उसकी कृपा का एक कण हमें भी मिल जाए

August 1997

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सृष्टि के स्वामी भगवान हैं। उस सर्वोपरि सत्ता के लिए संसार में न तो कुछ असाध्य है, न असम्भव । जो निर्माता है, उसके लिए निर्माण-प्रक्रिया क्यों कर दुःसाध्य होनी चाहिए । उस तरह की बात तो वहाँ सामने आती है, जहाँ सृजेता पंच भौतिक प्रकृति वाला सीमित क्षमता सम्पन्न हो। ईश्वर न तो मनुष्य है, न उस जैसा ससीम। उसकी सत्ता असीम है। उसे अनादि, अनन्त, अनश्वर जैसे नामों से अभिहित किया गया है। इसके अनुरूप उसकी क्षमताएँ और विभूतियाँ हैं । जा शक्ति और सामर्थ्य का भाण्डागार हो, उसके लिए अशक्य क्या हो सकता है ? वहाँ सब कुछ सहज सम्भव है । आध्यात्मिक पुरुषों के जीवन में घटने वाले घटना प्रसंगों से इसकी पुष्टि हो जाती है।

घटना महाराष्ट्र की है । कृष्ण नदी के तट पर करहाड़ नामक एक गाँव है । वहाँ एक ब्राह्मण परिवार रहता था । परिवार में कुल चार सदस्य थे, पति, पत्नी, पुत्र, पुत्रवधू । पुत्रवधू सखूबाई बड़ी सात्विक प्रकृति की सुशीला और सेवाभावी थी। ईश्वर के प्रति उसके मन में अगाध अनुराग था। वह जितना ज्यादा विनम्र थी, उसके सास, ससुर तथा पति उतने ही क्रूर, कर्कश और कठोर थे। वे सखू को सताने में कुछ भी उठा न रखते । प्रातः से लेकर के रात तक घर के कामों में जुटी रहने पर भी उसे भरपेट भोजन नहीं मिलता, फिर भी वह किसी से कुछ नहीं बोलती और अपने कार्य में लगी रहती। सास का इतने पर भी संतोष नहीं होता। वह जब तक उसे गालियाँ सुना न लेती, उसको चैन न पड़ता। कभी-कभी तो मारपीट कर देती। विनम्र बहू इस प्रताड़ना को भी सह लेती और भगवान का कोई मंगल-विधान समझकर मौन हो जाती। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो नहीं था। वह क्या कर सकती थी? जब पति भी कुचक्र में सम्मिलित हो जाए, तो अपना कहलाने वाला ही कौन रह जाता है, जिसके संग गृहिणी अपने कष्ट-कठिनाई बाँट सके। सखू के दिन ऐसे ही गुजर रहे थे। वह दासी की भाँति सब कुछ सहन कर जाती।

व्यवहार की कुटिलता जब अति का अतिक्रमण करती है, तो मानवी मनोवृत्ति में उससे दो प्रकार के परिवर्तन सम्भाव्य होते हैं या तो पीड़ित व्यक्ति अकस्मात् ही उग्र और क्रूर हो उठेगा अथवा वह और भी अधिक विनम्र और विनयशील बनकर भगवान की ओर उन्मुख होगा। जिनमें साधना और समर्पण की प्रबलता है एवं जो ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानते हैं, उनकी मति-गति इस दूसरी अवस्था की ओर होगी ।

सखू के साथ यही हुआ । वह दिन-दिन अधिकाधिक ईश्वरपरायण बनती गई। भक्ति उद्याम हो गया कि उसके आगे यंत्रणा बौनी पड़ गई। वह अपने में ही खोयी-खोयी रहने लगी। प्रत्यक्ष में तो घर का काम करती रहती, पर उसकी आन्तरिक स्थिति किसी ध्यानस्थ योगी से कम न होती। यदा-कदा इसके प्रमाण भी सामने आने लगे। कार्य करते-करते भक्ति के प्रवाह में कई बार वह इतनी गहराई में उतर जाती कि बाह्य वातावरण से उसका संपर्क लगभग समाप्त हो जाता। ऐसी स्थिति में सास के पुकारने की आवाज भी उसे सुनाई नहीं पड़ती। सास इसे जान-बूझकर की गई अवहेलना समझती और मारपीट शुरू कर देती। बहु मन-ही-मन परमात्मा से प्रार्थना करती कि वह उसकी सास को सद्बुद्धि दे। सखू के इष्ट-आराध्य भगवान विट्ठल थे।

महाराष्ट्र में पण्ढ़रपुर वैष्णवों का पवित्र तीर्थ है। वहाँ प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल एकादशी को विशाल मेला लगता है। इस अवसर पर महाराष्ट्र के कोने-कोने से लाखों लोग भगवान विट्ठल के दर्शनार्थ वहाँ उपस्थित होते हैं और उनके दर्शन कर धन्य अनुभव करते हैं। इव वर्ष भी यात्रीगण अलग-अलग स्थानों से अपनी अलग-अलग मण्डली बनाकर वहाँ पहुँच रहे थे। यात्रियों का एक इल करहाड़ की ओर से पण्ढ़रपुर जा रहा था। सखू इस समय नदी पर जल भर रही थी। यात्रियों के मेले में जाने की बात सुनकर उसके मन में भी देवभूमि के दर्शन की प्रबल इच्छा उत्पन्न हुई। इतना तो उसे ज्ञात ही था कि परिवार वाले वहाँ जाने की अनुमति उसे नहीं देंगे, अतः उनसे पूछना बेकार है, यह सोचकर उसने उस दल के साथ जाने का निश्चय किया और चल पड़ी। यह समाचार जब ससुराल पहुँचा, तो सब बड़े क्रुद्ध हुए। पति उसे मारपीट कर वापस घर ले आया। योजनानुसार वहाँ उसको दो सप्ताह तक बाँधकर रखने का निश्चय किया गया। इतने दिन में मेला समाप्त होने वाला था। मेला-समाप्ति तक उसे स्वतन्त्र रखना उन्हें असुरक्षित महसूस हो रहा था। उनको भय था कि सखू कहीं पण्ढ़रपुर न भाग जाए, अतः दो काम किए गए, उसे बाँध दिया गया और पन्द्रह दिनों तक निराहार रखना निश्चित किया गया।

व्यक्ति जब हर प्रकार से असहाय हो जाता है और कहीं से किसी तरह की सहायता मिलने की उम्मीद जब नहीं रह जाती, तो वह सर्वशक्तिमान परमात्मा को याद करता है। परमेश्वर भी प्रार्थी की गुहार अनसुनी नहीं कर पाते। पुकार यदि सच्ची और अन्तःकरण से निकली हुई हो, तो वे मदद के लिए दौड़े चले आते हैं। सखू के साथ भी ऐसा ही हुआ। जब सहायता का कोई कण कहीं से मिलता प्रतीत नहीं हुआ, तो वह मन-ही-मन ईश्वर से प्रार्थना करने लगी, “दयामय ! यदि जीवन में एक बार भी उस देवभूमि के दर्शन कर पाती, तो स्वयं को बड़ा धन्य समझती, पर ऐसा लगता नहीं कि जीवन में यह शक्य हो सकेगा, कारण कि मैं तो बन्धन में पड़ी हूँ, भूख-प्यास से क्या पाता कब देहपात हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। अब सहारा केवल आप हैं। आप की कृपा हुई, तो शायद मुझे यह सौभाग्य मिले और मैं कष्टों से त्राण पा सकूँ। “

कई दिनों की कातर पुकार से भगवान द्रवीभूत हुए । वे स्त्री वेष धारण कर सखू के पास आए, उसे बन्धन मुक्त किया और कहा-सखू ! अब तुम स्वतंत्र हो। पण्ढ़रपुर जाने से अब तुम्हें कोई रोक न सकेगा। तुम खुशी-खुशी जाओ। जब तक तुम लौट न आओगी, तब तक मैं तुम्हारे स्थान में बँधी रहूँगी । वापस आने में अधिक समय न लगे इसका ध्यान रखना। इतना कहकर भगवान ने उसे विदा किया और उसकी जगह स्वयं बँध गये। सास-ससुर आते और बुरा-भला कह लौट जाते। वे यही समझते रहे कि यहाँ उनकी बहू ही बँधी हुई है। सखू वेषधारी स्त्री भी सखू की तरह का ही आचरण करती। उनकी यातना चुपचाप सह लेती।

इस प्रकार पन्द्रह दिन बीत गये। इस बीच सास-ससुर के मन में तो किसी तरह का कोई पश्चात्ताप नहीं उभरा, पर पति को ग्लानि और भय दोनों हुआ। ग्लानि इस बात की कि इस प्रकार का व्यवहार मानवीय आचारशास्त्र के विरुद्ध है। भय इस कारण था कि कहीं लम्बे समय तक निराहार रहने के कारण वह मर न जाए। यदि ऐसा हुआ, तो सभी मुसीबत में पड़ जाएँगे । यह सोचकर वह सखू वेषधारी भगवान के पास पहुँचा, उसके सारे बन्धन काट डाले और अपने किये पर दुःख प्रकट कर क्षमा-याचना करने लगा। बाद में स्नान-भोजन करने की प्रार्थना की।

भगवान की ठीक उसकी पत्नी की तरह ही व्यवहार कर रहे थे। वे सखू के आने से पूर्व ही अन्तर्धान होने में उसकी विपत्ति की आशंका कर रहे थे, अतः उसके आने तक वहाँ ठहरे रहे। बन्धन मुक्त होकर उन्होंने स्नान किया और भोजन पकाया, फिर अपने हाथ से तीनों को खाना खिलाया। आज के भोजन में अद्भुत स्वाद था। सभी इस बात से आश्चर्यचकित थे कि आज से पूर्व सखू ने इतना स्वादिष्ट भोजन कभी नहीं बनाया। सभी ने मात्र इसे एक संयोग समझा। अपने सुन्दर व्यवहार और सेवा से भगवान ने सबको अपने अनुकूल बना लिया।

इधर पण्ढ़रपुर पहुँचकर सखू उस अद्भुत तीर्थक्षेत्र का स्पर्श पा भावविभोर हो गई वह इस बात को भू गई कि उसकी जगह कोई दूसरी स्त्री बँधी है। इसी उद्भ्रान्ति में पड़कर उसने प्रतिज्ञा कर ली-इस शरीर में प्राण के रहते वह-पण्ढ़रपुर की सीमा से कभी बाहर न जाएगी। अव वहीं घूम-घूमकर वह लोगों की सेवा करने लगी। जिसे भी कष्ट में देखती, उसकी मदद करने तत्काल पहुँच जाती। सखू अपनी इस परमार्थपरायणता के कारण कुछ ही दिनों में विख्यात हो गई। लोग उससे स्नेह करने लगे। कुछ समय पश्चात् अतिशय कार्य के कारण वह बीमार पड़ी और उसकी मृत्यु हो गई। सभी ने उसकी अन्त्येष्टि कर दी। अन्तिम क्रिया करने वालों में एक व्यक्ति उसके गाँव के निकटवर्ती ग्राम का था। उसने देखते ही सखू को पहचान लिया।

भगवान ने जब देखा कि सखू ने प्राण त्याग दिए हैं, तब अपनी मुक्ति का और कोई उपाय न देख उन्होंने उसे पुनर्जीवित करने का फैसला किया। श्मशान भूमि में उसकी राख और हड्डियों को एकत्रित कर उसमें प्राण-संचार कर दिया। सखू नूतन शरीर में जीवित हो उठी । ब्रह्माण्ड की संरचना करने वाली सत्ता के लिए यह कौन-सी बड़ी बात थी? उसके लिए तो निमिष मात्र का कौतुक था। उसे जीवनदान दे, भगवान ने उसको सलाह दी, अब तू यात्रियों के संग घर लौट जा। तेरे लौटने से तेरी प्रतिज्ञा भंग नहीं होगी। प्रण तेरे पुराने कलेवर में घर नहीं लौटने का था, सो वह तो जलकर भस्म हो गया। अब नवीन काया में वापस लौटने में को हर्ज नहीं, सखूबाई तीर्थवासियों के साथ दो दिन में करहाड़ पहुँच गई। सखू का आना जानकार सर्वज्ञ सखू वेषधारी भगवान नदी तट पर घड़ा लेकर पहुँचे। वहाँ उससे दो-चार बातें कीं और घड़ा उसको देकर अदृश्य हो गए। वास्तविक सखू घड़ा लेकर वापस आयी और अपने कार्य में लग गई। यहाँ सभी के परिवर्तित स्वभाव से उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। आचरण में परिवर्तन के कारण घर में शान्ति आ गई थी। अब न तो बहू को घर वालों से कोई शिकायत थी, घरवालों का बहू से। सभी प्रेमपूर्वक रह रहे थे।

इस बीच दाहक्रिया करने वाली पड़ोसी गाँव से उस व्यक्ति को याद आया कि सखू की मृत्यू का समाचार उसके घर तक पहुँचा दिया जाए। वहाँ पहुँचकर उसने सखू को गृहकार्य में व्यस्त देखा, तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह मन-ही-मन सोचने लगा कि जब सखू के निष्प्राण शरीर को अगिन की भेंट उसने चढ़ाई फिर उसके जीवित हो उठने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। तब यह कौन है ? कहीं उसका भूत तो नहीं ? उसने उसकी सूक्ष्म पड़ताल की। नहीं, यह प्रेत शरीर नहीं हैं। उसने पढ़ रखा था, प्रेत के पाँव उलटे होते हैं। यहाँ शरीर में पैर सीधे थे। उसकी बुद्धि जड़ हो गई। वह यह निर्णय नहीं कर पा रही थी कि जो कुछ दीख रहा है, वह सत्य है अथवा भ्रम। अन्ततः उसने निश्चय किया कि बिना कुछ कहे लौट चले। कहीं उसकी बात का लोग बुरा न मान जाएँ पर दूसरे ही पल विचार आया कि यदि वह लौट गया, तो वास्तविकता क्या है, यह ज्ञात न हो सकेगा, अतः रहस्य का पता लगना ही पड़ेगा । डरते-डरते उसने सखू की मृत्यु की बात बताई। सब उसे ऐसे देखने लगे, जैसे कोई विलक्षण बात कह दी हो। कुछ क्षण उपरान्त गृहस्वामी ने कहा-सखू तो पण्ढ़रपुर गई ही नहीं, फिर आप यह बात कैसे कह रहे हैं ? मामला और जटिल हो गया। वह सोचने लगा कि जो कार्य उसने स्वयं अपने हाथों सम्पन्न किया, उसे भ्रम मानने का कोई कारण नहीं और गृहपति की बातों में भी इतना बल था कि उस पर सहज ही अविश्वास मुश्किल था। दोनों ही पक्ष एक-दूसरे को आश्वस्त करने में असफल रहे। अन्त में सखू को बुलाया गया। सारी बात बतायी गई और सच्चाई क्या है, यह बतलाने को कहा गया। सखू ने सार वृत्तांत सुनाते हुए भगवान की असीम अनुकम्पा की बात बतायी। सभी इसे सुनकर रोमांचित हो उठ।

भगवान की परिभाषा करते हुए सूत्रकार ने लिखा है- कर्त्तुमकर्त्तु-मन्यथकर्त्तु शक्त ईश्वरः “ अर्थात् जो करने, न करने अथवा अन्यथा करने में समर्थ हो, वही ईश्वर है। उस सर्वोच्च सत्ता के लिए सृष्टि के घटक प्राणी की निर्माण क्यों कर कठिन होना चाहिए। वह तो उतना ही सरल और सम्भव है, जितना मनुष्य के लिए कौतुक रचना। ईश्वरीय सत्ता हमारे अन्दर भी है और बाहर भी। उसकी कृपा का एक कण भी हमको मिल गया, तो हम धन्य अनुभव करना चाहिए, पर समानधर्मी ही समानधर्मी को आकर्षित कर सकने में सक्षम, इस सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता और यह तथ्य भी गलत नहीं कि दो तत्वों का परस्पर पूर्णरूपेण घुलने-मिलने के लिए उनमें समरूपता होनी चाहिए। असमानता का अवरोध इसमें अड़चन पैदा करता है, हमारी अपनी सत्ता भी परमसत्ता की तरह सरल, निर्मल और निर्विकार हो, तभी उसका, अस्त्र अनुग्रह सम्भव है, इससे कम में नहीं।


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