर भी छात्रों में जबरदस्त रोष फैला था और उन्होंने तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध प्रभावशाली मोर्चा खोला था। भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलनों का दारोमदार भी युवकों पर ही था। श्री गिल के अनुसार १९०७ से १९१७ के बीच बंगाल में क्रान्तिकारी अपराधों के लिए गिरफ्तार किये गये, १९६ व्यक्तियों में ६८ छात्र व अन्य युवक थे।

भारत में युवाशक्ति का राष्ट्रव्यापी उबाल १९२० में आया, जब गाँधी जी ने नागरिक अवज्ञा आन्दोलन की शुरुआत की थी। अँग्रेजों द्वारा नियंत्रित शिक्षा-संस्थानों को त्याग कर स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए उनके आह्वान पर हजारों युवकों ने राष्ट्रीय आन्दोलन में हिस्सा लिया। १९३० में नागरिक अवज्ञा आन्दोलन का दूसरा चरण शुरू होने तक तो युवकों ने स्वाधीनता संग्राम में प्रमुख भूमिका सम्भाल ली। इस दौरान काँग्रेस में शामिल हुए कई युवा नेता आगे चलकर देश के राजनैतिक दिग्गजों में गिने गये। १९४२ में भारत छोड़ो आन्दोलन के बाद तो युवकों की सक्रियता अपने चरम तक पहुँच गयी थी। हजारों युवकों ने इसमें जेल यातनाएँ भोगी थीं।

उसके बाद युवा आन्दोलनों का राष्ट्रीय स्वरूप धीरे-धीरे विलुप्त हो गया और क्षेत्रीय व राज्यस्तरीय आन्दोलनों का दौर आया। लोकनायक जयप्रकाश नारायण का सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन इनमें सबसे महत्वपूर्ण था। इसके अतिरिक्त पश्चिम बंगाल, बिहार व आन्ध्र प्रदेश में हुए आन्दोलनों में भी युवकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

यह देश का दुर्भाग्य है कि आजादी के ५० वर्षों बाद भी कोई व्यापक व प्रतिबद्ध युवा संगठन नहीं विकसित हो पाया है, जो युवकों का मार्गदर्शन करे व उनके विकास के लिए रास्ता साफ करे। स्पष्ट दिशाबोध के अभाव में दिग्भ्रमित व परेशान युवकों के निराश व असन्तुष्ट समूह विकसित हो रहें हैं। पिछले २-३ दशकों से छात्रों के बीच प्रवाहित लोकतांत्रिक ऊर्जा निरन्तर पतन की ओर जा रही है। दूषित राजनीति का काला साया इसके पीछे हाथ धो कर पड़ा है।

आज छात्र राजनीति में राजनैतिक पार्टियों का सीधा हस्तक्षेप रहता है। पहले छात्र नेता छात्रों के बीच एक स्वतः स्फूर्तिनायक हुआ करता था, किन्तु आज वह किसी प्रभावशाली राजनेता का विस्तार भर होता है। उस पर किसी माफिया का वरद्हस्त होता है। जो छात्र राजनीति कभी आदेशों से संचालित होती थी, वह आज बदलते समय में आदेशों से नियंत्रित होने लगी है। पहले युवा नेताओं व छात्रों के बीच इतना राजनैतिक प्रभाव होता था कि चुनावों को जीतने के लिए धन और बल की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। साथ ही वे छात्रों की समस्याओं एवं समाज के प्रति जागरूक होते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं रहा। आज का युवा छात्र तो इस राजनैतिक प्रपंच में बुरी तरह फँसा हुआ छूटने के लिए छटपटा रहा है। इतना ही नहीं इन सब पर अपराधों की काली छाया मँडरा रही है।

युवाओं का एक वर्ग ऐसा भी है, जिसका उद्देश्य किसी भी तरह धन कमाना है। धन मोहित इन युवाओं ने अपने भावी व्यवसायों के माध्यम से अपनी सीमाएँ बाँध लीं हैं। वे उच्चस्तरीय नौकरियों व अधिक धन देने वाले व्यवसाय में ही दिलचस्पी रखते हैं। हाल ही में किये गये सर्वेक्षण में राजधानी के युवकों से पूछा गया कि क्या वे गैरपारम्परिक व्यवसायों, कृषि आदि को अपनाना पसन्द करेंगे ? इस पर ९८ प्रतिशत युवकों के नकारात्मक उत्तर मिलें।

धन व सुविधा खोजी इस वर्ग का अपने समाज, राष्ट्र, संस्कृति से कोई लेना-देना नहीं अमेरिका व यूरोप में पलायन कर जाता है, जहाँ इसे मोटी रकम व पर्याप्त सुख-सुविधाएँ उपलब्ध हो जाती हैं। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली के प्रो॰ सुखाले के अध्ययन के अनुसार ९० प्रतिशत युवा प्रतिभाएँ विदेश जाने के सपने संजोए रहती है। देश के २५ से ३० प्रतिशत डाक्टर प्रतिवर्ष विदेश चले जाते हैं। तकनीकी क्षेत्र की सर्वश्रेष्ठ संस्था आई॰ आई॰ टी॰ से ७० प्रतिशत चुनिंदा प्रतिभाएँ हर साल विदेश पलायन कर जाती हैं।

यह है आज की युवा शक्ति वर्तमान दशा का मोटा सा चित्रण, जो विविध दिशाओं में विश्रृंखलित हैं। एक वर्ग अधिकाधिक धन समृद्धि बटोरने में लगा है, दूसरा वर्ग जीवन की चुनौतियों से पलायन कर आत्मघाती नशे का शिकार बन रहा है। एक वर्ग है जो हिंसा, राजनीति व अपराध की दलदल में फँसा हुआ है।

युवाओं में जो अपरिमित शक्ति है, कुछ कर गुजरने की ललक है वह किसी भी समाज के कायाकल्प के लिए पर्याप्त है। विश्व की बड़ी-बड़ी क्रान्तियाँ इन्हीं युवकों के बल पर हुईं हैं। विश्व के कई देशों में राजनैतिक परिवर्तन में युवाओं की अग्रिम भूमिका रही है। उन्होंने अपने देशों में अधिनायकवादी शासन के खिलाफ राष्ट्रीय आन्दोलनों का सफलतापूर्वक नेतृत्व भी किया है।

रूस में राजशाही के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ने में युवाओं का योगदान भुलाया नहीं जा सकता। चीन में १९२० व १९३० के दशक में तथा क्यूबा में १९५६ में हुए क्रान्तिकारी आन्दोलनों की रीढ़ युवक ही थे। इन युवाओं ने कई देशों के शासन का स्वरूप बदला व नई व्यवस्था का निर्माण किया। चीन में कुछ वर्ष पूर्व हुआ जबरदस्त लोकतंत्र समर्थक आन्दोलन युवकों के दम पर ही खड. हुआ था। इसी तरह नेपाल के लोकतंत्र बहाली आन्दोलन में भी युवकों की प्रमुख भूमिका थी। लोकतंत्र बुनियादी अधिकारों और स्वाभिमान के लिए युवकों का संघर्ष आज भी कई देशों में चल रहा है, जिसमें हमारा पड़ोसी देश (वर्मा) भी शामिल है।

राजनैतिक परिवर्तनों की तरह आध्यात्मिक क्षेत्र में क्रान्ति व समाज सुधार के क्षेत्र में युवाओं ने अग्रणी भूमिकाएँ निभाई हैं। उनके युवा हृदय से उभरे महान् संकल्पों ने ही बड़े-बड़े सुधार-आन्दोलनों का शुभारम्भ किया। राजकुमार सिद्धार्थ जब अपने नवजात शिशु व पत्नी को छोड़कर धर्मचक्र प्रवर्तन के लिए चलें, तब वे मात्र २४ वर्षीय युवा ही थे। इसी तरह देश के चारों कोनों में काश्मीर से कामरूप तक व केदारनाथ से काँगड़ी, कन्याकुमारी तक पूरे भारत में अद्वैत वेदान्त का मन्त्र फूँकने वाले, साँस्कृतिक दिग्विजय यात्रा के कर्णधार आचार्य शंकर भी १८ वर्षीय युवा ही थे। शिकागो की विश्वधर्म सभा में भारतीय संस्कृति के सार्वभौमिक वेदान्त दर्शन का सिंहनाद करने वाले स्वामी विवेकानन्द ३० वर्षीय युवक ही थे।

मुगल अत्याचार के विरुद्ध शस्त्र उठाने वाले शिवाजी मराठा, गुरु गोविन्द सिंह और अफ्रीका के रंगभेद के दावानल में कूदकर अहिंसा ब्रह्मास्त्र प्रयोग करने वाले गाँधीजी भी उस समय युवा ही थे। फ्राँस को अँग्रेजी गुलामी से मुक्त करने के लिए उभरे क्रान्तिकारी आन्दोलन का संचालन करने वाला जोन आफ आर्क मात्र १६ वर्षीय युवती थीं। बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन में भाग लेने वाले लाखों भिक्षु-भिक्षुणियाँ युवा ही थे। स्वतंत्रता संग्राम में भरी असंख्य युवाओं ने अपने सुख-भोग का त्याग कर कठोर यातनाएँ सही एवं बड़ी से बड़ी कुर्बानियाँ दी। शहीद भगत सिंह, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, चन्द्रशेखर आजाद, गणेश शंकर विद्यार्थी, राजगुरु, सुखदेव जैसे युवा इस परम्परा के जाज्वल्यमान सितारों के रूप में प्रकट हुए थे, जिन्होंने राष्ट्रीय क्रान्ति में अपनी आहुतियाँ दीं।

स्वतंत्र भारत के युवक आज यह कह सकते हैं उस समय स्वाधीनता लिए राष्ट्रीय क्रान्ति की आवश्यकता थी, लेकिन अब तो भारत स्वतंत्र है ? इसके लिए समय और माँग के अनुरूप क्रान्ति के अर्थ को समझना अनिवार्य है। सामान्य अर्थों में क्रान्ति को एकतरफा तोड़-फोड़ सत्तापलट व व्यवस्था परिवर्तन की प्रक्रिया के रूप में समझा जाता है, लेकिन आज का युवा व समाज जिन समस्याओं से आक्रान्त है, उनके समाधान व उपचार के लिए उसी स्तर के गम्भीर एवं व्यापक उपचारों की आवश्यकता है। इसके स्वरूप व उद्देश्य को समझने में भूल नहीं होनी चाहिए। यह व्यक्ति के परिष्कार के द्वारा समाज की एक उदात्त परिकल्पना को साकार करने के निमित्त होती हैं। यह एक बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक क्रान्ति होगी। वर्तमान समय में सार्थक क्रान्ति किसी संकीर्ण राजनैतिक, धार्मिक, साम्प्रदायिक या जातीय स्वार्थ द्वारा प्रेरित नहीं हो सकती। इसका मूल उद्देश्य सृजन है, ध्वंस तो इसकी सामयिक विवशता भर है,

जिसे नये भवन के निर्माण से पूर्व खण्डहर गिराने या गम्भीर रोग उपचार से पूर्व आवश्यक चीर-फाड़ के रूप में समझा जा सकता है।

परिवर्तन के इन महान क्षणों में युवाओं को दुष्प्रवृत्तियों के दुष्चक्रों से उबरकर स्वयं को समग्र क्रान्ति के लिए प्रस्तुत करना चाहिए। समय की इस पुकार को कोई भी भावनाशील एवं विचारशील युवा अनसुना नहीं कर सकेगा। इस आदर्श के लिए स्वार्थों का त्याग करना होगा। इतिहास साक्षी है कि कोई भी महान् कार्य बिना त्याग के नहीं हो सका है।

राष्ट्रीय नवजागरण के पुरोधा स्वामी विवेकानन्द यदि चाहते तो अपनी प्रतिभा के बलबूते ऐश्वर्य भरा जीवन जी सकते थे। आपने २७ जून १९०० को कैलीफोर्निया के शेक्सपियर क्लब में दिये गये भाषण में वे कहते हैं-मेरे समक्ष दो विकल्प थे- एक तो यह कि मैं अपने परिवार का भरण-पोषण करूँ, स्वयं को साँसारिक दायित्वों तक सीमित रखूँ। दूसरा यह था कि उन महान् विचारों का प्रचार-प्रसार करूँ जो सारी मानव जाति के कल्याण के लिए उपयोगी थे। अन्त में फैसला मानव कल्याण के पक्ष में गया। वे कहते हैं कि कोई भी महान कार्य बिना त्याग के सम्भव नहीं। खून से लथपथ हृदय को हथेली पर रखकर क्रान्ति की राह पर चलना पड़ता है, तब महान् कार्य हो पाते हैं।

इसी तरह बुद्ध के सामने भी दो विकल्प थे-एक थी राजसी सुख-सुविधाओं से भरीपूरी जिन्दगी, दूसरी थी मनुष्य जाति के दुःख की समस्या के आध्यात्मिक निदान का त्याग, कष्ट भरा मार्ग। स्वतंत्रता यज्ञ में नवप्राण भरने वाले सुभाषचन्द्र बोस यदि चाहते आई॰ सी॰ एस॰ की ठाट-बाट भरी जिन्दगी अपना सकते थे, लेकिन समय की पुकार सुनकर उन्होंने त्याग, बलिदान का मार्ग ही स्वीकार किया।

इतिहास साक्षी है कि युवाओं ने सदैव समय की पुकार को सुना है। चाहे क्रान्ति आध्यात्मिक, साँस्कृतिक रही हो अथवा फिर राजनैतिक एवं सामाजिक। युवा पीढ़ी ने ही अपनी सुख-सुविधाओं सामाजिक पद-प्रतिष्ठा पारिवारिक मोह-बन्धनों की बेडिय़ों को झटकने का दुस्साहस किया व कूद पड़े थे, उस क्रान्ति के दावानल में, जो युग की अव्यवस्था, असुरता एवं अनीति अत्याचार को ध्वस्त करने के लिए धधक रही थी।

ऐतिहासिक परिवर्तन के इस दौर में युग-निर्माण मिशन ने समग्र क्रान्ति के लिए पुनः युवाओं का आह्वान किया है। आज जहाँ एकतरफा असुरता अपना पूरा जोर लगाकर सर्वतोमुखी विध्वंस का दृश्य प्रस्तुत करने पर तुली है, तो वहीं सृजन की असीम सम्भावनाएँ भी अपनी दैवी प्रयास में सक्रिय हैं। इस बेला में युवा हृदय से यह आशा की जा रही है कि वे अपनी मूर्छा, जड़ता, संकीर्ण स्वार्थ एवं अहमन्यता को त्याग कर युग के अभूतपूर्व साँस्कृतिक दिग्विजय अभियान में स्वयं को जोड़ व अपने समाज, राष्ट्र व विश्व के उज्ज्वल भविष्य को साकार करने में अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाएँ।


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