परमार्थपरायण जीवन (Kahani)

August 1997

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दुर्योधन को अपनी माता गान्धारी की वचनसिद्धि का विश्वास था। सो वह अंतिम युद्ध में माता के पास गया और विजय का आशीर्वाद माँगने लगा।

गान्धारी ने इतना ही कहा-जहाँ धर्म होगा, वहीं जीत होगी।” इतना कहने से दुर्योधन का उद्देश्य पूर्ण नहीं होता था। वह स्पष्ट शब्दों में अपनी विजय का आशीर्वाद चाहता था। माता से उसने वैसा ही आग्रह किया।

गान्धारी ने बताया-आशीर्वाद तभी तक सफल होते हैं, जब तक नीति-न्याय के साथ जुड़े रहते हैं। पक्षपात प्रेरित होने पर वे निष्फल ही नहीं चले जाते, दाता के पास से सदा के लिए उस सामर्थ्य को भी छीन ले जाते हैं। अस्तु मैं तुम्हारी मर्जी से नहीं अपने विवेक से ही आशीर्वचन बोलूँगी।

एक प्रौढ़ की इकलौती लाड़ली बिटिया बीमार पड़ी। इलाज और उपाय की सीमा पार कर लेने पर भी उसे बचाया न जा सका। बाप का कलेजा टूट गया। व्यथा के आँसू रुकते न थे। तो उसने एकान्त साधा। संसार से उसे बुरी तरह विरक्ति हो गई। रोते-रोते वह एक रात गहरी नींद में सो गया। सपना आया-वह देवलोक जा पहुँचा है और वहाँ श्वेत-वस्त्रधारी बालकों का अत्यन्त लम्बा जुलूस निकल रहा है। सभी बच्चे प्रसन्न हैं और हाथ में जलती मोमबत्ती लिए आ रहे हैं। सपने को वह बहुत रुचिपूर्वक देखता रहा। उस पंक्ति में उसकी प्यारी बिटिया भी आ गई। वह उससे लिपट गया और हिचकियाँ ले-ले कर रोने लगा। जब धीरज बँधा, तो देखा और सब बच्चों की मोमबत्ती तो जल रही है, पर अकेली उसी बिटिया की बुझी हुई है। आदमी ने पूछा-बेटी तुम्हारी मोमबत्ती क्यों बुझी हुई है ?” बच्ची ने उदास होकर कहा-पापा-साथ वाले बच्चे उसे बार-बार जलाते हैं, पर आपके आँसू टपक-टपक कर उसे हर बार बुझा देते हैं।”

टाउमी की नींद खुल गई। उसने आँसुओं से बिटिया का हास-प्रकाश बुझने ने देने का निश्चय किया और न केवल आत्मा-शान्ति हेतु, अपितु अपनी बिटिया जैसी अनेकों जीवित प्रतिभाओं को ऊँचा उठाने हेतु कृतसंकल्प हो परमार्थपरायण जीवन जीने लगा।


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