योगनिद्रा से मनःशक्ति संवर्द्धन

August 1997

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मानसिक विकास में एक अति उपयोगी प्रयोग है- मनःसंस्थान को शिथिल कर देना। शरीर का पूर्ण शिथिलीकरण प्रकृति प्रदत्त निद्रा, उसी के सहारे मनुष्य अपनी जीवनचर्या सम्पन्न करता और अगले दिन के लिए कार्यकारी शक्ति प्राप्त करता है। निद्रा में व्यवधान पड़ने पर मनुष्य अशक्त एवं विक्षुब्ध दिखाई पड़ता है, नींद न आने की बीमारी लगातार चलती रहे, तो उसकी परिणति पागलपन में हो सकती है। जिन्हें गहरी निद्रा आती है, वे सामान्य आहार-विहार उपलब्ध होते हुए भी नीरोग और बलिष्ठ बने रहते हैं। मानसिक क्षमता भी उसकी बढ़ी-चढ़ी रहती है। अधिक गहरी निद्रा जिसे प्रसुप्ति कहते हैं, दुर्बलों और रोगियों को जीवन प्रदान कर सकती है, आहर और निद्रा दोनों वर्गों की उपयोगिता लगभग समान स्तर की ही मानी जा सकती है।

मनःसंस्थान की उच्चस्तरीय परतों की निद्रा का अपना महत्व है। यदि उसे उपलब्ध किया जा सके तो इस दिव्य संस्थान का अधिक स्वस्थ एवं अधिक समर्थ बनने का अवसर मिल सकता है।

मन की दो प्रमुख परतें है, एक सचेतन दूसरी अचेतन। सचेतन ही सोच-विचार करता है और वह रात्रि को नींद में सोता है। अचेतन को कार्य-संचालन की समस्त स्वसंचालित गतिविधियों की व्यवस्था बनानी पड़ती है। श्वास-प्रश्वास आकुंचन, निमेष-उन्मेष जैसे क्रियाएँ निरन्तर चलती रहती हैं और उन्हीं के आधार पर शरीर का निर्माण होता है। यह सब कुछ अचेतन की गतिविधियों पर निर्भर है। रात का सचेतन के सो जाने पर भी अचेतन क्रियाशील रहता है और स्वप्न देखने, करवट बदलने, कपड़े ओढ़ने, हटाने जैसे कृत्य कराता रहता है।

अचेतन की थकान दूर करने और विश्राम देने के उद्देश्य से ही मृत्यु होती है। मरने और उसके बाद पुनः जन्म लेने के मध्य में जो समय मिलता है, उसे “चिरनिद्रा” नाम दिया गया है। स्वर्ग-नरक जैसी अनुभूतियों का रसास्वादन उसी अवधि में मिलता रहता है।

प्रयत्नपूर्वक यदि अचेतन को थोड़ा या अधिक समय का उथला या गहरा विश्राम दिया जा सके ता भावना चेतना को बहुत राहत मिलती है। इस विश्राम से उसे थोड़ी-सी अवधि में ही नई स्फूर्ति प्राप्त होती है, साथ ही सचेतन के दबाव में दबे रहने वाले अन्तराल में अंकुरित विकसित होने का अवसर भी मिलता है। अन्तराल का विकास ही प्रकारान्तर से आत्मशक्ति का उद्भव-अभिवर्धन कहा जा सकता है।

योगनिद्रा के छोटे-बड़े अनेक स्तर हैं। बड़े स्तर को समाधि कहते हैं। यह निर्विकल्प, संकल्परहित और सविकल्प-संकल्प सहित दो स्तर की होती है। सविकल्प का परिणाम भौतिक और निर्विकल्प का आध्यात्मिक उपलब्धियों के रूप में सामने आता है। योगनिद्रा स्वल्प होती है और समाधि चिर-दीर्घकालीन दोनों ही परिस्थितियों में मन को अधिक शान्त एवं निष्क्रिय बनाने का प्रयत्न किया जाता है।

ध्यानयोग के द्वारा इस स्थिति को प्राप्त किया जाता है, विचार-संकल्प समाप्त तो नहीं हो सकते, पर उन्हें किसी एक केन्द्र पर नियोजित करके बिखराव के दबाव से मनःसंस्थान को मुक्त रखा जा सकता है। इतने से ही मनःक्षेत्र के जागरण एवं विकास में असाधारण योगदान मिलता है।

पाश्चात्य देशों में इस दिशा में जो प्रयोग किये जाते हैं, उन्हें सम्मोहन क्रिया के नाम से जाना जाता है। इसमें स्वसंकेतों द्वारा आत्मविकास का और सम्मोहन द्वारा दूसरों आत्मविकास का और सम्मोहन द्वारा दूसरों को अर्धमूर्छित या मूर्छित करके सुधार-उपचार का प्रयत्न किया जात है। ध्यानयोग मेडीटेशन के नाम से अब यह सर्वसाधारण की जानकारी का विषय बनता जा रहा है। उसका उपयोग प्रायः शारीरिक और मानसिक रोगों के निवारण में हो रहा है। प्राचीनकाल के अध्यात्म-वेत्ता उस प्रक्रिया का आत्मबल-संवर्द्धन के लिए करते थे। उन दिनों चिकित्सा-उपचारों की आवश्यकता बहुत ही स्वल्प मात्रा में पड़ती थी। संयम और संतुलन के परिपालन से इन दिनों रोग कम ही होते थे, जो वे रक्त शुद्ध रहने के कारण सामान्य जड़ी-बूटियों के उपचार से ही अच्छे हो जाते थे। परिचित मस्तिष्क से ऊपर एक और दिव्यचेतना स्त्रोत है, जहाँ चित्तशक्ति निवास करती है। मनोवैज्ञानिक इसे अचेतन कहते हैं। “सुपर ईगो” के रूप में इसी की विवेचना की जाती रही है। यह देवलोक, अतीन्द्रिय चेतना का केन्द्र एवं ऋद्धि-सिद्धियों का भण्डार माना गया है। इस क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त कर लेने वाला अलौकिक, असाधारण, अतिमानव एवं सिद्ध पुरुष बन सकता है।

जब अचेतन जागता है, तब प्रबुद्ध मस्तिष्क सोता है और जब प्रबुद्ध मस्तिष्क जागता है, तब चिन्तन सोता रहता है। दोनों एक साथ कार्यरत नहीं रह सकते। योगनिद्रा उत्पन्न करके पूर्ण या आँशिक समाधि में जाया जा सकता है और अतिमानवी अनुभूतियों के क्षेत्र में प्रवेश किया जा सकता है। यदि चेतन मस्तिष्क पूर्ण सजग रहे और तर्कबुद्धि के साथ निद्रित न होने का संकल्प किए रहे तो आध्यात्मिक जाग्रति असंभव है। जाग्रत मन को निद्रित करके ही अचेतन को अध्यात्म भूमिका में कुछ अधिक योगदान दे सकने योग्य बनाया जा सकता है।

प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि चार अवस्थाएँ प्रबुद्ध मन की स्वाभाविक चंचलता को निग्रहित करके एकाग्रता के केन्द्र-बिन्दु पर रोके रखने के लिए हैं। इनमें जितनी सफलता मिलती जाती है, मस्तिष्क शान्त और समाहित होता चला जाता है, साथ ही चित्तशक्ति का जागरण आरम्भ हो जाता है। मानवी संकल्प बन न केवल बाह्य प्रयोजनों में वरन् अपने शरीर की अनिवार्य गतिविधियों को इच्छानुसार नियन्त्रित करने में सफल भी हो सकता है। समाधि स्थिति की प्राप्ति द्वारा कई प्रकार के लाभ उठाये जा सकते हैं-

(१) प्रबुद्ध मस्तिष्क को गहरा विश्राम देकर उसे अधिक स्वस्थ, सक्रिय एवं बुद्धिमान बनाया जा सकता है।

(२) अचेतन मस्तिष्क को जाग्रत करके उसकी अतीन्द्रिय क्षमता बढ़ाई जा सकती है और चमत्कारी सिद्ध पुरुषों की देवभूमिका में पहुँचा जा सकता है।

(३) शरीर की गतिविधियाँ रोक सकने में समर्थ संकल्प बल की आग में संसार की कठिनाइयों को गलाया जा सकता है। जो कठिन हैं, उन्हें सरल बनाया जा सकता है एवं दूसरों को आध्यात्मिक योगदान देकर सुखी बनाया जा सकता है।

(४) दीर्घजीवन का उद्देश्य पूरा करने के लिये कायाकल्प का रहस्यमय अमृत पाया जा सकता है। विज्ञान ने यह स्वीकार कर लिया है कि यदि मनुष्य को चिरनिद्रा में सुलाया जा सके, तो उसे रोगों और थकान के पंजों से छुड़ा कर नवजीवन प्रदान किया जा सकता है। भौतिक विज्ञान ने शीतनिद्रा के रूप में समाधि से मिलती-जुलती एक विधि ढूँढ़ निकाली है। विज्ञानी डेल कारेण्टर के अनुसार मनुष्य को ठण्डा करके गहरी सुषुप्तावस्था में पहुँचाया जा सकता है।

शीतनिद्रा के भौतिक हों या हिप्नोटिज्म स्तर के, मानसिक हों अथवा समाधि स्तर के आध्यात्मिक हो, हर स्थिति में सर्वतोमुखी विश्राम एवं शान्त, एकाग्र समाधान की आवश्यकता अति महत्त्वपूर्ण समझी जाती रहेगी। उसे प्राप्त करके हम अतीन्द्रिय शक्ति-सम्पादन से नये क्षेत्र में प्रवेश कर सकते हैं।

योगनिद्रा का तात्पर्य है, चेतना का प्रवाह शरीर निर्वाह की दिशा से हटाकर अंतःक्षेत्र की ओर मोड़ देना। सूखे खेत में पानी भरने पर उसमें हरियाली उगने का उपक्रम आरम्भ होता है। इसके दो लाभ होते हैं, एक तो उच्चस्तरीय क्षमता का अभिवर्द्धन, दूसरे निकृष्ट कुसंस्कारों का निराकरण दोनों कार्य एक साथ चलने लगते हैं। प्रकाश बढ़ता है, तो अन्धकार अनायास ही अपना स्थान छोड़ता है।

मानसिक तनाव एवं विक्षोभ के कारण व्यक्तित्व को अपार हानि होती है। यह उद्विग्नता और कुछ नहीं अन्तराल की असमर्थता भर है। यह असमर्थता और कुछ नहीं, समुचित विश्राम न मिलने की प्रक्रिया है यदि इस कुचक्र को तोड़ा जा सके तो मनःक्षेत्र को अभिनव परिपोषण मिल सकता है और उसकी सामान्य तथा असामान्य क्षमताओं का नये सिरे से विस्तार हो सकता है। कहना न होगा कि अंतःक्षेत्र का यह लाभ भौतिक क्षेत्र की समस्त सफलताओं की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण हैं मनःक्षेत्र के विकास को लक्ष्य रखकर किए जाने वाले किसी भी प्रयास को अति दूरदर्शितापूर्ण कहा जा सकता है।

मनःक्षेत्र का बिखराव रोकने की प्रक्रिया ही ध्यानयोग है, इसके द्वारा सामर्थ्य की खपत में जो बचत होती है उसका अधिकाँश लाभ मस्तिष्क के उस क्षेत्र को मिलता है, जिसे सामर्थ्य की खपत में जो बचत होती है उसका अधिकाँश लाभ मस्तिष्क के उस क्षेत्र को मिलता है, जिसे ब्रह्मचक्र, ब्रह्मरंध्र, सहस्रार आदि नामों से पुकारते हैं। यह इस क्षेत्र में अवस्थित दो अति महत्त्वपूर्ण ग्रन्थियों की समन्वित प्रक्रिया का भ्रमर है। आज्ञाचक्र इसी को कहते हैं। ध्यानयोग की प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में एक रुचिकर वैज्ञानिक तथ्य है कि इस दौरान मस्तिष्क का सक्रिय भाग तुरन्त पीनियल एवं पिट्यूटरी ग्रन्थियों से सम्बन्ध स्थापित कर लेता है यह इनकी हारमोन्स स्राव करने की क्षमता में होने वाले परिवर्तनों से परिलक्षित होता है। ये दोनों ही स्थूल ग्रन्थियाँ अध्यात्म की दृष्टि से बड़ी रहस्यमय हैं। दोनों ही ऐसे रस का स्राव करती हैं, जो हमारी चेतना के स्तर को प्रभावित करते हैं।

पीनियल ग्लैण्ड का दार्शनिकों, रहस्यवादियों ने ‘तीसरा नेत्र’ एवं आत्मा का स्थान कहा है। हमारे प्रमुख सूक्ष्म शक्ति केन्द्रों में यह एक है तथा आध्यात्मिक विकास हेतु महत्त्वपूर्ण ग्रन्थि हैं। उच्च शक्तियों से सम्बन्ध जोड़ने में वह सहायक है। इसका पूर्ण जागरण हमारी चेतना को भावनात्मक और बौद्धिक स्तर से ऊपर उठाकर और अधिक सूक्ष्म जगत में ले जाता है।

पिट्यूटरी ग्लैण्ड में स्नायु-संस्थान एवं हारमोन संस्थान की परस्पर प्रक्रिया से ही रसस्राव होता है। सारे शरीर की अन्य हारमोन ग्रन्थियाँ चयापचयी एवं भावनात्मक प्रतिक्रिया को पिट्यूटरी प्रभावित करती है।

यह अनन्त विस्तृत परम चेतना का प्रवेश द्वार है। यह भौतिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्रों का मिलन बिन्दु माना गया है। ध्यान-साधना द्वारा इस ग्रन्थि को नियमित कर मनुष्य अपने स्थूल, सूक्ष्म एवं आत्मिक आवरणों का परिमार्जन कर सकता है, पूर्ण मानव बन सकता है।

जब भी कोई योगनिद्रा का अभ्यास करता है, प्रत्येक बार शक्ति प्रवाह ब्रेनसर्किटों के मध्य नये सम्बन्ध स्थापित करता है। मस्तिष्क के अन्धेरे निष्क्रिय क्षेत्र को प्रकाशित एवं सक्रिय करता है। यह हमारी चेतना को बाह्य जगत के पूर्ण व्यवसाय से अलग करता है तथा उसको, अचेतन क्रियाओं को चेतन नियन्त्रण में लाता है।

चिकित्सा क्षेत्र में योगनिद्रा का उपयोग शारीरिक एवं मानसिक रोगों को निवृत्ति के लिए किया जा रहा है और उसमें आशातीत सफलता भी मिल रही है। अमेरिका में अकेले डॉ. हार्समैन ही नहीं अन्य 16 बड़े-बड़े डाक्टर इस सम्मोहन पद्धति का प्रयोग बड़ी सफलतापूर्वक कर रहे हैं। डॉ हार्समैन का दावा है कि सम्मोहन पद्धति से महिलाओं को पीड़ा रहित प्रसव कराया जा सकता है तथा क्षय रोग के रोगियों तथा हृदय रोग के रोगियों को भी यह सम्मोहन पद्धति बड़ी कारगर रही है, क्योंकि इन रोगों में लम्बे समय तक बेहोशी की दवा पर मरीज को रखना खतरनाक है।

सम्मोहन क्रिया द्वारा अब तो कृत्रिम हृदय प्रत्यारोपण अथवा लम्बे समय तक के आपरेशनों तक में सफलता प्राप्त कर ली गई हैं सम्मोहन पद्धति से अति जटिल आपरेशन, मस्तिष्क का आपरेशन, भीतरी टूटी हड्डियों को निकालना, आँतरिक घाव अथवा अति वेदनाशील आपरेशनों पर भी सफलता प्राप्त कर ली गई है। जहाँ औषधियाँ कारगर नहीं होती, जैसे आदतें अथवा स्वभाव में परिवर्तन, वहाँ भी सम्मोहन क्रिया के बड़े अच्छे परिणाम पाये जाते हैं। जिन व्यक्तियों को दिन में 60 से 70 तक सिगरेट पीने की आदत थी, उन्हें सम्मोहन क्रिया द्वारा केवल १० सिगरेटों तक सीमित करने में एवं अन्ततः छुड़वाने में भी सफलता मिली है।

अनेकों नशे की गोलियाँ खाकर सोने वालों, शराबियों, नाखून कुतरने की बुरी आदत वालों, बिस्तर पर पेशाब करने वालों तथा अँगूठा चूसने वाले बालकों पर भी पूरी तरह सम्मोहन क्रिया सफल रही है।

मनःतत्व के विज्ञान एवं उपचार में योगनिद्रा का अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसके हलके-भारी अनेक प्रयोग-विनियोग हैं, इन्हें समझने-अपनाने का विज्ञान प्रयत्न सम्मत आधार पर किया जाए, तो निःसन्देह उसका इतना महत्त्वपूर्ण लाभ जनसमाज को मिल सकता है, जितना भौतिक अनुसंधान, आविष्कार से भी नहीं मिल सका। पदार्थ की तुलना में यदि चेतना का महत्त्व स्वीकार किया जाता है, तो यह भी मानना पड़ेगा कि योगनिद्रा जैसे अभ्यास पर सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त करने में अतीव उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118