अपनों से अपनी बात- - इस वर्श के शान्तिकुञ्ज के ७ अ विस्मरणीय रजत जयंती समारोह

August 1997

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गायत्री परिवार के इतिहास में १७ से २० जून १९७१ के चार दिन कभी भी नहीं भुलाए जा सकते। इसी अवधि में गायत्री तपोभूमि में विदाई समारोह सम्पन्न हुआ। २० जून को परमपूज्य गुरुदेव-वंदनीया माता जी ने अपनी मथुरा से अन्तिम विदाई ली। देश भर से पधारे लाखों परिजनों को उसी तरह पीछे रोता-बिलखता छोड़ा जैसा कभी श्रीराम ने अयोध्यावासियों को छोड़ा था। एक बड़े वर्ग न उनका शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार तक पीछा किया। एक दो नहीं प्रायः पाँच सौ छोटी-बड़ी कारों और बसों का काफिला किसी अघोषित जुलूस की तरह पीछे-पीछे चलता रहा। कभी-कभी अखण्ड-ज्योति साथ लेकर चल रहे परमपूज्य गुरुदेव, वंदनीया माताजी मार्ग में रुकते तो

बीज से बना वट-वृक्ष और अब विराट् बनने की तैयारी

वहीं किसी मेले का सा दृश्य उपस्थित हो जाता, सी मौन, सभी व्यथित हृदय अद्भुत थे, वह विदाई के क्षण- जिन्होंने देखा उनके लिए भी, जिन्होंने सुना उनके लिए भी।

२० जून की रात ठीक बारह बजे परमपूज्य गुरुदेव और वंदनीया माताजी ने शान्तिकुञ्ज में प्रवेश किया । धीरे-धीरे सुनसान शान्तिकुञ्ज में सन्ध्या समय के विहंग कलरव की भाँति जन कोलाहल बढ़ना प्रारम्भ हुआ। अगले दो-तीन दिनों तक शान्तिकुञ्ज की गोद में बैठकर कितनों ने माँ का प्रसाद पाया, नींद ली, पूज्य गुरुदेव से वार्ता सम्पन्न की। वह दृश्य किसी सुनहले स्वप्न सो लगता है, जब सारा देश शान्तिकुञ्ज में एक स्वर्गीय सौन्दर्य वाले सुखी परिवार के रूप में सिमट गया था। परमपूज्य गुरुदेव की १९४० से लेकर १९७१ तक ३१ वर्षों की विकास यात्रा का यह प्रत्यक्ष अभिराम दृश्य था, जिसमें सर्वत्र श्रीराम के प्यार का मानसरोवर निश्छल, निस्तब्ध, दूर-दूर तक फैला दिखाई दे रहा था।

परमपूज्य गुरुदेव ने सप्तऋषियों की इस तपोभूमि शान्तिकुञ्ज में दस दिन बिताये। आगन्तुकों से भेंट परामर्श के साथ-साथ इसी अवधि में वंदनीया माताजी की उत्तरकालीन साधना के सभी सरंजाम भी जुटाते रहे और इस तरह एक सुबह वे शान्तिकुञ्ज छोड़कर कब चले गए, सम्भवतः यह वंदनीया माताजी के अतिरिक्त किसी को भी पता नहीं चल पाया। शान्तिकुञ्ज भी मथुरा की तरह उसी तरह शोक-सागर में डूब गया, जिस तरह किसी दिन भगवान् श्रीराम के तमसा तट पर अयोध्यावासियों को सोते छोड़कर चले जाने के बाद अयोध्या शोक में डूब गई थी।

पूज्य गुरुदेव ने एक वर्श हिमालय में बिताया। इस अवधि में वंदनीया माताजी ने कठोर तपश्चर्या सम्पन्न की। हिमालय फिर पिघला। परमपूज्य गुरुदेव शान्तिकुञ्ज लौटे और १९७२ से उसके बीज वट-वृक्ष बनने की विकास यात्रा प्रारम्भ हुई। पूज्य गुरुदेव बताया करते थे कि एक वर्ष का यह हिमालय प्रवास उनके जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण समय था, जिसमें उनकी परासत्ता से देशभर में घूमी। उन देव आत्माओं की तलाश जिन्हें नवयुग के अग्रदूतों की भूमिका निभानी थी। मादा कछुआ रेत पर अपने अण्डे देकर नदी में चली जाती है, गहरे जल में रहती है, पर वहीं से संकल्प शक्ति द्वारा अपने अण्डों को पकाती रहती है। बच्चे पकते ही अण्डे फूट जाते हैं, ठीक उसी दिन मादा अपने कुटुम्ब को समेटकर फिर नदी में चली जाती है। ऐसे ही परमपूज्य गुरुदेव ने गायत्री परिवार का दधिमंथन किया, नवनीत निकालकर उन्हें शान्तिकुञ्ज को अपना घोंसला बनाने के लिए सहमत किया।

शपथ समारोह में देवसेना का संघबद्ध होना और उसी के साथ देवसंस्कृति दिग्विजय-अश्वमेध यज्ञों की घोषणा प्रत्यक्ष देवासुर संग्राम है, जिसमें देवसंस्कृति-भारतीय संस्कृति का पलड़ा सब तरफ भारी है। इन आयोजनों की सफलता से अहंकार में डूबा महंत समुदाय भी स्तब्ध है और प्रशासनिक जड़ता भी अचम्भित है। यह सब अकाल पुरुष परमपूज्य गुरुदेव का ही सर्वस्व लीला-संदोह है।

पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया ‘माताजी’ परस्पर ‘कहियत भिन्न न भिन्न’ की स्थिति में रहे हैं। एक सूक्ष्म, दूसरा स्थूल उससे शक्ति की अभ्युदय होने में शायद कठिनाई जान पड़ी हो तभी ४ वर्ष पश्चात् ही वंदनीया माताजी ने भी महाप्रयाण किया। यहीं से ऊर्जा अनुदान की अनवरत शृंखला चल पड़ी। शान्तिकुञ्ज से शक्तिपीठों तक का यह विकास उन सभी के लिए महाभारत के बीच ‘ श्रीकृष्ण उचाव ‘ गीता संदेश की तरह है, जिसके पाठ से मन पवित्र होता है, जीवन में धारण करने से स्वर्ग और मुक्ति का पथ प्रशस्त होता है। विगत पच्चीस वर्षों की उपलब्धियाँ शान्तिकुञ्ज के बीज को वट-वृक्ष बनने की कहानी है, जिसके महानायक महाकाल परमपूज्य गुरुदेव और महाकाली माँ भगवती देवी हैं। वही नवयुग के प्रज्ञावतार और “स्वामि युगे युगे” के अधिष्ठाता देव हैं।

रजत जयंती की रूपरेखा- इसी १५ अगस्त से सारा देश अपनी स्वाधीनता की स्वर्ण जयंती मनाने जा रहा है। विशिष्ट उपलब्धियों की जयंती समारोह मनाने की परम्परा बड़ी उपयोगी है। इससे आत्मचिन्तन, आत्मसमीक्षा और भविष्य के कार्यक्रमों के लिए बल मिलता है, सो स्वाधीनता की स्वर्ण जयंती के साथ-साथ शान्तिकुञ्ज की रजत जयंती परमपूज्य गुरुदेव के हिमालय से जून १९७२ में शान्तिकुञ्ज आकर ऋषि परम्परा का बीजारोपण करने के २५ वर्श पूरे होने के संदर्भ में इस जुलाई से मनाई जा रही है। मिशनरी गरिमा के अनुरूप समारोह सम्पन्न करने की प्रेरणा अपने पथ-प्रदर्शकों ने दी है। यहाँ उसकी सम्पूर्ण रूपरेखा प्रस्तुत की जा रही है।

अब तक की सम्पूर्ण उपलब्धियों को ७ वर्गों में विभक्त कर ७ समारोह मनाने का निश्चय किया गया था। भूतकाल की उपलब्धियाँ वर्तमान की समीक्षा तथा भविष्य के कार्यक्रमों के साथ-साथ पहली बार राजतंत्र को भी दिशा-निर्देश देने का प्रयास किया गया है, ताकि स्वाधीनता संग्राम के महारथी-महायोद्धा परमपूज्य गुरुदेव की उस कार्यशैली और उपलब्धियों से राजतंत्र का भी वह पथ-प्रदर्शन हो सके, जिसकी कल्पना महामना महात्मा गाँधी जी ने की थी। एक अकेला काँग्रेसी (परमपूज्य गुरुदेव ने राजनीति में काँग्रेस के एक स्वयं-सेवक के रूप में कार्य किया, अनेक बार जेल गए, महामना मालवीय जी, रफी अहमद किदवई, माता स्वरूपरानी नेहरू, देवदास गाँधी आदि के साथ जेलयात्री, किसान आन्दोलन आगरा क्षेत्र के एकमात्र योद्धा) इतना कार्य कर सकता है, तो राजतंत्र उनका अनुगमन कर कितनी बड़ी क्रान्ति कर सकता है, इन सभी ७ वर्ग समारोहों में उसका भी स्पष्ट दिग्दर्शन कराया जा रहा है। इन वर्ग समारोहों का संक्षिप्त विवरण (विस्तृत अगले पृष्ठों पर) इस प्रकार है -

श्रद्धा-समर्पण वर्ग समारोह

गुरुपूर्णिमा २० जुलाई पर शान्तिकुञ्ज की पावन भूमि पर सम्पन्न हुए इस समारोह में इन समयदानियों को आमन्त्रित किया गया था। जो सन् २००० की महापूर्णाहुति तक नियमित रूप से न्यूनतम तीन माह प्रतिवर्ष समय देंगे। अपनी प्रतिभा, क्षमता तथा योग्यतानुसार सेवाएँ देंगे। यह कार्यक्रम अपनी गरिमा व भव्यता के साथ १९-२०-२१ जुलाई की तारीखों में सम्पन्न हो गया। प्रायः पच्चीस हजार कार्यकर्ताओं की इसमें भागीदारी रही। शेष सभी संकल्पित समयदानियों को आगामी वर्षों में आमंत्रित किया गया है।

स्वास्थ्य संरक्षण-पर्यावरण संवर्द्धन वर्ग समारोह

श्रावणी १८ अगस्त की तिथि में जड़ी-बूटी चिकित्सा से जुड़े अथवा जुड़ना चाहते हो, वृक्षारोपण इकोरिस्टोरेषन की समग्र गतिविधियों में भाग लेते हों, उनके विस्तार में सहयोग करने इच्छा रखते हों ऐसे लोग आएँ। राजतंत्र की अपनी इस अति प्राचीन विरासत को बचाने, विदेशों में न जाने देने, संरक्षण प्रदान करने पर गम्भीर चर्चा।

साधना वर्ग समारोह

महालयारम्भ पूर्णिमा १६ सितम्बर (परम वंदनीया माताजी का महाप्रयाण दिवस भी) इसमें वे सभी परिजन भाग ले, जो आस्तिकता-संवर्द्धन में निरत हों। विशेष रूप से सद्चिन्तन और सत्कर्म के मूल आधार गायत्री और यज्ञ को घर-घर विस्तार इस क्षेत्र में सक्रिय अपने परिजनों से भावी कार्यक्रमों पर चर्चा और राजतंत्र बुद्धिजीवी तंत्र से मात्र धर्मनिरपेक्ष न बने रहकर आध्यात्मिक मूल्यों के बुद्धि एवं विकास-सम्मत स्वरूप के संरक्षण पर विचार-विनिमय

सद्ज्ञान-सदिच्छा वर्ग समारोह

शरद पूर्णिमा १६ अक्टूबर- वे सभी परिजन इसमें भाग लेंगे, जो ज्ञान रथ, झोला पुस्तकालय, ज्ञान मन्दिर, विद्या विस्तार केन्द्र आदि चलाते हैं, वेदस्थापना, देवस्थापना प्रज्ञापुराण स्थापन, वाङ्मय स्थापना आदि कार्यों में विशेष उत्साह के साथ कार्य करते रहे हैं, वाक्य लेखन, स्टिकर्स विस्तार अथवा परमपूज्य गुरुदेव के साहित्य विस्तार सम्बन्धी किसी भी कार्यक्रम में भाग लेते हैं। शिक्षा मंत्रियों जैसे राजतंत्र के उन विशिष्टों व अधिकारीगणों को इसमें आमंत्रित किया जाएगा, जो भावी पीढ़ी के बौद्धिक विकास एवं चरित्र-निर्माण की दिशा में पूज्य गुरुदेव के साहित्य को नियोजित कर सकें।

संस्कृति वर्ग समारोह

कार्तिक पूर्णिमा १४ नवम्बर-संगीत कला अभिनय, लोकरंजन, नारी जागरण आदि से जुड़े परिजनों विशेष रूप से विश्व की आधी जनशक्ति नारी समुदाय का सम्मेलन-भारतीय संस्कृति पर हो रहे साँस्कृतिक आक्रमण के विरुद्ध सशक्त मोर्चे की तैयारी।

स्वावलम्बन-शिक्षा वर्ग समारोह

मार्गशीर्ष पूर्णिमा १४ दिसम्बर-देश के एक करोड़ नवयुवकों के लिए रोजगार, युगनिर्माण योजना से जुड़े अब तक प्रशिक्षण प्राप्त विद्यार्थियों, युवकों को सम्मेलन, स्वरोजगार को महत्त्वाकाँक्षी स्वरूप देने की तैयारी। दहेज, दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन आन्दोलन को युवा शक्ति द्वारा गति दिया जाना। पावन तीर्थ गायत्री तपोभूमि से प्रारम्भ संघर्ष अभियान का इन सभी सम्मेलनों में समावेश देखा जा सकता है।

इन सभी का समापन बसन्त पर्व १९१८ एक फरवरी को प्रवासी भारतीयों-उनसे जुड़े भारत में रहने वाले उनके सम्बन्धियों, प्रतिनिधियों के समन्वित सम्मेलन के रूप में होगा। भारतीय संस्कृति का विश्वव्यापी विस्तार कैसे होने जा रहा है, इसकी झलक इस आयोजन में देखी जा सकेगी।

भारतवर्ष कभी विश्व की प्रमुखतम आर्थिक शक्ति हुआ करता था। फिर आक्रान्ता इस देश में आये और इसे सीधे सच्चे देश को छलपूर्वक लूट ले गये। संसार के कई देशों में जो भी वैभव है, वह इस देश की लूट है, यह कहने ओर मानने में किसी को संकोच नहीं होना चाहिए। संकोच है, तो बस इतना कि हम अब वह धन लौटाने की प्रार्थना भी नहीं कर सकते। इतने पर भी पेट की रोटियाँ तो इस देश को, इस देश के एक करोड़ बेरोजगार नवयुवकों को चाहिए ही। उसके लिए विदेशियों से नहीं, अपने प्रवासी भाइयों से गायत्री परिवार यह प्रार्थना करेगा कि वे एक और शान्तिकुञ्ज के उपर्युक्त क्रियाकलापों में हाथ बढ़ाएँ। जड़ी-बूटी चिकित्सा विकास एवं ऐसे मेडिकल कालेज ओर हॉस्पिटलों की स्थापना में सहायता दें, जिसमें डाक्टर्स के स्थान पर नाड़ी वैद्य और मारक गुणों वाली एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति के स्थान पर मनुष्य शरीर की प्रकृति के नितान्त अनुरूप आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति पर प्रयोग अनुसंधान और विस्तार हो सके।

युग विचार-विस्तार की जरूरत

परमपूज्य गुरुदेव के साहित्य की आज दुनिया भर में माँग है। परमपूज्य गुरुदेव ने संसार के महापुरुषों के जीवन-चरित इस आशय से प्रकाशित किये थे कि महानताएँ उपार्जित करने वाले आदर्श-सिद्धान्त भावी पीढ़ी पर अवतरित रहें, पर हमारी स्थिति बहुत थोड़ा साहित्य प्रकाशित कर सकने की है। अभी दिल्ली प्रशासन ने यह जीवनचरित अपने स्तर पर प्रकाशित और प्रसारित करने की इच्छा व्यक्त की है। यह बात हमारे तंत्र के लिए शोभनीय नहीं है कि जो काम हमें करना चाहिए, उसकी अपेक्षा दूसरों से करें। साधनों का अभाव हमें अपमान झेलने को विवश करता है। अपने प्रवासी भारतीय चाहें तो शान्तिकुञ्ज में देश व विश्व की सभी भाषाओं में पूज्य गुरुदेव का साहित्य पहुँचाने की व्यवस्था हो सकती है।

परमपूज्य गुरुदेव द्वारा घोषित प्रथम पूर्णाहुति जन्मभूमि आँवलखेड़ा अश्वमेध में बहुत बड़ी संख्या में प्रवासी भारतीय आये थे। पहली मुलाकात प्यार की थी, अब परमपूज्य गुरुदेव के अधूरे स्वप्न पूरे करने की बारी है। इसमें भक्ति के साथ-साथ ज्ञान और कर्म को भी जोड़ना अनिवार्य है। इसमें जितना हित गायत्री परिवार का इस देश का होगा उससे अनेक गुना लाभ अपने उन प्रवासी भारतीयों को भी मिलेगा, जो इस सम्मेलन में भाग लेने आयेंगे । कुछ साहस पूर्ण कदम उठाने के लिए सहमत होंगे ।

महापूर्णाहुति की पूर्व भूमिका

सभी सम्मेलन तीन-तीन दिने के होंगे। पूर्णमासी से दो दिन पहले आना, पहले दिन शान्तिकुञ्ज स्तर का पूर्ण समारोह, पूर्णमासी के दिन राजतंत्र सहित पूर्ण अधिवेशन प्रतिपदा को विदाई, यह कार्यक्रम रहेगा। विशिष्ट और विचारशील अतिथि दोनों ही दिन भाग लेंगे। अंतिम कार्यक्रम २९-३०-३१ जनवरी, १ फरवरी के रूप में चार दिवसीय होगा। आशा की जानी चाहिए कि जिस तरह कुण्डलिनी के षट्चक्रों में सूक्ष्म-जगत की छह महाशक्तियों सन्निहित होती हैं, विशिष्ट योगाभ्यास की क्रियाओं द्वारा उनका जागरण, नियंत्रण और उपयोग किया जाता है, उसी प्रकार प्रस्तुत छह एवं अन्तिम बसंत पंचमी समारोह वह अभ्यास है, जिससे इस मिशन की आत्मा-शान्तिकुञ्ज की सिद्धि के साथ-साथ राष्ट्र की समर्थता भी असंदिग्ध रूप से जाग्रत होगी।

यह समारोह महापूर्णाहुति से पूर्व एक बहुत बड़ी छलाँग है। इसमें शान्तिकुञ्ज का गतिचक्र तेजी से घुमाया जा रहा है, यहाँ के प्रत्येक व्यक्ति का इंच-इंच समय निचोड़ कर उसे पिछली कार्यक्रम के लिए सहयोगी सामग्री जुटाने में लगा दिया गया है। इन समारोहों की तैयारियाँ भी असामान्य स्तर की होंगी, जिनमें, यहाँ के वरिष्ठ-कनिष्ठ सभी को चौतरफा नाचना पड़ेगा। अखण्ड-ज्योति का सितम्बर अंक ‘रजत जयंती समारोह विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। इन आयोजनों के यथार्थ स्वरूप का तभी अनुमान कर सकना सम्भव होगा। १५ जुलाई के प्रज्ञा अभियान पाक्षिक से भी परिजनों को भावी कार्यक्रम की स्पष्ट झलक-झाँकी मिलेगी। इसका अर्थ यह हुआ कि शान्तिकुञ्ज की तरह ही गायत्री परिवार के सभी छोटे-बड़े संगठन संस्थानों को भी उतना ही सक्रिय होना पड़ेगा। सभी अपने यहाँ की उपलब्धियाँ और भविष्य के कार्यक्रमों की जानकारी दें। इन कार्यक्रमों के परिप्रेक्ष्य में वे लोग क्या कर करते हैं, स्पष्ट बताएँ। जहाँ झगड़े खड़े हों, वे यथासम्भव ठीक कर लें, अन्यथा उन्हें पीछे इस पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ और हाथ लगेगा नहीं, अमृत-वर्षा हुई और हम औंधे मुँह पड़े रह गये।’

समारोह का नाम सुनकर चाहे कोई भी दौड़ पड़ने की हड़बड़ी न करे। इन समारोहों में केवल कार्यकर्ता स्तर के उपयोगी व्यक्तियों को ही आमंत्रित किया जा रहा है। अनपढ़, अशिक्षित भीड़ को यहाँ से भगाया जाए, इसकी अपेक्षा यह छँटनी पहले ही कर लेनी चाहिए। महिलाएँ आयें, पर न तो वृद्ध, गर्भवती आएँ और न ही साथ में किशोर उम्र तक के बच्चे साथ में लाएँ। सभी को आवास केवल तम्बुओं, रावटियों में मिलेगा। शान्तिकुञ्ज व्यवस्था सँभालने वालो से पहले ही भरा हुआ होगा, अतएव कर्म-युद्ध में जूझने वाले स्वयं-सेवक स्तर के केवल योद्धा आएँ। ताकि उनसे कुछ उपयोगी विचार विमर्श हो सके। आगे के कार्यक्रमों को सँभालने सम्बन्धी ठोस उत्तरदायित्व सौंपे जा सकें। वस्तुतः ये समारोह इस वर्ष गायत्री तपोभूमि द्वारा मथुरा घोषित सातों आन्दोलनों को और विराट् रूप देकर क्रियान्वित करने, जिम्मेदारियाँ बाँटने, सुनियोजन-प्रशिक्षण हेतु आयोजित किये जा रहे हैं, इसलिए इनकी महत्ता इसी गंभीरता के स्तर पर समझी जानी चाहिए।

ऐसे समारोहों में कई बार परिजन अपनी समझ के विशिष्ट व्यक्ति लेकर आ जाते हैं। वे उनके लिए विशेष सुविधाओं का आग्रह भी करते हैं, पूरी न होने पर दुःखी और अप्रसन्न होते हैं। कृपया ध्यान दे-शान्तिकुञ्ज साधना-आरण्यक है, जहाँ शासक भी गायें चराते और गोबर साफ करते हैं। ऐसे स्वयंसेवक बनाकर किसी को भी लाया जा सकता है अन्यथा ऐसे व्यक्ति इन सत्रों में नहीं ही लेकर आएँ।

“सावित्री के पिता अपनी गुणवती पुत्री के लिए वैसा ही सुयोग्य वर ढूँढ़ना चाहते थे। उपयुक्त जोड़ा न मिल सका तो पिता ने स्वयं वर-वरण की आज्ञा दे दी । सेना के समेत राजकुमारी चल पड़ी, उसने इस प्रयोजन के लिए अनेक देश -देशांतर छान डाले। राजाओं के रनिवास का घुटन भरा वातावरण उन्हें तनिक भी पसन्द नहीं आया। वे उभयपक्षीय व्यक्तित्व-विकास के लिए कोई योग्य सहयोगी चाहती थीं ।इसके लिए वैभव नहीं आदर्श अपेक्षित था। आदर्शवादी युवक ही उन्हें अपेक्षित था।

प्रवास में गहरी खोजबीन करने के उपरान्त सावित्री को एक लकड़हारा युवक मिल , जो अपने वृद्ध माता -पिता की वानप्रस्थ अवधि में उनके साथ सेवा करने आया था । जंगल से लकड़ी काटकर गुजारा करता, साथ ही अभिभावकों की सेवा में लगा रहता। विद्वान पिता के पास बैठ अपनी सद्ज्ञान-साधना को भी जारी रखता। सावित्री ने उसी जंगल में डेरा डाला। युवक से संपर्क बढ़ाया और उसके व्यक्तित्व को परखा। उसने उसी से विवाह करने का निश्चय कर लिया। पति के साथ रहकर वह भी श्रम करेगी और सेवा - साधना में लगी रहेगी। वर-वधू की सहमति देखकर उनके अभिभावकों ने भी स्वीकृति दे दी। सावित्री भी अपने पति सत्यवान के साथ उसी वनप्रदेश में रहने लगी और उन्हीं के क्रियाकलाप में पूरी तरह सहयोग करने लगी ।वह भी पितृसेवा में निमग्न होकर लोककल्याण के कार्यों में निरत रहने लगीं।

इसी बीच सत्यवान पर मृत्यु ने आक्रमण किया। किसी विषैले सर्प ने काट लिया, किन्तु सावित्री का मनोबल, चरित्र वहाँ काम आया। पिता ने उपचार बताया। आश्चर्य यह हुआ कि मृतक जैसी स्थिति में पहुँचे हुए सत्यवान के प्राण फिर लौट आये। इसे कहते हैं- पतिव्रत धर्म की मृत्यु पर विजय।”


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