अध्यात्म-साधनाओं का प्रयोजन अपने भीतर की महानता को विकसित करना है। बाहर व्यापक क्षेत्र में भी यों तो देवशक्तियाँ विद्यमान है, पर उनके लिए समष्टि विश्व की देखभाल का विस्तृत कार्यक्षेत्र नियत रहता है। मनुष्य की भूमिका के अनुरूप प्रतिक्रिया उत्पन्न करने, सफलता और वरदान देने का कार्य उनके वे अंश ही पूरा करते हैं, जो बीज रूप में हर व्यक्ति के भीतर विद्यमान है। इन्हें जाग्रत कर समष्टिगत विश्वव्यापी देवतत्वों के साथ सम्बन्ध जोड़ना, आकर्षित करना और उनका सहयोग-अनुग्रह प्राप्त करना जिस साधना-पद्धति के सहारे बन पड़ता है, योगशास्त्रों में उसे कुँडलिनी जागरण के नाम से सम्बोधित किया गया है।
योगशास्त्रों में साधना द्वारा अतीन्द्रिय क्षमताएँ जाग्रत करने एवं सिद्धि सम्पन्न बनने के जो सर्वमान्य नियम दिये गये है, उनके सिवाय अध्यात्म-विद्या-विशारदों ने इस मार्ग में शीघ्र प्रगति करके कुछ महत्वपूर्ण शक्तियाँ प्राप्त कर लेने की जो विधियाँ निकाली हैं, उनमें “कुण्डलिनी योग” का विशेष स्थान है। कुण्डलिनी जागरण से शरीर में एक शक्ति का आविर्भाव होता है, जिससे मनुष्य की चैतन्यता बहुत अधिक बढ़ जाती है और वह जब चाहे तब स्थूल संसार की अपेक्षा सूक्ष्म जगत की स्थिति का अनुभव कर सकता है और सीमित क्षेत्र में आबद्ध रहने के बजाये विराट विश्व की गतिविधियों को देखने लगता है। जाग्रत कुण्डलिनी मनुष्य को सब प्रकार की शक्तियाँ , विद्या और अन्त में मुक्ति प्राप्त कराने का साधन होती हैं।
वस्तुतः कुण्डलिनी आत्मशक्ति की प्रकट और प्रखर स्फुरण है। यह जीव की ईश्वर प्रदत्त मौलिक शक्ति है, जिसे परमा-प्रकृति भी कहा गया है। यह महाशक्ति समस्त प्राणियों के शरीर में विराजमान् रहती है। अन्य प्राणी तो इससे कोई विशेष लाभ नहीं उठा पाते और प्रकृति प्रेरणाओं के आधार पर अपना पेट भरते और वंश वृद्धि करते हुए समाप्त हो जाते हैं, परन्तु मनुष्य ईश्वर का वह वरिष्ठ राजकुमार है जिसको विवेक-बुद्धि मिली हुई है और जिसके सहारे वह अपने दैवी गुणों को विकसित कर सकता है। सामान्य स्थिति में कुण्डलिनी मूलाधार में प्रसुप्त स्थिति में मृत तुल्य पड़ी रहती है। वैसी स्थिति में उससे कोई लाभ उठाना सम्भव नहीं हो पाता। यद्यपि वह ब्राह्मी शक्ति अपने ही अन्दर छिपी पड़ी है, जिसे “कामधेनु” कहा गया है। यदि इस महाशक्ति का ज्ञान प्राप्त किया जा सके और उसकी प्रसुप्ति को जाग्रति में बदला जा सके, तो मनुष्य मानव से महामानव और नर से नारायण बन सकता है।
कुण्डलिनी क्या है ? इसके संदर्भ में शास्त्रों और तत्त्वदर्शियों ने अपने-अपने अनुभव के आधार पर कई अभिमत व्यक्त किये हैं। ज्ञानार्णव तन्त्र में कुण्डलिनी को विश्व जननी और सृष्टि संचालिनी शक्ति कहा गया है-” शक्तिः कुण्डलिनी विश्वजननी व्यापार बद्धोद्यता।” विश्व-व्यापार एक घुमावदार उपक्रम के साथ चलता है। परमाणु से लेकर ग्रह-नक्षत्रों और आकाश-गंगाओं तक ही गति परिभ्रमण परक है। हमारे शब्द और विचार जिस स्थान से उद्भूत होते हैं- व्यापक परिभ्रमण करके वे अपने उद्गम केन्द्र पर लौट आते हैं। यही गतिचक्र भगवान के चार आयुधों में से एक हैं। महाकाल की परिवर्तन प्रक्रिया इसी को कहा जा सकता है। जीव की चक्रारुढ़ मृतका पिण्ड की तरह यही घुमाती है और कुम्हार जैसे अपनी मिट्टी से तरह-तरह के पात्र-उपकरण बनाता है, उसी प्रकार आत्मा की स्थिति उठाने-गिराने की भूमिका भी वही निभाती है। कुण्डलिनी सृष्टि संदर्भ में समष्टि और जीव संदर्भ में व्यष्टि शक्ति संचार करती है।
अध्यात्म-ग्रन्थों में विशेषतः उपनिषदों में कुण्डलिनी शक्ति की चर्चा हुई है, पर उतने को ही पूर्ण पक्ष नहीं मान लेना चाहिए। उतने से आगे एवं अधिक भी बहुत कुछ कहने, जानने और खोजने योग्य शेष रह जाता है। इन अपूर्ण घटकों को मिलाकर हमें वस्तुस्थिति समझने, अधिक जानने के लिए अपना मस्तिष्क खुला रखना चाहिए।
विज्ञान की भाषा में कुण्डलिनी को जीवनीशक्ति अथवा चुम्बकीय विद्युत कहते हैं। इसका केन्द्र मस्तिष्क माना गया है, तो भी यह रहस्य अभी स्पष्ट नहीं हुआ है कि मस्तिष्क को अपनी गतिविधियों के संचालन की क्षमता कहाँ से मिलती है। योगशास्त्र इसका उत्तर उस कामशक्ति की ओर संकेत करते हुए देता है और बताता है कि अव्यक्त मानवी-सत्ता को व्यक्त होने का अवसर इसी केन्द्र को मिलता है, वही कामतन्त्र के विभिन्न क्रियाकलापों के लिए आवश्यक प्रेरणा भी देती है। यही वह चुम्बकीय “क्रिस्टल” है जो काया के ट्रांजिस्टर को चलाने वाले आधार खड. करता है।
कुण्डलिनी महाशक्ति का वर्णन विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग तरह से मिलता है। अध्यात्म शास्त्र इसे “ब्रह्माग्नि” कहते हैं और इसका मूल केन्द्र संस्थान ब्रह्मरंध्र को मानते हैं। यही सहस्रार कमल में जाग्रत कुण्डलिनी पहुँचकर साधक को सिद्धियाँ प्रदान करती हैं। सहस्रार से वह मूलाधार की ओर दौड़ती और वापस आती है। सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा जी को अपने आसन के नीचे की जलराशि तक कमलनाल के सहारे असंख्य बार चढ़ना-उतरना पड़े, तब यह सृष्टि बनीं। इस पौराणिक गाथा में सहस्रार शक्ति को मूलाधार तक आते-जाते रहने का संकेत सन्निहित है।
कुण्डलिनी को “सार्वजनिक जीवन तत्व” भी कहते हैं। इसके भीतर आकर्षण व विकर्षण दोनों ही धाराएँ विद्यमान हैं। भौतिक विज्ञान की दृष्टि से उन प्रवाहों को “बायोइलेक्ट्रिसिटी” एवं “मैग्नेटिज्म” अर्थात् जैव विद्युत एवं चुम्बकत्व कह सकते हैं। दार्शनिक हर्बर्ट स्पेन्सर के मतानुसार इसे “एन्सेस आफ लाइफ” जीवन का सार कहा जा सकता है। बाइबिल के अनुसार यही तत्व महान् सर्प है। सुप्रसिद्ध मनीषी प्रो. हडसन का कहना है कि इस महान शक्ति का जीवन तत्व का महत्व न जान पाने के कारण प्रायः लोग इसका उपयोग मात्र शरीर साधन में करते रहते हैं और यों ही जीवन की इतिश्री कर लेते हैं। यदि उसके उज्ज्वल पक्ष को समझा और प्रसुप्त को जाग्रत किया जा सके और उस जागरण को महत्वपूर्ण आत्मिक उद्देश्यों में लगाया जा सके तो चेतना क्षेत्र की चमत्कारी सिद्धियाँ, शक्तियाँ हस्तगत हो सकती हैं।
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार-” वह केन्द्र जहाँ समस्त अवशिष्ट संवेदनाएँ संचित-संग्रहित हैं, मूलाधार चक्र कहलाता है। वहाँ पर कुण्डलि क्रियाशक्ति को कुण्डलिनी कहा जाता है।” पाश्चात्य विद्वान आर्थर एवलन ने भी कुण्डलिनी को संग्रहित शक्ति बताया है। उनका कहना है कि जो महत्-ब्रह्मसत्ता ब्रह्माण्ड का सृजन एवं धारण करती है, उसकी व्यक्ति देह में अवस्थित प्रतिनिधि सत्ता का नाम कुण्डलिनी शक्ति है। इस कुण्डलिनी शक्ति की साधना अपने अन्तरंग क्षेत्र में ही करनी पड़ती है और उसकी सफलता जब मेघमालाओं की तरह बरसती है तो अगणित दिव्य-विभूतियाँ-सिद्धियाँ स्वयमेव प्रस्फुटित और पल्लवित होती हैं।
हठयोग प्रदीपिका ३-१ २,३) में कुण्डलिनी शक्ति के महत्व का वर्णन करते हुए कहा गया है कि “जिस प्रकार सम्पूर्ण वनों सहित जितनी भूमि है, उसका आधार सर्पों का नायक शेषनाग है, उसी प्रकार समस्त योग-साधनाओं का आधार भी कुण्डलिनी ही है। जब गुरु की कृपा से सोई हुई कुण्डलिनी जागती है, तब सम्पूर्ण षट्चक्र और ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं और उसी समय प्राण की शून्य पदवी सुषुम्ना, राजपथ के समान हो जाती है, चित्त विषयों से रहित हो जाता है और मृत्यु का भय मिट जाता है।”
अन्यान्य शास्त्रों विशेषकर तंत्र ग्रंथों में कुण्डलिनी के स्वरूप तथा उसके उत्थान का विस्तृत वर्णन किया गया है। कठोपनिषद् में जिस पंचाग्नि विद्या की चर्चा की गयी है, वह कुण्डलिनी महाशक्ति की पंचविधि व्याख्या-विवेचना ही है। श्वेताश्वतर् उपनिषद् में उनके योगाग्नि के रूप में उल्लेख करते हुए कहा गया है-न तस्य रोगी न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयम् शरीरम्॥” चैनिक योगप्रदीपिका में उसे “स्पिरिट फायर” के नाम से सम्बोधित किया गया है। सुप्रसिद्ध तंत्रमर्मज्ञ जान वुडरफ ने उसे “सर्पेन्टाइन फायर” नाम दिया है और कहा है कि इसे जगाने वाला विशिष्ट सामर्थ्यवान बन सकता है। थियोसॉफिकल सोसायटी की संस्थापिका मैडम ब्लेवटस्की ने कुण्डलिनी को विश्वव्यापी विद्युत-शक्ति “कॉस्मिक इलेक्ट्रिसिटी नाम दिया है। उन्होंने उसकी विवेचना विश्व-विद्युत के समतुल्य चेतनात्मक प्रचंड प्रवाह के रूप में की है। उन्होंने अपनी कृति “वायस आफ द साइलेन्स” में कहा है कि सर्पवत् सर्पिल गति अपनाने के कारण ही उस महाशक्ति को कुण्डलिनी कहते हैं। इस सामान्य गति को योग-साधक अपनी काया में चक्राकार बना लेते हैं। इस अभ्यास से उनकी शक्ति बढ़ती हैं। कुण्डलिनी विद्युतीय अग्नियुक्त गुह्य शक्ति है। वह प्राकृत शक्ति है, जो समस्त प्राणियों एवं पदार्थों के मूल में विद्यमान है।
शरीरशास्त्रियों ने उसे “नर्वस सिस्टम” नाड़ी संस्थान से उद्भूत “नर्वस फोर्स” कहा है। डा रेले ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “मिस्टीरियस कुण्डलिनी” में उसकी व्याख्या “वेगस नर्व” के रूप में की है। माँसपेशियों और तंत्रिका तंत्र के संचालन में काम आने वाली सामर्थ्य को ही आध्यात्म प्रयोजनों में काम करने पर कुण्डलिनी संरक्षक बनने का वे प्रतिपादन करते हैं। उनके मतानुसार यह शक्ति जब नियंत्रण में आ जाती है तो उसके सहारे शरीर की ऐच्छिक व अनैच्छिक गतिविधियों पर इच्छानुसार नियंत्रण पाया जा सकता है। यह आत्मनियंत्रण बहुत
बड़ी बात है। इसे प्रकारान्तर से व्यक्ति के अभीष्ट निर्माण की तद्नुसार भाग्य निर्माण की सामर्थ्य कह सकते हैं। वे इसी रूप में कुण्डलिनी का गुणगान करते और उसकी उपयोगिता बताते हुए उसके जागरण का परामर्श देते हैं। हठयोग के व्याख्याकारों, योग विद्याविशारदों ने वस्तिक्षेत्र के गह्नर में अण्डे की आकृति वाले कंद में मूलाधार की उपस्थिति मानी है। शिव संहिता में भी कहा गया है-गुदादद्वयंगुलतश्चोर्ध्व मेढ्रैकाँगुलतस्त्वधः। एव चास्ति समं कंद समता चतुरंगुलम्” अर्थात् गुदा से दो अंगुल नीचे चार अंगुल विस्तार कंद का प्रमाण है। इसी ग्रन्थ में आगे उल्लेख है कि-गुदा एवं मूत्रेंद्रिय के मध्य में जो योनि है, वह पश्चिममुखी अर्थात् पीछे को मुख है, उसी स्थान में कंद है और उसी स्थान में सर्वदा कुण्डलिनी स्थित है।”
षट्चक्र निरूपण के अनुसार मूलाधार स्थित त्रिकोण के भीतर स्वर्ण के समान स्वयंभू लिंग है, जिस पर कमलनाल के समान ब्रह्मद्वार को अपने मुख से ढके हुए विद्युत एवं पूर्ण चन्द्रमा की आभायुक्त अतिसूक्ष्म कुण्डलिनी शक्ति सी रही है। इसी तरह योग कुण्डल्योपनिषद् में उल्लेख है कि मूलाधार के मध्य वह आत्मतेज, ब्रह्मतेज रूपी कुण्डलिनी निवास करती हैं। वह जीव की जीवनी-शक्ति हैं, प्राण-शक्ति हैं। वह तेजस् रूप है। इसी के आगे १/४३-४५ श्लोकों में वर्णन है कि इस अग्निमण्डल में साधक जब प्राणायाम प्रक्रिया द्वारा प्राण-अपान का सम्मिलन कराता है तो अग्नि की लपटें और तीव्र हो जाती हैं। उस अग्नि से गरम होने पर सोई हुई कुण्डलिनी जागती है और लाठी से छेड़ने पर सर्पिणी जिस प्रकार फुफकार कर उठती है, वैसे ही यह कुण्डलिनी भी जाग्रत होती है। जाग्रत कुण्डलिनी षट्चक्रों का बेधन करती हुई सहस्रार कमल में पहुँचती है। जो इस रहस्य को जानता है, ब्रह्मवर्चस् प्राप्त करता है, नर से नारायण बनने का अवसर प्राप्त करता है।